नई दिल्लीः जिसका डर था वही बात हो गई. गुजरात में कांग्रेस के ज़मीनी और कद्दावर नेता शंकर सिंह वाघेला ने अपना 77वां जन्मदिन मनाने के दौरान कांग्रेस को अलविदा कह दिया. साल के आखिर में होने जा रहे गुजरात विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र इसे कांग्रेस के लिए तगड़े झटके के तौर पर देखा जा रहा है. वाघेला ने नेता प्रतिपक्ष पद तो त्याग दिया है लेकिन विधायकी छोड़ने की मियाद उन्होंने राज्यसभा चुनाव होने यानी 8 अगस्त के बाद तय की है.

कांग्रेस के लिए उनका यह स्टैंड परेशानी में डालने वाला है क्योंकि सोनिया गांधी के विश्वासपात्र और उनके राजनीतिक सचिव अहमद पटेल के गुजरात से राज्यसभा में पुनर्निर्वाचित होने के रास्ते में मुश्किलें आ सकती हैं. वाघेला पार्टी की तरफ से आगामी चुनाव में स्वयं को सीएम पद का उम्मीदवार न घोषित किए जाने और पार्टी छोड़ने पर मजबूर होने का बदला अहमद पटेल के रास्ते का रोड़ा बन कर ले सकते हैं. गुजरात के 57 में से लगभग दर्जन भर कांग्रेस विधायक उनके वफादार हैं. अगर उन्होंने राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग कर दी तो कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी की साख में बट्टा लग सकता है. राज्यसभा में चौथी बार चुने जाने के लिए अहमद पटेल को 47 विधायकों के वोट चाहिए होंगे. यह आशंका निराधार नहीं है. बताया जा रहा है कि हाल ही में सम्पन्न राष्ट्रपति चुनाव में गुजरात के 57 में से 49 विधायकों के वोट ही विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार मीरा कुमार को मिले. यानी 8 विधायकों ने एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के पक्ष में मतदान किया. पार्टी नेतृत्व को आशंका है कि यह वाघेला के इशारे पर हुआ. यही वजह है कि दिल्ली में उसी दिन मौजूद वाघेला को न तो सोनिया गांधी और न ही राहुल गांधी ने मिलने का समय दिया और ‘बापू’ (वाघेला को गुजरात में आदर से बापू कहा जाता है) राजघाट पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी (बापू) की समाधि पर मत्था टेककर बैरंग वापस हो गए.

वाघेला के बारे विश्लेषकों का कहना है कि उनको कांग्रेस पार्टी में लेना ही बड़ी भूल थी. उन्होंने सीएम बनने की महत्वाकांक्षा के चलते ही अपने ही साथी केशुभाई पटेल से विद्रोह करके कांग्रेस का दामन थामा था. 1995 में भाजपा को जिताने में अहम योगदान देने वाले वाघेला की जगह जब दिग्गज पटेल नेता केशुभाई को गुजरात का मुख्यमंत्री बना दिया गया था तो वह अपमान वाघेला से सहन नहीं हुआ और पार्टी से बगावत करके 1996 में उन्होंने अपनी ‘राष्ट्रीय जनता पार्टी’ बनाकर सीएम की कुर्सी पर कब्ज़ा कर लिया था, जिसका आगे चलकर कांग्रेस में विलय हो गया. कभी आरएसएस स्वयंसेवक रहे वाघेला कांग्रेस की सरकार में केंद्रीय कपड़ा मंत्री भी रहे. लेकिन राज्य और केंद्र से कांग्रेस की सत्ता जाने के बाद से वाघेला खाली हाथ बैठे थे और इस विधानसभा चुनाव में सीएम का उम्मीदवार बनाए जाने के लिए पार्टी पर दबाव बना रहे थे. इसके लिए उन्होंने कई बार सार्वजनिक तौर पर अनुशासन की ‘लक्ष्मण रेखा’ भी लांघी. राहुल गांधी समेत अन्य अपने बड़े नेताओं को ट्विटर पर अनफॉलो तक कर दिया. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से वाघेला की मुलाकात भी पार्टी नेतृत्व को हजम नहीं हुई. हालांकि उनकी वरिष्ठता, क्षेत्रिय अस्मिता और उत्तरी गुजरात में उनकी लोकप्रियता देखते हुए पार्टी नेतृत्व ने काफी हद तक अनदेखा भी किया लेकिन जब वाघेला शीर्ष नेतृत्व को पार्टी से बाहर निकालने की खुली चुनौती देने लगे तो पानी सर से ऊपर चला गया.

हालांकि कांग्रेस पर ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ का तंज कसने वाले वाघेला का दावा यह है कि पार्टी ने उन्हें निकाला है जबकि कांग्रेस कह रही है कि यह वाघेला का स्वयं का निर्णय है. मामला चाहे जो भी हो, वाघेला के पार्टी छोड़ने का खामियाजा कांग्रेस को गुजरात में भुगतना पड़ेगा. गुजरात के प्रभारी अशोक गहलोत और प्रदेशाध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी वाघेला को सीएम पद का उम्मीदवार बनाने के पक्ष में नहीं थे क्योंकि इससे राज्य के अन्य कांग्रेसी दिग्गज खफा हो जाते. वैसे भी गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी पर चार प्रमुख गुटों की आपसी खींचतान हावी रहती थी. ये हैं- भरत सिंह सोलंकी गुट, शक्ति सिंह गोहिल गुट, अर्जुन मोधवाडिया गुट और शंकर सिंह वाघेला गुट. इसलिए अब भी नहीं कहा जा सकता कि वाघेला के अलग हो जाने से कांग्रेस की गुटबाज़ी ख़त्म हो जाएगी.

ताज़ा हालात के मद्देनज़र कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने गुजरात कांग्रेस के नेताओं के साथ आननफानन में बैठक बुलाई. इसमें अहमद पटेल, महासचिव प्रभारी अशोक गहलोत और सचिव प्रभारी राजीव सात्व मौजूद थे. माना जा रहा है कि इस बैठक में कांग्रेस की गुजरात में आगे की रणनीति पर बातचीत हुई. उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछले दिनों भी राजनीतिक विश्लेषकों की एक टीम गुजरात भेजी थी. टीम का फीडबैक निराशाजनक रहा.

कहा गया कि स्थापित कांग्रेसी भी अपनी सीट बचा ले जाएं तो बड़ी उपलब्धि होगी. यह हाल तब है जब लगभग 20 वर्षों से राज-काज चला रही भाजपा के खिलाफ सूबे में एंटीइनकंबैंसी, जातीय असंतोष बढ़ रहा है और सरकार विरोधी पाटीदार और दलित आंदोलन उग्र हैं. बीते सालों में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस ने ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा को करारी शिकस्त दी है. लेकिन इन हालात की फसल काटने की बजाए कांग्रेस को अपना कुनबा संभालने में ही एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना पड़ रहा है.

पारम्परिक रूप से कांग्रेस गुजरात में ‘खाम’- क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम मतों- के भरोसे चुनाव जीतती रही है. गुजरात में लगभग 7 फीसदी दलित और 14 फीसदी आदिवासी मतदाता हैं. लेकिन भाजपा ने बड़ी हद तक आदिवासी और दलित मतदाताओं को अपने पाले में कर लिया है. और वाघेला तो यहां तक कह रहे हैं कि कांग्रेस लड़ने से पहले ही चुनाव हार चुकी है. वाघेला के कांग्रेस छोड़ने के बाद कांग्रेस की नई रणनीति क्या होगी, यह तो वक्त ही बताएगा. लेकिन इतना तय है कि अगर वाघेला ने अपनी ताकत दिखाने के लिए गुजरात में कोई तीसरा मोर्चा बना लिया तो कांग्रेस राज्य में सरकार बनाने का सुनहरी मौका फिर से खो देगी.

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