जामिया वाले प्रकरण के बाद तमाम तकलीफदेह तस्वीरें सामने आईं. पिटते नौजवान, डंडेबाज पुलिस वाले, परेशान आम नागरिक... इनमें से एक तस्वीर वह भी थी जिसमें लड़कियां अपने सूटकेस, बैगपैक संभाले चली जा रही थीं.. दिल्ली छोड़कर. यूनिवर्सिटी बंद की गई तो हॉस्टल अनसेफ लगने लगे. अपनों के बीच पहुंच निकलने को बेताब इन लड़कियों के चेहरों पर चिंता थी- कब वापस लौटेंगी और कब पढ़ाई फिर शुरू होगी. किसी भी तरह की राजनीति से दूर, इनमें से बहुत से लड़कियां बड़ी मशक्कत के बाद दिल्ली पहुंची होंगी. लाखों-लाख बार घर वालों को कनविंस किया होगा कि दिल्ली जैसे महानगर में रहकर भी किसी लालच-चकाचौंध में नहीं पड़ेंगी. बहुतों ने यह भरोसा भी दिलाया होगा कि कॉलेज की यूनियनबाजी से दूर रहेंगी. ‘सो कॉल्ड’ ‘अच्छी लड़की’ की तरह सिर्फ पढ़ेंगी क्योंकि किसी दिलजले ने कहा था- पढ़ो, किताबें कहती हैं सारा संसार तुम्हारा.
पर जैसा कि राजेश जोशी अपनी कविता में कहते हैं, ‘सबसे बड़ा अपराध है इस समय निहत्थे और निरपराधी होना….‘ सो निरपराधी होने के नाते ही लड़कियों को अपने रास्ते मोड़ने पड़ रहे हैं या मोड़ने पड़ सकते हैं. ऐसे हालात में सबसे प्रभावित भी लड़कियां ही होती हैं. उनके लिए मुश्किलें पहले ही बड़ी हैं. नेशनल कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स की 2018 की रिपोर्ट कहती है कि स्कूल और कॉलेजों की 15 से 18 साल की 39.4 परसेंट लड़कियां बीच में ही पढ़ाई छोड़ देती हैं. इनमें से 64.8 परसेंट लड़कियों की पढ़ाई सिर्फ इसलिए छूटती है क्योंकि उन्हें घरेलू कामकाज करना होता है. रिपोर्ट यह भी कहती है कि भारत में लड़कियां अति संवेदनशील समूह में आती हैं क्योंकि उनका स्कूल एनरोलमेंट रेट बहुत कम है. उन्हें वह शिक्षा, ज्ञान और कौशल नहीं मिल पाता, जिनसे उनका आर्थिक उत्थान हो. रिपोर्ट में खास तौर से यह कहा गया है कि किशोर लड़कियों को समाज का सहयोग नहीं मिल पाता, क्योंकि उन्हें सामुदायिक अवरोधों का सामना करना पड़ता है.
ये अवरोध तमाम तरह के हैं. कई बार लड़कियां यौन शोषण के भय से स्कूल जाना छोड़ घर पर बैठा दी जाती हैं. 2017 में हरियाणा के रेवाड़ी में जब 80 लड़कियों ने 12वीं तक के स्कूल की मांग के साथ भूख हड़ताल की थी तो इसके पीछे एक तकलीफदेह कारण और था. स्कूल के तीन किलोमीटर के रास्ते में शोहदे उनके साथ छेड़छाड़ करते थे. स्कूल छोड़ने का एक बहुत बड़ा कारण यह भी होता है कि स्कूल के रास्ते सुरक्षित नहीं होते. कहीं-कहीं शौचालयों की कमी के कारण स्कूल से नाम कटवा दिया जाता है. चूंकि पीरियड्स के दिनों में लड़कियों के लिए स्कूल जाना मुश्किल भरा होता है. क्या यह कम हैरानी की बात नहीं कि 40 परसेंट सरकारी स्कूलों में टॉयलेट नहीं और 40 परसेंट स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट नहीं. एक आंकड़ा यह भी कहता है कि 20 परसेंट लड़कियां पीरियड्स शुरू होने की उम्र में स्कूल छोड़ दिया करती हैं. ऐसा भी होता है कि घर वाले इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि उनकी पढ़ाई-लिखाई से कोई फर्क पड़ने वाला है. इसीलिए छोटी उम्र में उन्हें ब्याह दिया जाता है. खासकर कई समुदायों में लड़कियों के लिए बंदिशें ज्यादा हैं. कहीं पर्देदारी के चलते घर से बाहर जाने पर ऐतराज किया जाता है. ऐसे में स्कूल जाने का तो सवाल ही नहीं उठता.
इसके बावजूद यह उत्साहजनक है कि गिरते-पड़ते स्कूल पास करने के बावजूद हायर एजुकेशन में लड़कियां बढ़ रही हैं. पिछले सात सालों में हायर एजुकेशन में उनकी संख्या में 1,350 परसेंट का इजाफा हुआ है. ऑल इंडिया सर्वे ऑफ हायर एजुकेशन के आंकड़े कहते हैं कि 2010-11 में उनकी संख्या 12 लाख थी, अब 174 लाख हो गई है. यह बात और है कि लेबर फोर्स में औरतों की मौजूदगी बस 27 प्रतिशत भर है.
हालात दुरुस्त नहीं होते तो इन लड़कियों को वापस अपने घर की तरफ लौटना पड़ता है. कई साल पहले यूनेस्को की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि पाकिस्तान से लेकर माली, सीरिया, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, कांगो जैसे देशों में सिविल वॉर का सबसे बड़ा असर शिक्षा पर पड़ा. बच्चों और किशोरों को स्कूल-कॉलेज छोड़ना पड़ा. ऐसे बच्चे लाखों में थे. यानी परिस्थितियां असामान्य होने पर लड़कियों पर वह गांठ और कस जाती है. और युवावस्था का टूट जाना किसी भी समाज के लिए अच्छी खबर नहीं होती.
फिर एक तस्वीर देखकर तसल्ली भी होती है. इस तस्वीर में एक हिजाब पेश लड़की हमलावर को पीछे हटने को मजबूर कर रही है. यह लड़की है, केरल के मल्लापुरम की 22 साल की आयशा रेन्ना और कन्नूर की लदीदा फरजाना. इन दोनों ने और लड़कियों के साथ मिलकर अपने पुरुष मित्र शाहीन अब्दुल्ला को बचाया, जब पुलिस वाले उसकी नागरिकता संशोधन एक्ट का विरोध करने पर पिटाई कर रहे थे. इन्होंने ह्यूमन चेन बनाकर अब्दुल्ला को बचाया. जब टीवी चैनलों ने उनसे पूछा कि क्या उन्हें दिल्ली में डर नहीं लगता तो उन्होंने मुस्कुराकर कहा-बिल्कुल नहीं. इन फीयरलेस लड़कियों को पढ़ने और आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है. इन्हें देखकर मजाज़ का शेर याद आता है- तेरे माथे पे ये आंचल बहुत खूब है लेकिन/तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था. बिल्कुल लड़कियां इसी परचम से अपनी जीत हासिल करेंगी-दमन के खिलाफ, शिक्षा के अधिकार के लिए, आर्थिक आजादी के लिए.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)