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कर्नाटक में हार के बाद मध्य प्रदेश में क्या होगी बीजेपी की रणनीति?

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम आते ही 13 मई की शाम को कमलनाथ मध्य प्रदेश कांग्रेस दफ्तर पर थे. आतिशबाजी कर फुर्सत हुयी और नारेबाजी में मगन कार्यकर्ताओं की भीड़ को माइक लेकर उन्होंने कहा कर्नाटक की जीत कार्यकर्ताओं और बजरंग बली की जीत है और ऐसी ही जीत मध्य प्रदेश में दोहरायी जाएगी. जय जय कमलनाथ के नारे के साथ कमलनाथ कार्यालय से निकल गये मगर दूसरी तरफ बीजेपी खेमे से किसी की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई.

भोपाल में रोज एक ही जगह पर एक पौधा लगाकर कमलनाथ से रोज एक सवाल कर मीडिया से मुखातिब होने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समेत टीवी पर गरजने, बरसने, चमकने वाले कई बीजेपी प्रवक्ता भी कर्नाटक चुनाव पर दिन भर चुप ही रहे.

बीजेपी की मध्य प्रदेश में ये चुप्पी बहुत कुछ कह रही है. राजनीति में जरूरी नहीं कि हर सवाल का जवाब दिया जाए, मगर राजनीति में सवालों से लंबे समय तक बचा भी नहीं जा सकता. तो सवाल यही है कि कर्नाटक चुनाव से मध्य प्रदेश बीजेपी ने क्या सीखा. ये सवाल यहां इसलिये भी है क्योंकि मध्यप्रदेश और कर्नाटक में बहुत सारी समानताएं है. कर्नाटक के बाद इस साल जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं उनमें मध्य प्रदेश भी है. कर्नाटक के समान यहां पर भी 2018 में बीजेपी को हटाकर लोगों ने कांग्रेस को चुना था. कर्नाटक जैसा सत्ता पलटने के लिये ऑपरेशन लोटस मध्य प्रदेश में भी चला था, जिसमें कांग्रेस के विधायकों को कर्नाटक के रिसोर्ट में ही रखा गया था. उनके इस्तीफे से सरकार गिरी और सत्ता में फिर बीजेपी की वापसी हुई.

कर्नाटक की बीजेपी सरकार जैसा मध्य प्रदेश सरकार पर 40% कमीशन का दाग तो नहीं लगा है मगर प्रदेश के मंत्रियों के दबे छिपे भ्रष्टाचार जनता में चर्चा का विषय जरूर है. ये बात मुख्यमंत्री से लेकर बीजेपी के संगठन मंत्री तक सब जानते हैं. कर्नाटक में तो सिर्फ चार साल पुरानी सरकार के खिलाफ एंटी इनकंबेंसी थी. यहां तो अठारह साल होने को है. कर्नाटक में भी डबल इंजन सरकार के ढोल बजाकर विकास के गीत गाए गए. यही हाल मध्य प्रदेश में भी है. भोपाल के गली चौराहों नुक्कड़ों पर विकास लगातार डबल इंजन सरकार के होर्डिंग पर सजे नरेंद्र मोदी-शिवराज के मुस्कुराते फोटो दिखते हैं. अखबारों पर भी हफ्ते में कम से कम तीन बार आने वाले पूरे पन्ने के विज्ञापन भी पीएम मोदी-शिवराज के फोटो से सजे हैं. अब तो इन विज्ञापनों में बदलाव भी दिख रहा है पीएम मोदी ऊपर तो शिवराज नीचे की तरफ जगह पा रहे हैं. कहने का मतलब है कि फोकस पीएम मोदी ही हैं.

बीजेपी की अंदर की खबर रखने वाले जानकार दावा करते हैं कि मध्य प्रदेश में चुनाव को लेकर पार्टी में कुछ चीजें पहले ही तय हो गई हैं. जैसे विधानसभा चुनाव पीएम मोदी के चेहरे और उनकी जनहितैषी योजनाओं के दम पर ही लड़ा जायेगा. चुनाव तो तीन विधानसभा चुनावों की कमान संभालने वाले अनुभवी शिवराज सिंह चौहान ही लड़ाएंगे और उनको बदलने की अटकलों पर पूर्ण विराम लग गया है. ये जरूर है कि उनके मंत्रिमंडल में गुजरात जैसा आमूल-चूल बदलाव प्रस्तावित है जो कभी भी कर दिया जायेगा.

16 साल से ज्यादा के अनुभवी मुख्यमंत्री को एक तरफ कर चुनाव लड़ना आसान नहीं होगा, मगर उनकी रीति-नीति और प्रचार के तरीकों पर आलाकमान ऐतराज करने लगा है. बड़ी-बड़ी सभाएं और लगातार महंगे इवेंट पर सवाल उठने लगे हैं. हो सकता है आने वाले दिनों में इनमें कोई बदलाव भी दिखे. शिवराज सिंह चौहान ने 2018 के चुनाव के पहले सर्व सुखदायी संबल योजना लाकर चुनाव जीतने की सोची थी. ठीक ऐसा ही 2023 में लाडली बहना योजना से उम्मीद की जा रही है. इस योजना की शुरुआती धूम अच्छी रही, मगर कांग्रेस के डेढ़ हजार रुपये वाली नारी सम्मान योजना और पांच सौ रुपये में गैस सिलेंडर के वादे ने शिवराज मामा की ढाई करोड़ मतदाता बहनों को भटकाने का काम तो कर दिया है.

शिवराज सरकार से अलग अब बात बीजेपी संगठन की. मध्य प्रदेश संगठन ने चुनाव की तैयारियां तो की है. फिर चाहे बूथ लेवल तक मतदाताओं की मार्किंग हो, संगठन एप पर वोटरों और कार्यकर्ताओं का डिजिटलाइजेशन हो या फिर कार्यकर्ताओं को लगातार कार्यक्रम देना. मगर दिल्ली से नियुक्त प्रभारियों ने संगठन के बोझ को बढ़ा दिया है. आलम ये है कि प्रदेश के नेता इन प्रभारियों के काम करने के तरीकों के खिलाफ खुलकर बोलने लगे हैं, जो बीजेपी जैसी अनुशासित पार्टी में पहले नहीं होता था. मगर इन प्रभारियों की टीम में आने वाले दिनों में कुछ प्रभारी और जुड़ेंगे, जो चुनाव के लिहाज से संगठन को और कसेंगे, सत्ता संगठन में समन्वय बनायेंगे.

प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा अपने स्तर पर जो कुछ कर सकते हैं, वे कर रहे हैं. मगर सत्ता वाले राज्य में संगठन हमेशा बौना होता है और फिर सत्ता बीस साल पुरानी हो तो बैठक कर सरकार के कामकाज और सरकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाने के उपदेश देने के अलावा कुछ रह भी नहीं जाता. मध्य प्रदेश में यही हो रहा है. सत्ता और संगठन में क्या और कहां कमजोरियां हैं, ये पार्टी के शीर्ष नेतृत्व  के पास ग्राउंड रिपोर्ट के साथ फीडबैक पहुंच गया है.

अब सवाल फैसला लेने का है. सरकार और संगठन से जुड़े मामलों में बीजेपी को कड़े फैसले लेने होंगे क्योंकि कर्नाटक ने खतरे की घंटी बजा दी है. ऑपरेशन लोटस ने बीजेपी की सरकार तो बनवायी थी मगर मध्य प्रदेश में उस ऑपरेशन के बाद के घाव पक गये है. फिर एक बड़े ऑपरेशन की जरूरत है जो शीर्ष नेतृत्व को करना होगा. वरना कुछ बातें तो कर्नाटक के नतीजों ने साफ कर दी हैं. जैसे डबल इंजन अब पटरी पर आसानी से नहीं दौड़ रहा, धर्म और ध्रुवीकरण बहुत नहीं चल रहा, मोदी का जादू विधानसभा चुनावों में असरकारक नहीं दिख रहा और वोटर किसी पार्टी का अब वफादार नहीं रहा. ऐसे में जरूरी है कि बीजेपी आलाकमान एमपी की तासीर को समझकर रणनीति बनाएं, वरना टेलर मेड कपड़े पहनाने की कोशिश में कपड़े फट जाते हैं, जैसा कर्नाटक में हुआ.

(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)

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