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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

कोरोना की दूसरी लहर को मौका किसने दिया?

भारत में कोरोना की दूसरी लहर में दो लाख से ज्यादा नये मरीज रोज मिल रहे हैं. एक हजार से ज्यादा मौतें रोज हो रही हैं. त्रासदी तो ये है कि ये सिलसिला कहां जाकर रुकेगा इसका अंदाजा तक कोई लगा नहीं पा रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत ने हालात काबू में करने का मौका गंवा दिया. 

भारत में इस समय सवा सौ से ज्यादा नये कोरोना के मामले हर मिनट आ रहे हैं. हर दो मिनट में एक मौत हो रही है. क्या अचानक कोरोना दबे पांव पैर पसारता चला गया और नीति रणनीति बनाने वालों को भनक तक नहीं लगी या अतिआत्मविशवास ले डूबा. आखिर फरवरी में नये केस दस हजार से कम थे. पिछले साल सितंबर में एक लाख, फरवरी में आठ हजार और अप्रेल में दो लाख. ये माजरा क्या है. फरवरी में पूरा देश एक दूसरे को बधाइया देने लगा था, कोरोना पर जीत का लगभग एलान हो गया था. बस यहीं हम एक बड़ी गलती कर बैठे. गलती यही थी कि अमेरिका, ब्राजील और यूरोप में कोरोना की दूसरी लहर दस्तक दे रही थी. यहां हमने खुद ही तय कर लिया कि हमारे दरवाजे पर कोरोना की दूसरी लहर दस्तक दे ही नहीं सकती है. आनन फानन में सब कुछ खोल दिया गया. सिनेमा घर, मॉल, जिम, होटल, स्विमिंग पूल. शादी में मेहमानों की संख्या बढ़ाकर दो सौ कर दी गयी. बंगाल में चुनावी रैलियों और रोड शो का सिलसिला शुरु हो गया. असम, केरल तमिलनाडू भी पीछे नहीं रहे जहां बंगाल के साथ विधानसभा चुनाव होने थे. टीका लगाने का कमा शुरु तो हुआ लेकिन बेहद सुस्त रफ्तार से.

जरुरत थी टीकाकरण के काम में तेजी लाने की. टीकों की मांग और आपूर्ति का सही सही हिसाब रखने की. यहां हम मौका चूके. पहले दौर में डाक्टरों, नर्सों, वार्ड ब्यॉय एंबुलेंस ड्राइवर, पुलिस, सेना के जवानों को को टीका लगना था. लेकिन बहुत कम संख्या में ये वर्ग टीका लगाने सामने आया.

आंकड़ों के अनुसार तीन करोड़ लोगों को टीका लगना था लेकिन रजिस्ट्रेशन ही दो करोड़ 36 लाख ने करवाया. इसमें से भी सिर्फ 47 फीसद ने टीका लगवाया यानि आधे से भी कम. अगर तीन करोड़ की संख्या को लेकर चला जाए तो 35 फीसद ने ही टीका लगवाया यहां भी दूसरे डोज का टीका तो और भी कम लोगों को ही लगा. तब केन्द्र और राज्य सरकारों को कड़े निर्देश जारी करने चाहिए थे लेकिन मौका चूक गये. नतीजा ये रहा कि जब साठ साल से उपर को टीका लगाने का दूसरा चरण शुरु हुआ तो गलतफहमी, भ्रम, डर, आशंका, लापरवाही, अफवाह, नेगेटिव प्रचार आदि हावी हो गये.

आम आदमी को लगा कि जब खुद डाक्टर ही टीका लगाने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रहे तो इसका मतलब यही है कि सब कुछ ठीक है, कोरोना काबू में है और टीका लगाए बिना भी काम चल जाएगा. जानकारों का कहना है उस समय ही प्रधानमंत्री से लेकर उनके मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों राज्यपालों सांसदो विधायको को टीका लगाने का काम एक अभियान के रुप में शुरु किया जाना चाहिए था. फिल्मी हस्तियों और क्रिकेट के नामी चर्चित पूर्व खिलाडियों को टीका लगाने और इसका व्यापक प्रचार प्रसार वैज्ञानिक सोच के साथ किया जाना चाहिए था. ये मौका हमने गंवा दिया.

जब पूरी दुनिया टीकों की एडवांस बुकिंग कर रही था तब हमने लापरवाही बरती यही सोच के कि इतनी भी क्या जल्दी है, ऐसी कौन से आफत आने वाली है. अमेरिका मार्डना फाइजर टीके का आर्डर पर आर्डर दे रहा था, ब्रिटेन टीकों की खरीद और भंडारण में लगा था, इस्राइल दुगुने दाम पर टीके खरीद रहा था. लेकिन हन नीतिगत फैसले लेने में देरी कर बैठे. यहां सबसे बड़ा उदाहरण रुस के स्पूतनिक वी टीके का दिया जा सकता है. जिस टीके का तीसरे फेज का ट्रायल 22 हजार लोगों पर किया गया, जिसी गुणवत्ता पर लानसेंट जैसी प्रतिष्ठित मेडिकल पत्रिका में लेख छपा, जिस टीके को 29 देश अपने नागरिकों को लगा रहे थे और कहीं से नेगेटिव रिपोर्ट नहीं आई थी उस टीके को मंजूरी देने में बहुत देर लगाई गयी. भारत ने कहा कि स्पूतनिक वी के तीसरे फेज का ट्रायल भारत में होगा, उसने नतीजों को जांचा परखा जाएगा और फिर मंजूरी पर फैसला लिया जाएगा. क्या इससे बचा नहीं जा सकता था ये देखते हुए कि तीसरे फेज के ट्रायल से पहले ही भारत बायोटेक के कोवैक्सीन टीके को हम मंजूरी दे चुके थे. अमेरिका का आबादी 32 करोड़ है लेकिन अमेरिका ने नवंबर से लेकर इस साल फरवरी के बीच दुगने करीब साठ करोड़ टीकों का आर्डर दे दिया था. लेकिन भारत ने जनवरी में टीकों का पहला आर्डर दिया. वह भी सिर्फ ग्यारह करोड़ का. भारत दुनिया का टीका फैक्टरी कहलाता है लेकिन भारत में ही टीकों का टोटा पड़ने के हालात पैदा हो गये और हम देर से जागे.

भारत में इस समय करीब 35 लाख टीके रोज लग रहे हैं लेकिन यहां वहां से टीका केंद्र बंद होने की खबरे आती रहती हैं. माना जा रहा है कि 90 करोड़ को टीका लगना है. मौजूदा रफ्तार से टीकाकरण का काम चला तो इसमें सवा साल तक लग सकता है. जाहिर है कि हम टीकों का स्वदेशी उत्पादन बढ़ाने का मौका चूक गये या यूं कहा जाए कि देर कर दी. अभी सीरम इंस्टीटयूट का कोविशील्ड महीने में छह से सात करोड़ और भारत बायोटेक का कोवैक्सीन करीब एक करोड बन रहा है. सीरम के उदर पूनावाला ने भारत सरकार से तीन हजार करोड़ रुपये मांगे ताकि फैक्टरी का विस्तार कर टीकों की संख्या दुगुनी की जा सके. यानि साल में सवा सौ करोड़ टीके. लेकिन अभी तक इस मांग पर फैसला नहीं हो सका है. भारत बायोटेक ने सौ करोड़ मांगे थे और उसे 65 करोड़ रुपए आत्मनिर्भर भारत योजना के तहत दिये जाने का फैसला हुआ है. जानकारों का कहना है कि भारत को कम से कम पचास लाख टीके रोज लगाने का लक्ष्य शुरु में ही बनाकर चलना चाहिए था. लेकिन हम चूक गये और अब भारत सरकार ने जो नये कदम उठाए हैं उससे मई के अंत तक ही हर महीने 15 करोड़ टीके भारत को मिल पाएंगे जिससे पचास लाख टीके रोज लगाए जा सकेंगे.

कोरोना की दूसरी लहर को पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों ने भी बढ़ावा दिया. चुनावों ने दो तरह से कोरोना वायरस को हमाल करने का मौका दिया और हमने मौका गंवा दिया. रैली पर रैली, रोड शो पर रोड शो, मास्क नदारद, सोशल डिस्टेंसिंग गायब. कोरोना रोकने के सारे दिशा निर्देश आइसोलेशन में. नतीजा ये रहा कि बंगाल में 30 मार्च को कोरोन के सिर्फ 628 नये केस आए थे जो 18 अप्रेल को बढ़कर 6910 हो गये. तमिलनाडू में इसी दौरान संख्या 2342 से बढ़कर 8449 हो गयी. यही हाल केरल और असम का भी रहा. सवाल उठता है कि जब शादी में, अंत्येष्टि में, सिनेमा हाल में, बस में, रेल में लोगों की संख्या सीमित की जा सकती है तो चुनावी रैलियों में क्यों नहीं?

रैलियों की संख्या सीमत होती, रैलिओं में भीड़ की संख्या सीमित होती, रोड शो पर पाबंदी होती, बड़े नेता भाषण देने से पहले सभी लोगों से मास्क पहनने की अपील करते तो शायद हालात कुछ दूसरे ही होते. अब पूरे भारत के लोगों को लगा कि नेताओं ने मास्क नहीं लगया है, भीड ने मास्क नहीं लगाया है तो इसका मतलब यही है कि कोरोना को बेकार में ही हव्वा बनाया जा रहा है. इतना बड़ा खतरा नहीं है कोरोना जिससे डरने की जरुरत है. यानि लोग लापरवाह हुए और नेताओं ने कोई मिसाल पेश नहीं की.

कुल मिलाकर कोरोना को भीड़ पसंद है. यह मौका भीड़ ने ही कोरोना को दिया है यही वजह है कि अस्पताल से लेकर शमशान तक भीड़ ही भीड़ नजर आ रही है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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