अभी दो दिन ही बीते हैं उस फकीर के इस धरती पर अवतरण लेने के जिन्हें दुनिया श्री गुरुनानक देव जी के रुप में जानती और याद करती है. उन्होंने साये की तरह से अपने साथ रहने वाले दोनों सेवकों-मरदाना और बाला जी को जिंदगी का एक बेहद अहम फ़लसफ़ा समझाया था, जो 552 साल बीत जाने के बाद आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है. देश-दुनिया की लंबी यात्राएं करते हुए गुरुनानक जी ने अपने दोनों चेलों से कहा था, "इस कलयुगी सांसारिक जगत में इंसान की जुबान से बढ़कर और कुछ भी नहीं है क्योंकि वही उस एकमात्र प्रभु का सिमरन करती है, वही तुम्हें भरोसा देती है और वही तुम्हें धोखा भी देती है, इसलिये अपनी जुबान से कभी भी कुछ ऐसा मत कहना, जिसे पूरा न कर पाने का पछतावा होता रहे और तुम उस आग में जलते रहो." वे एक अवताररुपी महापुरुष हुए, लिहाज़ा उनकी कही बातों को सच या झूठ के तराजू में न तो तौला जा सकता है और न ही कोई ऐसा सोच सकता है.
लेकिन, आज बड़ा सवाल ये है कि मुल्क की हुकूमत को चलाने वाला बादशाह अगर देश के सामने आकर कोई वचन दे दे और अपनी गलती के लिए माफी भी मांग ले, तो क्या उसकी जुबान पर भरोसा नहीं करना चाहिए? दुनिया के इतिहास में जितने भी पीर-फ़क़ीर-संत हुए हैं, उन सबने ये माना है कि किसी इंसान की विनम्रता को उसकी कायरता समझने की गलती कभी नही करनी चाहिये और अगर ऐसा करते हो, तो तुमसे बड़ा मूर्ख और कोई नहीं हो सकता.
इसलिये अब दुनिया के वो देश भी हैरान-परेशान हो उठे हैं, जिन्होंने किसी भी रुप में भारत के किसान आंदोलन का सीधे तौर पर या पिछले दरवाज़े से समर्थन किया था. उनके हैरान होने की वजह भी जायज़ है कि किसानों को अपने देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कही बातों पर आखिर भरोसा क्यों नहीं है क्योंकि उन्होंने ये एलान किसी सरकारी या प्राइवेट फंक्शन में नही किया, बल्कि राष्ट्र के लोगों से मुखातिब होते हुए कहा है कि वे तीनों कृषि कानून वापस ले रहे हैं.
जाहिर-सी बात है कि किसी भी कानून को बनाने या उसे वापस लेने की एक संवैधानिक प्रक्रिया होती है, जो संसद के जरिये ही पूरी की जाती है. इस हक़ीक़त को किसान संगठनों से जुड़े नेता भी बहुत अच्छी तरह से समझते हैं लेकिन लगता है कि पिछले तकरीबन साल भर से दिल्ली की बॉर्डर पर बैठे इन नेताओं का अपने खेत-खलिहानों में जाने से मोहभंग हो चुका है और अब वे बाकी किसानों को भी उसी रास्ते पर ले जाने का कोई न कोई बहाना तलाश रहे हैं. वैसे ये मसला न तो किसी की तारीफ करने का है और न ही किसी को दोषी ठहराने का लेकिन सच तो ये है कि अगर दुनिया के किसी और देश में ऐसा ही आंदोलन चल रहा होता और उस मुल्क का मुखिया देश के राष्ट्रीय टीवी चैनल पर आकर उनकी बातें मान लेता, तो आंदोलन करने वाले वहां की बॉर्डर खाली करने में चौबीस घंटे से भी कम का वक़्त लगाते. लेकिन ये भारत है जहां जनतंत्र है और उसकी आड़ में हर तरह का मनतंत्र चलाने की खुली छूट का दिल खोलकर बेजा इस्तेमाल भी होता है, जिसे चाहकर भी रोकने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पाता.
सवाल ये उठता है कि तीनों कानून वापस लेने की प्रधानमंत्री की घोषणा के चंद मिनटों के बाद ही इसका जश्न मनाने वाले और भांगड़ा करने वाले किसानों को अब शक आखिर किस बात का है? राजधानी की सिंघु बॉर्डर पर महीनों से जमे किसानों को उनके घर जाने से आखिर क्यों रोका जा रहा है और इसके पीछे का सियासी मकसद क्या है? शनिवार को सिंघु बॉर्डर पर पंजाब से जुड़े किसान संगठनों की हुई बैठक में तय किया गया कि 22 नवंबर को प्रस्तावित लखनऊ रैली व 29 नवंबर को संसद मार्च के आयोजन में कोई बदलाव नहीं होगा. हालांकि, इस फैसले पर अंतिम मुहर लगाने के लिए आज रविवार को संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक होनी है जिसमें प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद पैदा हुए हालात व किसान आंदोलन की आगे की रणनीति तय की जाएगी. किसान संगठनों ने स्पष्ट किया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी व बिजली संशोधन कानून को रद्द किए बगैर आंदोलन वापस लेने की कोई योजना नहीं है.
हालांकि, किसानों की इस मांग का विपक्ष ने खुलकर तो सत्ता में बैठे और कृषि से जुड़े कुछ लोगों ने दबी जुबान से समर्थन किया है कि एमएसपी की गारंटी तभी हो सकती है, जबकि इसे कानूनी जामा पहनाया जाये. लेकिन इस आंदोलन के जरिये अपनी सियासत चमकाने वाले किसान नेताओं को ये समझना होगा कि संसद से इन तीनों कानूनों के निरस्त होने के बाद एमएसपी का तो कोई सवाल ही नहीं खड़ा होगा क्योंकि वह तो पहले की तरह ही जारी रहेगी और ये सरकार भी उसमें हर साल बढ़ोतरी ही कर रही है. इसलिये, किसानों की जायज मांगों का साथ देने वाले लोग भी पूछ रहे हैं कि आखिर कौन हैं वे लोग जो अब भी किसानों को अपने खेतों में जाने से रोक रहे हैं?
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