एलएसी के नज़दीक गांव बसाकर भारत को क्यों भड़का रहा है चीन?
चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी के नजदीक ऐसे कई गांव बसा दिए हैं जिनका वह दोहरा इस्तेमाल कर रहा है. मतलब कि भारतीय सेना पर नज़र रखने के साथ ही चीनी सैनिकों के लिए अब ये एक तरह के बेस कैम्प बन गए हैं. चीन ने इसे 'जियाओकांग' यानी खुशहाल गांव का नाम दिया है. लेकिन इन गांवों को बसाने का एकमात्र मकसद एलएसी के एकदम पास नागरिकों की शक्ल में चीनी जासूसों और सैनिकों को रखने की पक्की व्यवस्था करना है. इनकी रणनीतिक स्थिति भारत की सुरक्षा के लिहाज़ से बेहद चिंताजनक है लेकिन ऐसा नहीं है कि भारतीय सेना इससे अनजान है. चीन के संभावित खतरों से निपटने के लिए हमारी सेना की तैयारी भी चाक-चौबंद है लेकिन भारत फिलहाल अपनी तरफ से उकसावे की किसी भी तरह की कार्रवाई की पहल नहीं करना चाहता है.
ग्लोबल काउंटर टेररिज्म काउंसिल के सलाहकार बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक पिछले करीब तीन साल में भारत के साथ लगती अपनी सीमा पर चीन ने ऐसे 680 गांव बना लिए हैं. वहां रहने वाले लोग बीजिंग के लिए आंख-कान बनने के साथ ही भारतीय ग्रामीणों को भी एक बेहतर चीनी जीवन की ओर आकर्षित करते हैं. वे स्थानीय भारतीय आबादी को भी ये कहते हुए प्रभावित करते हैं कि भारत के मुकाबले चीनी सरकार कितनी ज्यादा बेहतर है,जो उनका हर तरह से ख्याल रखती है. कूटनीतिक भाषा में ये भारत के खिलाफ ऐसा प्रोपेगैंडा है जिसके लिए किसी हथियार चलाने की जरुरत नही होती.
ग्लोबल काउंटर टेररिज्म काउंसिल के सलाहकार बोर्ड के सदस्य कृष्ण वर्मा के मुताबिक, 'ये चीन की ओर से खुफिया व सुरक्षा अभियान है जिसमे अब वे लोगों को भारत विरोधी बनाने की कोशिश कर रहे हैं. इसलिए हम अरुणाचल प्रदेश समेत अन्य सीमांत राज्यों के अपने पुलिसकर्मियों को इन प्रयासों के बारे में प्रशिक्षण दे रहे हैं और उन्हें उनकी हरकतों का मुकाबला करने के लिए संवेदनशील बना रहे हैं.'
एक मोटे अनुमान के मुताबिक एलएसी के नजदीक बनाये गए इन गांवों में चीन अब तक अपने करीब ढाई लाख लोगों को बसा भी चुका है. कहने को भले ही वे गांव हैं लेकिन वहां हर तरह की सुविधाएं व आधुनिक तकनीक मौजूद है. भारत के लिए चिंता की बात ये है कि इनमें से तकरीबन दो सौ गांव भारतीय सीमा से महज़ कुछ किलोमीटर की दूरी पर ही बसाए गए हैं. ये गांव पूर्वी लद्दाख में रुतोग, न्याग्री से लेकर डोकलाम के पास और अरुणाचल प्रदेश से सटे निंगची तक यानि पूरी एलएसी पर फैले हुए हैं. सिक्किम में जिस स्थान को भारत, भूटान और चीन की सीमा मिलने का पॉइंट यानि ट्राइ जंक्शन कहा जाता है, वहां पर भी ऐसे गांव बसाए गए हैं. चीन ने तो ये हिमाकत भी कर डाली है कि उसने भूटान की जमीन पर ही कुछ गांव बसा दिए हैं, जिसे लेकर भूटान कुछ नहीं कर पाया.
लेकिन चीन भी जानता है कि भारत, भूटान नहीं है जिसकी जमीन पर वो कब्ज़ा कर सके. भारतीय सेना की पूर्वी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल मनोज पांडे के मुताबिक एलएसी के पार चीनी सेना के निरंतर बढ़ते अभ्यास पर हमारी निगाह है और हमारी सेना ऎसे किसी भी खतरे से निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार है. दरअसल,भारत और चीन के बीच अक्टूबर 2013 में सीमा रक्षा सहयोग समझौता हुआ था, जिसका पालन करना दोनों के लिए अनिवार्य है. लेकिन पूर्वी लद्दाख में जिस तरीके से 17 महीने तक चीनी सेना ने उकसावे की कार्रवाई की है, उसके बाद केंद्र सरकार को लगता है कि अब इस समझौते पर दोबारा विचार करने की जरुरत है. जनरल पांडे के मुताबिक भारतीय सेना हमेशा से द्विपक्षीय समझौते व प्रोटोकॉल का पालन करती आई है और हम अपनी तरफ से उकसावे की कोई कार्रवाई भी नहीं करते. लेकिन जो कुछ लद्दाख में हमने देखा है, उसके बाद भविष्य में हमारी रणनीति क्या होनी चाहिये, इसका फैसला शीर्ष स्तर पर लिया जाना अब आवश्यक हो गया है.
दरअसल, अन्तराष्ट्रीय सीमा की रक्षा का जिम्मा तो सेना या बीएसएफ ही संभालती है लेकिन इन सीमावर्ती प्रदेशों में किसी भी तरह की घुसपैठ को रोकने में वहां के स्थानीय लोगों और लोकल पुलिस की अहम भूमिका होती है क्योंकि ऐसी कोई भी सूचना लोग सबसे पहले पुलिस को ही देते हैं. देश की सुरक्षा सुनिश्चित करने और अन्तराष्ट्रीय हमलों को रोकने की रणनीति के मकसद से गुजरात के गांधीनगर में राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय (आरआरयू) की स्थापना की गई थी. पिछले महीने वहां उन पुलिस उप अधीक्षकों (डीवाईएसपी) के लिए विशेष प्रशिक्षण कार्यक्रम रखा गया था, जिनकी नियुक्ति सीमांत प्रदेशों में होने वाली है और जिन्हें रोजमर्रा होने वाली घुसपैठ की कोशिशों को नाकाम करना होगा.
ग्लोबल काउंटर टेररिज्म काउंसिल के सलाहकार बोर्ड के सदस्य वर्मा के मुताबिक 'वे (चीनी) प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में बहुत उन्नत हैं, विशेष रूप से इंटरनेट और सोशल मीडिया.वे भारत के लोगों को गुमराह करने के लिए, झूठी खबरें फैलाने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइटों का उपयोग कर रहे हैं, इसलिए हमने उन्हें इनसे निपटने के तौर तरीके सिखाये हैं. चूंकि पूर्वोत्तर सीमा क्षेत्र बहुत संवेदनशील है और उनके लिए तोड़फोड़ के ऐसे प्रयासों के बारे में जानना नितांत आवश्यक है. वर्मा ने यह भी कहा, 'हम उन्हें मंदारिन (चीनी भाषा) भी सिखा रहे हैं क्योंकि घुसपैठ करने वाले लोग वही भाषा बोलते हैं.इसके लिए विश्वविद्यालय ने एक साल का पाठ्यक्रम तैयार किया है जो भाषा का बुनियादी ज्ञान देता है.
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