यूपी विधानसभा चुनावों में पार्टी की सीटें बढ़ने के बावजूद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने मुस्लिम मुद्दों से आखिर दूरी बढ़ाना क्यों शुरु कर दी है? मस्जिदों से लाउड स्पीकर के जरिये अज़ान के विरोध की बात हो या यूपी से लेकर दिल्ली के जहांगीरपुरी में बुलडोज़र की कार्रवाई हो, अखिलेश ने किसी भी मसले पर मुस्लिमों का समर्थन करना तो दूर, कोई बयान तक नहीं दिया. उनकी इस चुप्पी का राज तो वे ही बेहतर जानते हैं, लेकिन सपा को एकतरफा वोट देने वाला यूपी का मुसलमान अब खुद को यतीम समझने लगा है. उनकी नाराज़गी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पार्टी के छोटे-बड़े दस मुस्लिम नेता अब तक सपा से इस्तीफा दे चुके हैं.


यूपी चुनाव होने तक हर छोटी-बड़ी घटना पर बयानबाजी करने वाले अखिलेश की इस खामोशी को लेकर सियासी गलियारों में कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं, लेकिन बड़ा कयास यही है कि दो साल बाद होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए अखिलेश अपनी सियासी रणनीति में बदलाव कर रहे हैं. वे इस लेबल को हटाना चाहते हैं कि सपा सिर्फ़ मुसलमान-यादव की पार्टी है. उन्हें लगता है पिछले तीन दशक में बन चुकी इस इमेज से अब पार्टी को बाहर निकाले बगैर बड़ी राजनीतिक कामयाबी हासिल नहीं हो सकती. एक तरफ उनका जोर जहां गैर यादव हिन्दू जातियों को पार्टी के साथ जोड़ने का है तो वहीं मुस्लिमों से जुड़े मुद्दों पर तरफदारी भरे बयान देकर वे किसी भी विवाद में पड़ने से खुद को बचाने की रणनीति पर आगे बढ़ रहे हैं.


यूपी की राजनीति के जानकार मानते हैं कि दरअसल अखिलेश अब दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं. वे मुसलमानों के पक्ष में बोलकर हिंदुओं को नाराज़ भी नहीं करना चाहते, लेकिन साथ ही ये भी चाहते हैं कि उनकी खामोशी वाली इस सियासत से यूपी का मुसलमान उनसे नाराज़ भी न हों, जो कि मुमकिन नहीं हो सकता. राजनीति में फोर फ्रंट पर आकर खेलना होता है और खासकर उस अल्पसंख्यक वर्ग के लिए जिसने पूरी तरह से गोलबंद होकर सपा को जिताने में अपनी कोई कसर नहीं छोड़ी थी.


ऐसे में अखिलेश अगर आज खुलकर मुसलमानों का साथ नहीं दे रहे है तो उसका ख़फ़ा होना और खुद को ठगा हुआ महसूस करना बिल्कुल वाजिब भी है. दरअसल, अखिलेश जिस 'यूज़ एन्ड थ्रो' वाली राजनीति पर आगे बढ़ रहे हैं, वह उनके लिए अगले लोकसभा चुनाव में उलटी भी पड़ सकती है. वे मुस्लिम वोटों को घर की खेती मानकर चल रहे हैं कि उनके पास सपा छोड़कर कहीं और जाने का कोई दूसरा विकल्प नहीं है, लेकिन उन्हें ये अहसास भी होना चाहिए कि राजनीति में नया विकल्प बनते ज्यादा वक्त नहीं लगता. उसका सबसे बड़ा उदाहरण अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी है, जो तीसरा विकल्प बनकर दो राज्यों की सत्ता पर काबिज़ हुई है.


देश के बाकी मुसलमानों के मुकाबले यूपी के मुस्लिम अगर अखिलेश यादव से ही अपेक्षा रखते हैं तो इसमें आखिर गलत भी क्या है. प्रदेश के 98 फीसदी मुस्लिमों ने जिस पार्टी का खुलकर साथ दिया हो और बदले में सत्ता पर काबिज पार्टी से दुश्मनी भी मोल ली हो तो उसकी तकलीफों की आवाज़ उठाने के लिये भला कांग्रेस या बीएसपी का कोई नेता सामने क्यों आयेगा? हालांकि मुस्लिम समुदाय भी इस हक़ीक़त से वाकिफ़ हैं कि अखिलेश सत्ता में नहीं हैं और वे उसके लिए बहुत कुछ कर भी नहीं सकते, लेकिन सूबे की मुख्य विपक्षी पार्टी होने के नाते अगर वह अल्पसंख्यकों की आवाज उठाती है तो उसे कुछ हौंसला तो मिलता ही है, साथ ही सरकार पर भी ये दबाव पड़ता है कि वो उस वर्ग के साथ ज्यादती न कर सके. दरअसल, चुनाव के बाद अलग-अलग कारणों से प्रदेश के कई ज़िलों में ढेरों एफआईआर दर्ज हुई हैं, जिसमें ज़्यादातर मुस्लिम आरोपी हैं. मुस्लिमों को लगता है कि इसमें से कई मामले तो सिर्फ बदले की भावना से दर्ज हुए हैं जो अत्याचार की शुरुआत है.


जेल में बंद सपा नेता आजम खां के करीबी रामपुर के फसाहत अली खां के इस बयान से मुस्लिमों का दर्द समझा जा सकता है कि, "वोट भी अब्दुल देगा और जेल भी अब्दुल ही जाएगा. यह कितने दिन चलेगा?" शिवपाल यादव के इस बयान ने भी आग में घी डालने का काम ही किया कि "आजम खां के लिए समाजवादी पार्टी को जिस मजबूती के साथ खड़ा होना चाहिए, वह नहीं खड़ी हुई." वे तो बीते शुक्रवार को आज़म खां से मिलने के लिए जेल भी जा पहुंचे. लिहाज़ा अखिलेश को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि लोकसभा चुनावों से पहले ही चाचा शिवपाल यादव, रालोद के मुखिया जयंत चौधरी और भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद के साथ मिलकर कोई तीसरा विकल्प ही न पेश कर दें?


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