अंतरराष्ट्रीय सहयोग‌‌ – या कुछ लोगों के शब्दों में आज अंतरराष्ट्रीय उथल-पुथल और अव्यवस्था का चेहरा बन चुके विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने कोरोना वायरस महामारी से दुनिया को बाहर निकालने के प्रयासों के बीच एक और विवाद को जन्म दे दिया है. अधिकतर देशों के सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा लोगों को मास्क पहनने के निर्देश देने के लगभग 2-3 माह बाद डब्ल्यूएचओ के युद्धरत महानिदेशक डॉ. टेड्रोस अदनॉम घेब्रेयसस ने 5 जून को एक पत्रकार-वार्ता में ऐलान किया था कि कोविड-19 के ‘व्यापक संक्रमण’ वाले इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए संगठन ने मुंह ढांपना शुरू करने की सिफारिश की है. इतना महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी करने में डब्ल्यूएचओ ने जितना समय जाया किया, उससे यह अवधारणा मिथ्या सिद्ध होती है कि किसी वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपदा से निपटने के उपाय करने में यह संगठन नेतृत्व करने के लिए बना है, अन्य देशों का अनुसरण करने के लिए नहीं!


यद्यपि यह मशविरा जारी करने में इसने जो देर लगाई, उससे विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों वाले देशों को सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी दिशा-निर्देश सुझाने में होने वाली राजनीतिक कठिनाइयों तथा कोविड-19 के खतरे को निष्प्रभावी करते हुए अंततः उसका निर्मूलन करने के तरीकों को लेकर विचार-भिन्नता का संकेत मिलता है. लेकिन डॉ. घेब्रेयसस का इस प्रकार की अनुशंसा को साझा करना इस बात की ओर भी इशारा करता है कि डब्ल्यूएचओ की राय में कोविड-19 का संक्रमण लक्षणरहित हो सकता है.


इरादों को लेकर संदिग्धता तब और बढ़ जाती है जब डॉ. मारिया वान केरखोव, जो अमेरिकन इन्फेक्शिअयस डिजीजेस की एक एपीडेमियोलॉजिस्ट हैं और कोविड-19 पर डब्ल्यूएचओ की तकनीकी अगुवा होने के साथ-साथ इसकी इमर्जिंग डिजीज एवं जूनोसिस इकाई की प्रमुख भी हैं, 8 जून को इस आशय का एक बयान देती हैं कि कोविड-19 का लक्षणरहित संक्रमण “बेहद दुर्लभ” है. यह बयानबाजी बहुतों को बड़ी अजीब लगी होगी.


यदि कोविड-19 का लक्षणरहित संक्रमण मौजूद नहीं है, तो जाहिर है कि सोशल डिस्टेंसिंग का आग्रह और फेस मास्क का उपयोग करने के लिए जारी किए गए दिशा-निर्देश अपने आपमें किसी ज्यादती से कम नहीं हैं; ऐसे में निश्चित ही विश्व अर्थव्यवस्था को बंद करना गैरजरूरी था. कई देशों में आबादी के एक छोटे किंतु तेजी से मुखर होते हिस्से ने वायरस के प्रसार को रोकने हेतु लॉकडाउन और इस प्रकार के अन्य उपायों के औचित्य पर पहले से ही सवाल खड़े कर रखे हैं, और निश्चित रूप से इस "ओपनिंग अप” वाले मामले को लेकर, जिसे हम कई देशों में देख रहे हैं, जैसे कि भारत, पाकिस्तान, ब्राजील, मैक्सिको, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन आदि अधिकतर देशों में, जहां मामले तेजी से बढ़ रहे हैं, उनकी सरकारों पर निरोधक आदेशों को हटाने का दबाव है कि वे काम शुरू करने के लिए लोगों की वापसी और सामान्य स्थिति वाले कुछ हालात बहाल करें.


9 जून को, डॉ. केरखोव ने पिछले दिन के अपने संदेश के रूप में जो कुछ कहा उसका कई लोगों ने अलग ही अर्थ निकाला था. इस पर उन्होंने स्पष्ट किया कि संवाददाता सम्मेलन में, “मैंने यह नहीं कहा कि कोविड-19 का लक्षणरहित संक्रमण हो ही नहीं सकता; बिल्कुल हो सकता है. सवाल यह है कि क्या ऐसा हो रहा है? और अगर यह है, तो यह कितनी बार हो रहा है?" कई शोध अध्ययनों से पता चलता है कि कोविड-19 के बिना किसी लक्षण वाले मामले ज्यादा से ज्यादा 45 फीसदी तक हो सकते हैं. दूसरी ओर ऐसे अध्ययन भी हैं जिन्होंने स्पष्ट तौर पर यह स्थापित किया है कि बिना किसी लक्षण वाले संक्रमण की दर का सर्वोच्च स्तर मात्र 2.2 फीसदी है, जिससे संकेत मिलता है कि लक्षणरहित प्रसार इस संक्रमण के सामुदायिक संचार का संभावित प्रेरक या वाहक नहीं है.


वर्तमान विवाद ने प्रथम दृष्ट्या जो साबित किया है वह यह है कि कोरोना वायरस और इसके संक्रमण के बारे अभी भी बहुत कुछ अज्ञात है. रोगियों में केवल मामूली लक्षण दिखाई पड़ सकते हैं, या लक्षण बहुत बाद में दिख सकते हैं, और इस तरह कोई रोगी लक्षणों के प्रकट होने से पहले ही बीमारी फैला सकता है:  है. लक्षण दिखाने वाले और बिना लक्षण वाले रोगियों में उपयोगी अंतर हो सकता है.


शायद आप पूर्व-लक्षण वाले या लक्षणरहित मामलों के बीच उपयोगी ढंग से विभेद कर सकते हैं. “विशेषज्ञ” मशविरों पर जोर देते रहे हैं, लेकिन बीमारी के लक्षण प्रदर्शित करने वाले लोगों को क्वारेंटाइन करने की अनिवार्यता और आसान एहतियाती रवैया अपनाने, जैसे कि अक्सर साबुन से हाथ धोने जैसी जरूरत के सिवा कोई और आम सहमति बनाना मुश्किल रहा है.


वैज्ञानिकों, खासकर संक्रामक रोग विशेषज्ञों और वायरोलॉजिस्टों ने जनता को कोविड-19 के प्रसार और रोग की रूप-रेखा समझने-समझाने की दिशा में कदम आगे बढ़ा दिए हैं, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि प्राथमिक सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों, परस्पर विरोधी मांगों के प्रति सचेत सरकारी नीतियों तथा लोगों द्वारा सामाजिक जिम्मेदारी के कुछ मानदंडों का पालन करने और समझदारी दिखाने की तुलना में दुनिया को कोरोना वायरस से बाहर लाने के लिए "विज्ञान" के पास योगदान करने को फिलहाल ज्यादा कुछ नहीं है.


इस संदर्भ में राजनीति के उस प्रश्न पर फिर से लौटना आवश्यक हो जाता है जिसमें डब्ल्यूएचओ घिर चुका है और एक संगठन का भविष्य, यद्यपि जिसने बेहतर समय देखा है, अभी भी “अंतरराष्ट्रीय सहयोग” की संभावना को बढ़ाता है. “अभी भी” का प्रयोग इसलिए किया गया है कि देशों के बीच संबंध काफी हद तक भयावह और जातीय-राष्ट्रवादी हो गए हैं, जो कोविड-19 के उभरने से पहले ही इस दिशा में बढ़ रहे थे. ये संबंध स्वयं का राजनीतिक भाग्य जगाने के लिए देशों द्वारा अंगीकार की गई प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं. डब्ल्यूएचओ की स्थापना विश्व युद्ध के बाद के हालात में निर्मित कई कई संस्थानों में से एक संस्थान के रूप में की गई थी. इसके संयुक्त राष्ट्र में अंतः स्थापित होने के नाते इसे एक बेहतर भविष्य की पेशकश करने वाले संस्थान के रूप में संकल्पित किया गया था, जो मानव जाति के हक में राष्ट्र-राज्यों की दुश्मनी और आपसी प्रतिस्पर्द्धा से उतना संचालित नहीं होगा.


सन्‌ 1948 में पारित डब्ल्यूएचओ के संविधान से “स्वास्थ्य के उच्चतम संभव स्तरों की सभी लोगों द्वारा प्राप्ति” की अपेक्षा की गई थी. यह एक ऐसा विचार था जो बीमारियों द्वारा होने वाली असंख्य घातक मौतों को देखते हुए सभी को अनिवार्य लग रहा था, भले ही इन बीमारियों पर पश्चिम में “विजय प्राप्त कर ली गई थी”, लेकिन दुनिया के दक्षिणी हिस्से के देशों में वे आतंक मचाए हुए थीं. दृष्टांत के रूप में देखें तो स्वतंत्रता के उभार के समय भारत में जीवन प्रत्याशा 30 के आसपास थी, जो ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और यूनाइटेड स्टेट्स के मुकाबले आधी भी नहीं थी. यह सच है कि भारत को प्लेग, कॉलरा, तपेदिक, चेचक, टाइफाइड, मलेरिया ने तबाह कर दिया था. और जैसे कि यह सब पर्याप्त नहीं था- 1875 के बाद से अकालों का जो दौर चला वह 1940 के दशक की शुरुआत तक जारी रहा. मेरा स्वयं का अनुमान है और कोई भी तर्कपूर्ण अनुमान लगा सकता है कि लगभग सात दशकों की अवधि के दौरान भारत के उत्तर उपनिवेशवादी दौर में हुई मौतों की संख्या 100 मिलियन से कम नहीं थी, शायद यह 120 मिलियन के आसपास रही होगी.


डब्ल्यूएचओ को पहले के कई दशकों तक काफी सफलता मिली. संगठन ने पीले बुखार के मामलों को काफी हद तक कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि निस्संदेह 1979 में हुआ चेचक का वैश्विक उन्मूलन है.


डब्ल्यूएचओ उन प्रमुख संगठनों में से एक था, जिसने 1988 में वैश्विक पोलियो उन्मूलन की पहल शुरू की थी: 1994 तक यह अमेरिका को पोलियो मुक्त घोषित करने में सक्षम रहा और टाइप 2 पोलियो वायरस को 1999 तक भारत से मिटा दिया गया था. भारत में 2003 तक वाइल्ड पोलियो वायरस (डब्ल्यूपीवी) के मामले 45 से कम दर्ज किए गए थे और डब्ल्यूएचओ ने 2014 तक भारत को पोलियो मुक्त घोषित कर दिया था, जहां वैश्विक उन्मूलन कार्यक्रम ने अपनी सबसे बड़ी चुनौतियां झेली थीं.


लेकिन कई अन्य देशों में पोलियो अभी भी कायम है. हालांकि इनकी संख्या बहुत घट गई है. पिछले दस वर्षों के दौरान विश्व को पोलियो मुक्त घोषित करने के प्रयास में डब्ल्यूएचओ ने कई पहल की हैं, फिर भी अफगानिस्तान और पाकिस्तान में यह एक स्थानिक बीमारी बना हुआ है, जहां पोलियो वैक्सीन से महिलाओं के बांझ हो जाने की अफवाह के चलते हर किसी को टीका लगाने के सरकारी प्रयासों का पूर्ण अनुपालन करना मुश्किल बना दिया गया है. इसके बावजूद यह देखते हुए कि इस वर्ष दुनिया भर में पोलियो के 200 से भी कम मामले सामने आए हैं, डब्ल्यूएचओ के प्रयासों को कुल मिलाकर सफल करार दिया जा सकता है.


हालांकि वायरस के संक्रमण की रोकथाम करने में डब्ल्यूएचओ का रिकॉर्ड, जिनमें कई जूनोटिक मूल के वायरस शामिल हैं, जिन्होंने पिछले दो दशकों में वैश्विक सार्वजनिक आपात स्थिति पैदा की है और आने वाले दशकों में इस स्थिति के और भी नाजुक हो जाने की आशंका है, एक मिला-जुला रिकॉर्ड है. ऐसा संभव है क्योंकि इस संगठन को दुनिया की उन बीमारियों से मुक्त करने के इरादे से बनाया गया था, जो मानव जाति के लिए बड़ी आफत थीं और जिनके नाम ही दहशत पैदा करते थे- टायफाइड, मलेरिया, कॉलरा, पीला बुखार, चेचक. “प्लेग” किसी के दिमाग में नहीं थी, भले ही 1994 के दौरान सूरत में फैले न्यूमोनिक प्लेग (महाराष्ट्र के तीन गांवों में ब्यूबोनिक प्लेग का पता चला था), के प्रकोप ने गंभीरता से याद दिलाया हो कि यह प्राचीन महामारी किसी सूरत में अभी गायब नहीं हुई है. सूरत में प्लेग से 56 मौतें हुई थीं लेकिन इसे जल्द ही एक विसंगति का रूप देकर पृष्ठभूमि में ठेल दिया गया था. इस प्लेग को इस रूप में पेश किया गया कि यह इस आधुनिक युग में “मध्ययुग” की अप्रिय याद दिलाने वाली कोई चीज थी, जो इस तरह की आपदाओं से परे जा चुका है.


यहां नुक्ता यह है कि डब्ल्यूएचओ 21वीं सदी की चुनौतियों तथा बड़े पैमाने पर यंत्रीकृत खेती द्वारा भूमि पर पड़ने वाले अथक दबाव के परिणामस्वरूप आंशिक रूप से फैलने वाले वायरसों के लिए, वन्यजीवों के प्राकृतिक आवासों में आ रही भारी कमी या इसके पूर्ण अभाव, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भारी वृद्धि और जूनोटिक रोगों के बढ़ते मामलों से निपटने के लिए शायद पूरी तरह से तैयार नहीं था. इसके बावजूद डब्ल्यूएचओ अब भी, कम से कम 21वीं सदी के इस तथ्य से लाभ उठाने में सक्षम था कि अधिकांश देश अभी तक राष्ट्रवाद के चरम रूपों का शिकार नहीं हुए थे और अंतरराष्ट्रीय संगठनों को अब भी काफी सम्मान हासिल था.


सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम को हैंडल करने का मामला डब्ल्यूएचओ के उस प्रभाव को दर्शाता है, जिसके बारे में आज सोचा भी नहीं जा सकता. बमुश्किल 20 साल पहले वाला डब्ल्यूएचओ का दबदबा आज अकल्पनीय है. नवंबर 2002 के मध्य में चीन की सरकार को सबसे पहले सार्स के मामलों का पता चला था, लेकिन उसने उनकी रिपोर्ट डब्ल्यूएचओ को नहीं दी थी.


तीन महीने बाद तक गुआंगजू शहर की सरकार यह कहने की जुर्रत करती रही थी कि उसने इस बीमारी को समग्र रूप से काबू में कर रखा है, लेकिन डब्ल्यूएचओ हर हाल में इस तथ्य को लेकर अडिग था कि कुछ तो गड़बड़ है. संगठन के तत्कालीन महानिदेशक ग्रो हार्लेम ब्रुंडलैंड ने सख्त निगरानी तंत्र कायम कर रखा था और डब्ल्यूएचओ के कर्मचारियों ने अंदाजा लगा लिया कि चीन में एक खास तरह के निमोनिया का प्रकोप हुआ है. कुछ लोगों के भौहें तरेरने के बावजूद डब्ल्यूएचओ के कड़े और अनुशासित नेतृत्व के चलते ब्रुंडलैंड के अनगिनत प्रशंसक बन गए थे. उन्होंने इस प्रकोप को गुप्त रखने के लिए चीन को दंडित किया था.


ब्रुंडलैंड का तर्क था कि अगर डब्ल्यूएचओ को सूचित करते हुए इसकी चिकित्सा विशेषज्ञता से काम लिया गया होता तो सार्स पर काबू पाया जा सकता था. आखिरकार 7 फरवरी को चीन ने इस प्रकोप के बारे में डब्ल्यूएचओ को पहली विस्तृत रिपोर्ट भेजकर जवाब दिया. इसके बाद जैसे-जैसे बीमारी फैलती गई- चीन और अन्य देशों ने नियमित रूप से डब्ल्यूएचओ के साथ अपना डेटा साझा किया. हालांकि सार्स 29 देशों में फैल गया था, दुनिया भर में मृतक संख्या 800 रही जिसमें से 75% मौतें अकेले चीन और हांगकांग में दर्ज की गई थीं.


डब्ल्यूएचओ ने सार्स मामले को काबू करने में बेहतर भूमिका निभाई थी. लेकिन कुछ आलोचकों के मुताबिक इसके बाद के संकटों में इस संगठन की भूमिका कहीं अधिक संदिग्ध रही है. इसने 2009 में फैले एच1एन1 “स्वाइन फ्लू” को संशोधित अंतरराष्ट्रीय प्रोटोकॉल के तहत पहली बार “महामारी” घोषित कर दिया, जिसे जरूरत से ज्यादा कड़ा कदम बताकर कई देशों ने इस निर्णय की लानत-मलामत की. इस अनुभव से सबक लेकर 2014 के दौरान पश्चिम अफ्रीका में हुए इबोला के प्रकोप के बाद संगठन ने अन्य देशों को अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य चेतावनी भेजने में बहुत ज्यादा समय ले लिया.


मौजूदा कोरोना वायरस महामारी में डब्ल्यूएचओ की भूमिका को लेकर जो तूफान मचा हुआ है, उसकी तुलना में उपर्युक्त विवाद नगण्य हैं. राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प ने अमेरिका और दुनिया के बाकी हिस्सों को कोविड-19 के बारे में जानकारी छिपाने का दोषी ठहराते हुए अप्रैल की शुरुआत में डब्ल्यूएचओ पर बेहद आलोचनात्मक टिप्पणियों के गोले दागे थे (यहां यह कहने की जरूरत नहीं है कि ट्रम्प अन्य देशों की रत्ती भर भी परवाह नहीं करते), और इस तरह उन्होंने दुनिया भर में इस बीमारी के तेजी से फैलने के लिए चीन के बराबर का जिम्मेदार डब्ल्यूएचओ को ठहरा दिया.


इसके आगे की टिप्पणियों में ट्रम्प ने डब्ल्यूएचओ को मुहैया की जाने वाली अमेरिकी फंडिंग रोकने की धमकी दे डाली. यह देखते हुए कि डब्ल्यूएचओ को महामारी से लड़ने के लिए अपने सभी संसाधन झोंक देने पड़ेंगे और संगठन के सदस्य देशों में यूएस के योगदान का हिस्सा सबसे बड़ा होता है, यह कोई मामूली बात नहीं थी. कई रिपब्लिकन सांसदों के मनोभाव डब्ल्यूएचओ के बहुत ज्यादा खिलाफ हैं, जिनकी लंबे समय से शिकायत रही है कि अन्य देशों और अंतरराष्ट्रीय संगठनों को समान रूप से धमकाने में चीन को फ्री-हैंड मिलता है. यह भावना उनके और संयुक्त राष्ट्र संघ तथा उसकी एजेंसियों के अन्य आलोचकों के मन में व्यापक रूप से घर कर गई है कि डब्ल्यूएचओ काफी हद तक चीन की बदमाशियों को बढ़ावा देने का इच्छुक था. और यह भी कि केवल यूनाइटेड स्टेट्स ही ऐसी राय नहीं रखता, जो इस तथ्य से जाहिर होता है कि जापानी उप-प्रधानमंत्री एवं वित्त मंत्री तारो एसो ने भी कटु आलोचना करते हुए कहा है कि बहुत से लोग विश्व स्वास्थ्य संगठन को “चीनी स्वास्थ्य संगठन” के रूप में संदर्भित कर रहे हैं.


जब बीजिंग सार्स की जानकारी शेष विश्व से छिपाने की कोशिश कर चुका है, तो वर्तमान महामारी में उसकी विश्वसनीयता वैसे भी संदिघ्ध हो जाती है. यूनाइटेड स्टेट्स की ओर से यह दलील दी जा रही है कि डब्ल्यूएचओ ने कोविड-19 के बारे में कुछ ज्ञात तथ्य छिपाने में चीन का सहयोग किया; खासकर यह तथ्य छिपाया गया कि क्या इस वायरस का मानव से मानव में संक्रमण संभव है.


डब्ल्यूएचओ 14 जनवरी 2020 तक सार्वजनिक रूप से इस बात से इंकार करता रहा कि इस तरह का कोई संक्रमण संभव है, जो उसके उस दिन वाले ट्वीट से स्पष्ट था. लेकिन 24 जनवरी आते-आते चीनी सरकार ने लगभग 50 मिलियन आबादी वाले पूरे हुबेई प्रांत को सील कर दिया, और इस तरह दुनिया को संदेश दे दिया कि कोविड-10 यकीनन एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में संक्रमित हो सकता है.


अब डब्ल्यूएचओ को कोई निर्णय करना ही था: क्या उसे कोविड़19 को अंतरराष्ट्रीय स्तर की चिंता वाला सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल (पीएचईआईसी‌) घोषित कर देना चाहिए? संगठन की आपातकालीन समिति ने 22 जनवरी को बैठक की, लेकिन बीच में ही उसमें दोफाड़ हो गया. यद्यपि यूनाइटेड स्टेट्स ने डब्ल्यूएचओ को चीन के साथ मिला हुआ घोषित कर रखा था, इसके बावजूद उसने संगठन की 15 सदस्यीय समिति में अपने कई मित्र देशों के साथ अपना प्रतिनिधि भेजा, जिनमें न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन, फ्रांस, कनाडा, नीदरलैंड्स, जापान, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर और सउदी अरब के प्रतिनिधि शामिल हुए.


समिति के सदस्यों में से केवल रूस को अमेरिका के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया रखने वाला देश माना जा सकता है. हालांकि स्पष्ट तौर पर अमेरिका के कुछ मित्र देश भी कोविड-19 को अंतरराष्ट्रीय सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल (पीएचईआईसी‌) नामित करने के निर्णय के खिलाफ थे. हालांकि महानिदेशक घेब्रेयसस ने सर्वसम्मति से कोई एक राय बनाने की कोशिश में समिति के फैसले को सार्वजनिक नहीं किया और अगले दिन फिर से मिलने का आदेश दिया, जिसका नतीजा पूर्ववत ही रहा. डब्ल्यूएचओ 29 जनवरी से पहले कोरोना वायरस को एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की चिंता वाला सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल (पीएचईआईसी‌) घोषित नहीं कर सका था- यह इसके छह हफ्ते बाद इसे “महामारी” नामित करने वाले इसके निर्णय की तुलना में कहीं ज्यादा नाजुक और अहम निर्णय था.


दुनिया को कोविड-19 के उद्गम, संक्रमण के स्वरूप, साधन व तरीके तथा इसके प्रसार के बारे में सचेत करने हेतु डब्ल्यूएचओ ने निर्णायक ढंग से और पर्याप्त जल्द कदम उठाया, इसको लेकर सारे सबूत अब भी फैसलाकुन नहीं हैं. लेकिन आप कोई भी दृष्टिकोण अपनाएं, यह निर्विवाद रूप से सच है कि यूनाइटेड स्टेट्स तथा उसकी ही तरह यूके व ब्राजील जैसे देशों ने डब्ल्यूएचओ द्वारा अंतरराष्ट्रीय चिंता पैदा करने वाली सार्वजनिक स्वास्थ्य आपदा मंडराने की घोषणा किए जाने के बावजूद इस खतरे को हफ्तों तक गंभीरता से नहीं लिया.


फलतः डब्ल्यूएचओ को लेकर छिड़ी बहस को इसके मूल स्वरूप में पहचाना जाना चाहिए; अर्थात्‌ यह बलि का बकरा बनाने वाली बात है. ट्रंप जैसे आत्ममुग्ध और विशुद्ध आत्मरत व्यक्ति की आगामी नवंबर में चुनावी जीत सुनिश्चित करने के सिवा इस वक्त और कोई दिलचस्पी नहीं है. लाजिम है कि डब्ल्यूएचओ को लेकर छिड़े मौजूदा विवाद के निहितार्थ कहीं ज्यादा गहरे हों! इस हकीकत के मद्देनजर कि अनेक राष्ट्र अधिनायकवादी लुभावनेपन की दिशा में तेजी से मुड़ रहे हैं, केवल अपने कुछ घरेलू मतदाताओं की ही फिक्र और परवाह कर रहे हैं तथा जिस प्रकार से अंतरराष्ट्रीय राय का निरादर कई देशों में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है, उससे असल सवाल अंतरराष्ट्रीय संगठनों के भविष्य को लेकर खड़ा हो गया है. क्या कोविड-19 के परिणामस्वरूप ‘अंतरराष्ट्रीयतावाद’ के ऐसे नए स्वरूप उभर सकते हैं, जो डब्ल्यूएचओ जैसे संगठनों की जगह ले सकें? ये संगठन ऊपरी तौर पर तो अधिराष्ट्रीय दिखाई पड़ते हैं, लेकिन वास्तविकता में ये पूरी तरह से मानव समुदाय की परम एवं चरम अभिव्यक्ति के रूप में राष्ट्र-राज्य की धारणा पर खड़े किए गए हैं. हालांकि इन संभावनाओं को लेकर अटकलबाजियां लगाना किसी अन्य लेख का विषय हो सकता है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)