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ब्लॉग: उत्तर प्रदेश में बदहाल शिक्षा व्यवस्था के लिए जिम्मेदार कौन?

शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार को लेकर भी नीति आयोग की तरफ से रैंकिंग जारी की गई है। इस रैंकिंग में उत्तर प्रदेश पहले पायदान पर जगह बनाने में नाकामयाब रहा है।

उत्तर प्रदेश के दो सियासी नेता आजम खान और चिन्मयानंद दोनों खुद पर लगे आरोपों की वजह से भले ही चर्चा में हों लेकिन इन दोनों पर लगे आरोपों का सीधा ताल्लुक इनके शिक्षण संस्थानों से जुड़ा है जो सीधे तौर पर उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था और उसमें लगे घुन की तरफ इशारा करता है और ये घुन बच्चों का हक भी खा जा रहा है।

सब पढ़ें, सब बढ़ें का नारा बुलंद कर जिस शिक्षा की बुनियाद पर देश के भविष्य की इमारत को खड़ा करने का दावा किया जाता रहा है। असल में इसे गढ़ने वाले कैसे उसे खोखला कर रहे हैं इसे समझना मुश्किल तब नहीं लगता जब आजम खान जैसे कद्दावर नेता यूनिवर्सिटी खोलने के लिए जमीन हथियाने, चोरी करने, गरीबों के हक पर डाका डालने जैसे आरोपों से घिरे हों। या फिर चिन्मयानंद जैसे नेता कॉलेज के नाम पर लड़कियों के यौन शोषण पर उतर आएं।

ये सिर्फ आरोप ही हों लेकिन समूची शिक्षा व्यवस्था को कलंकित करने के लिए काफी हैं इसी तरह सरकारी स्कूलों के आधे-अधूरे इंतजामों के बीच बच्चों के हक पर कपट की कैंची चलाकर उनके जूतों, मोजों में सुराख कर दिया जाए या फिर घटिया सामान मुहैया करा दिए जाए तो फिर शिक्षा के नाम पर व्यवस्था का भ्रष्ट चेहरा छिपाना मुश्किल होता है।

इन तमाम बातों के बीच में प्राइवेट स्कूलों की मनमानियों का जिक्र तो किया ही नहीं है, यानी शिक्षा की समूची व्यवस्था ही संदिग्ध पटरियों पर दौड़ रही है और इसी व्यवस्था के बूते उत्तर प्रदेश की उपलब्धियों का बखान किया जा रहा है। इन्हीं उपलब्धियों के बीच सवालों के तौर पर गुमनामी में पड़े राइट टू एजुकेशन जैसे कानून, शिक्षा माफियाओं का बढ़ता मकड़जाल है और इन आशंकाओं पर मुहर लगाता है शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर नीति आयोग की तरफ से जारी किया गया इंडेक्स, जिसमें उत्तर प्रदेश आखिरी पायदान पर है। उत्तर प्रदेश में पटरी पर शिक्षा व्यवस्था के दावों की पोल कोई और नहीं बल्कि सरकार की अपनी रिपोर्ट ही खोल रही हैं। प्राथमिक, माध्यमिक या फिर उच्च शिक्षा हर स्तर पर दावे और हकीकत जुदा हैं। जाहिर है इसके पीछे शिक्षा माफिया और सिस्टम का गठजोड़ है क्योंकि सारी कवायद के नतीजे कैसे उत्तर प्रदेश को नीचे ले जा रहे हैं ये नीति आयोग की रिपोर्ट से साफ हो जाता है।

स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा के लिए नीति आयोग ने शिक्षा गुणवत्ता सूचकांक बनाना शुरू किया है। इस तरह का पहला सूचकांक सोमवार को जारी किया गया, जिसमें पहले स्थान पर केरल, दूसरे पर राजस्थान और तीसरे स्थान पर कर्नाटक रहा। 20 बड़े राज्यों की इस सूची में आबादी के लिहाज से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश अंतिम स्थान पर है।

दरअसल, स्कूली शिक्षा गुणवत्ता सूचकांक का संदर्भ साल 2016-17 और आधार साल 2015-16 को लिया गया है। इतना ही नहीं स्कूलों में सुधार की गुंजाइश को देखते हुए भी उनकी रैंकिंग की गई है और हैरानी की बात ये है कि दूसरे राज्यों के मुकाबले यूपी की स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन यहां भी यूपी अव्वल नहीं है।

शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार को लेकर भी नीति आयोग की तरफ से रैंकिंग जारी की गई है। इस रैंकिंग में उत्तर प्रदेश पहले पायदान पर जगह बनाने में नाकामयाब रहा है। इसमें हरियाणा जहां अव्वल है तो असम दूसरे स्थान पर है। उत्तर प्रदेश को तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा है।

शिक्षा हर बच्चे का अधिकार है और इसी को समझते हुए बजट के साथ ही तमाम प्रावधान किए जाते रहे हैं। बावजूद इसके अगर उत्तर प्रदेश में शिक्षा की तस्वीर बदहाल है तो सरकार को चाहिए इस तस्वीर के लिए जिम्मेदार लोगों तक पहुंचे, उन पर सख्ती करे और शिकंजा कसे क्योंकि सवाल बच्चों के साथ पूरे प्रदेश के भविष्य का है। बजट का बड़ा हिस्सा सरकार इस पर खर्च कर रही है।

सरकार ने साल 2018-19 में समग्र शिक्षा पर कुल 6 लाख 52 हजार 974.17 लाख रुपए खर्च किए हैं और पिछले चार सालों यानी 2014-18 तक सरकार ने सर्वशिक्षा अभियान के तहत कुल 40 लाख,89 हजार,850.13 लाख रूपए खर्च किए हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने 2019 के बजट में 14.3 फीसदी खर्च शिक्षा के लिए आवंटित किया। हालांकि साल 2018 में सरकार ने ये खर्च 15.9 फीसदी रखा था। समग्र शिक्षा के लिए योगी सरकार ने 18 हजार,484 करोड़ रु. खर्च किए तो वहीं सरकारी स्कूलों में मिलने वाली सुविधा मिड-डे मिल के लिए 2,227 करोड़ रुपए का बजट रखा है। प्राथमिक स्कूलों के विकास के लिए योगी सरकार ने 500 करोड़ रुपए का बजट रखा है तो वहीं सैनिक विद्यालयों की स्थापना के लिए 36 करोड़ 57 लाख रुपए का बजट रखा है।

उत्तर प्रदेश की शिक्षा की सुनहरी तस्वीरों का सच ढूंढना सरकार का काम है। सरकार फिर भी दावा करती है कि सब कुछ बेहतर है। तो फिर सूचकांक में पिछड़ने पर सवाल पूछा ही जाएगा... आखिर यूपी शिक्षा पर बातों में अव्वल और नतीजों में सिफर क्यों है ? क्या ये पूछना नहीं पड़ेगा कि सब पढ़ें, सब बढ़ें की मुहिम में रोड़ा सियासत या भ्रष्टाचार है ? और शिक्षा माफियाओं और सिस्टम के गठजोड़ से व्यवस्था खोखली हो गई है ?

कुल मिलाकर एक बात साफ है कि पढ़ाई को लेकर सरकारें सिर्फ दावा करती ही दिखाई देती हैं, असल में ऐसा लगता है कि बेहतर शिक्षा की सारी जिम्मेदारी सरकारों ने जनता के ऊपर ही छोड़ दी है। इसीलिए सरकारी स्कूलों का स्तर लगातार गिरता जा रहा है और निजी स्कूल फाइव स्टार होटल सरीखे लुभावने और महंगे होते जा रहे हैं। ऐसे में हालात तब और बदतर हो जाते हैं, जब शिक्षा के बड़े-बड़े संस्थान चिन्मयानंद और आजम खान सरीखे नेताओं के नियंत्रण में होते हैं। राइट टू एजुकेशन के दौर में उत्तर प्रदेश या पूरे देश की ऐसी शिक्षा व्यवस्था किसी भी सरकार और देश के लिए सबसे शर्मनाक है। उम्मीद है कि नीति आयोग की रिपोर्ट के बाद तस्वीर कुछ बदलेगी।

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