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अभी क्यों ज्यादा प्रासंगिक है प्राचीन शिक्षा व्यवस्था

प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था विशिष्ट और सुवर्णिम परंपरा थी. ऋग्वैदिक, उत्तर वैदिक और बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था में न केवल लिखना-पढऩा-समझना सिखाया जाता था बल्कि धर्म, शास्त्र, नैतिकता, ज्योतिष और जीवन मूल्यों की भी शिक्षा दी जाती थी. प्राचीन शिक्षा व्यवस्था के प्रमुख्य उद्देश्यों में चरित्र निर्माण प्रथम था. एक प्राचीन कहावत है कि धन गया तो समझो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो समझो कि कुछ गया और चरित्र गया है तो समझो सबकुछ चला गया. चरित्र निर्माण इसलिए भी प्रथम था क्योंकि अच्छा चरित्र वाला व्यक्ति न केवल अच्छा नागरिक बनता है बल्कि घर, परिवार और समाज के लिए भी जिम्मेदार होता है. अच्छे चरित्र निर्माण के लिए सद्बुद्धि और सद्बुद्धि के लिए सही ज्ञान अर्जन अनिवार्य शर्त है. 

इसलिए चरित्र निर्माण होता था प्रथम  
ऋग्वैदिक काल में नैतिक आदर्शो पर विशेष बल दिया गया है. चारित्रिक शुद्धता के लिए विशेष सत्रों का आयोजन होता था. असत्य एवं पापाचार को घृणित समझा जाता था. शिक्षा का एक उद्देश्य सभ्य सभ्यता और संस्कृति का हस्तान्तरण भी था. बुद्ध कालीन शिक्षा में भी चरित्र निर्माण सर्वेपरि था. पाली ग्रंथ के त्रिपिटकों के अनुसार मठों, विहारों में दी जाने वाली का उद्देश्य चारित्रिक गुणों का विकास, ज्योतिष, तर्क, दर्शन था. बौद्ध शिक्षा के तीन महत्वपूर्ण लक्षण बताए गए हैं. पहला, चारित्रिक, दूसरा बौद्धिक और तीसरा आध्यात्मिक. बौद्धकाल में तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, ओदलपुरी के विश्वविद्यालय विश्वप्रसिद्ध थे. यहां 118 विषय पढ़ाएं जाते थे, इनमें  नैतिक शास्त्र, धर्म, दर्शन, न्याय, तर्क, ज्योतिष प्रमुख विषय थे.

सुभाषित रत्नसंदोह में कहा गया है कि ‘ज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है जो उसे समस्त तत्वों के मूल को जानने में सहायता करता है तथा सही कार्यों को करने की विधि बताता है.’ महाभारत में वर्णित है कि नास्ति विद्यासमं चक्षुनास्ति सत्यसमं तप: यानी विद्या के समान नेत्र तथा सत्य के समान कोई दूसरा तप नहीं है. वैदिक युग से ही इसे प्रकाश का स्रोत माना गया जो मानव-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को आलोकित करते हुए उसे सही दिशा-निर्देश देता है. 

बुद्धि को बल कहा गया है 
प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था की जड़ में शिक्षा द्वारा प्राप्त एवं विकसित की गई बुद्धि ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति होती थी यानी बुद्धिर्यस्य बलं तस्य. प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा का उद्देश्य मात्र पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना नहीं था अपितु मनुष्य के संपूर्ण व्यक्तितव का विकास करना था. कहा गया है कि शास्त्रों का पण्डित भी मूर्ख है यदि उसने कर्मशील व्यक्ति के रूप में निपुणता प्राप्त नहीं की है. 

गुरू शिष्य परंपरा व व्यावहारिक शिक्षा था खास 
प्राचीन शिक्षा व्यवस्था की एक अद्वितीय विशेषता गुरु-शिष्य परंपरा थी. इसमें, गुरु-शिष्य एक परिवार के सदस्य की भांति साथ रहते थे और विभिन्न विषयों में गहरे ज्ञान को आत्मीयता के साथ साझा करते थे. शिष्य, गुरु के संघ में आकर्षित होते थे और उनके दिशा-निर्देशन में अपने जीवन की दिशा तय करते थे. 

मल्टीडिस्पिलिनरी और इंटरडिस्पिलिनरी अप्रोच
प्राचीन शिक्षा व्यवस्था मल्टीडिस्पिलिनरी और इंटरडिस्पिलिनरी अप्रोच के अद्वितीय उदाहरण हैंं. शिष्य बचपन से ही गुरुकुल परंपरा में हते थे तो उसको हर चीज यानी व्यावहारिक शिक्षा का ज्ञान दिया था. ज्ञान और कौशल की अद्वितीय संयोजन था, जिससे शिष्य समृद्धि के साथ आगे बढ़ता था. विद्यार्थी आरम्भ से ही अंत:विषय और बहुविषयक शिक्षा की ओर अभिन्मुख होते थे. 

विद्या की पूजा और ध्यान-तपस्या भी शामिल 
विद्या को प्राचीन समय में भी बहुत महत्व दिया जाता था. यहां तक कि शिक्षा की पूजा को "सर्वोत्तम यज्ञ" माना जाता था. गुरु पूजा और विद्या के प्रति श्रद्धा का आदर्श जीवन में अनुसरण करने की प्रेरणा देता था. प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था में ध्यान और तपस्या का भी विशेष स्थान था. छात्रों को न केवल शारीरिक, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता था.

प्राचीन शिक्षा की अवधारणा है नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 
प्राचीन शिक्षा की नई अवधारणा है नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020. इसमेंं स्नातक और परास्नातक के छात्रों को होलेस्टिक एजुकेशन यानी समग्र शिक्षा देने पर जोर दिया जा रहा है. देशभर के सैकड़ों विश्वविद्यालयों में समग्र शिक्षा पाठयक्रम को लागू किया जा चुका है. इसमें नैतिक मूल्य, प्राचीन परंपरा, पद्धति और प्राचीन ज्ञान को व्यावहारिक रूप से लागू करने पर जोर दिया जा रहा है ताकि हर छात्र महसूस कर सके कि वह प्रकृति का विस्तार मात्र है. अगर ऐसा होता है तो हम किसी एक व्यक्ति या संस्था ही नहीं बल्कि हर कण-कण के प्रति विनम्र हो सकेंगे. सबके महत्व व अस्तित्व को समझ पाएंगे. चारित्रिक रूप से सशक्त व्यक्ति ही स्वर्णिम भारत के योगदान में मदद कर सकता है.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]

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