राजनीतिक स्पेस में रामविलास पासवान बाद के दिनों में कम ही सक्रिय थे. इसके उलट, वे पार्टी के प्रतीक पुरुष थे और उनके भाई पशुपतिनाथ पारस एक तरह से पार्टी को चलाने की जिम्मेवारी संभाले हुए थे. पार्टी पर उनकी पकड़ भी ठीकठाक थी और इसी वजह से जब रामविलास पासवान नहीं रहे तब पारिवारिक कलह के बीच, लोजपा में टूट के दौरान चाचा पशुपतिनाथ पारस सभी सांसदों को ले कर निकल गए. तब तक भाजपा और राजनीतिक विश्लेषकों को भी यही लगा था कि असली लोजपा पशुपतिनाथ पारस के पास ही है. लेकिन यह हिन्दुस्तान है जहां विरासत की राजनीति आज भी पूरे दमखम के साथ चल रही है और शायद अभी आगे भी चलती रहेगी, तमाम परिवारवाद के आरोपों को झेलने के बाद भी. शायद इसीलिए अगले कुछ दिनों में होने वाले केन्द्रीय मंत्रीमंडल विस्तार में चिराग पासवान केन्द्रीय मंत्री के तौर पर शपथ लेते दिख जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. और ऐसा इसलिए होगा क्योंकि बिहार में चिराग पासवान आज रामविलास पासवान और उनकी राजनीतिक विरासत के अकेले उत्तराधिकारी है. यह बात उन्होंने चुनावी राजनीति के जरिये भी साबित की है और पॉपुलर परसेप्शन के जरिये भी. 


कम नहीं 6 फीसदी वोट! 


2020 के विधानसभा चुनाव में जद(यू) और भाजपा साथ थी लेकिन चिराग पासवान एनडीए से अलग थे. चुनाव के दौरान ही राम विलास पासवान जी की मौत हो गयी थी. चाचा-भतीजे के बीच रिश्ते तल्ख़ थे और सीट शेयरिंग को ले कर भी भाजपा के साथ समस्या थी. ऐसे में चिराग पासवान ने 135 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया और ज्यादातर ऐसी सीटों पर उम्मीदवार दिए जहां से जद(यू) के उम्मीदवार मैदान में थे. हालांकि यह भी कहा गया कि वे यह सब भाजपा के इशारे पर कर रहे थे. नतीजा यह हुआ कि करीब 6 फीसदी वोट पा कर खुद की पार्टी को तो नहीं जीत दिला पाए लेकिन जद(यू) की सीटों की संख्या पिछले चुनाव के मुकाबले 28 कम करने में वे सफल रहे. ऐसा माना जा रहा था कि नीतीश कुमार के कारण ही चिराग पासवान बिहार एनडीए से बाहर रहे. बावजूद इसके, चिराग पासवां ने खुद को हमेशा मोदी का हनुमान बताया और कभी भी भाजपा के खिलाफ नहीं गए. 2020 के विधानसभा चुनाव के जरिये उन्होंने अपना दमखम दिखा ही दिया था और लगातार बिहार पर फोकस करते हुए वे सक्रिय भी रहे. 



नए समीकरण नए साथी 


नीतीश कुमार द्वारा एक बार फिर अंतरात्मा की आवाज सुने जाने के बाद बिहार में भाजपा फिर से अकेले हैं. ऐसे में उसे नए साथियों की जरूरत है. हाल ही में जीतन राम मांझी को उइसने अपने पाले में लिया लेकिन मांझी भले कितने दावे कर ले, चुनावी राजनीति में वे 1 से 2 फीसदी वोट से अधिक को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखते. मुकेश सहनी जरूर इन दिनों बिहार की राजनीति में थोड़ा अधिक सक्रिय दिख रहे हैं और केंद्र की तरफ से उन्हें वाई कैटेगरी की सुरक्षा दे कर लुभाने की कोशिश भी का जी रही है लेकिन पक्के तौर पर वे अंत-अंत तक किधर जाएंगे, कहना मुश्किल है. रह गए उपेन्द्र कुशवाहा और चिराग पासवान. भाजपा अको इस वक्त एक ऐसे साथी की सख्त जरूरत है जो कम से कम 5-6 फीसदी दलित वोटों पर पकड़ रखता हो और ऐसे नेता अकेले चिराग पासवान ही है. भाजपा को अब शायद यह भरोसा नहीं रहा कि पशुपति नाथ पारस रामविलास पासवान की विरासत को आगे बढाते हुए भाजपा को वोट दिला पाने में सक्षम होंगे जबकि चिराग पासवान ने लगभग यह साबित कर दिया है कि वही रामविलास पासवान के राजनीतिक विरासत के असली उत्तराधिकारी है.



चिराग पासवान की मुलाकात केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय से हो चुकी है और उनके एनडीए में शामिल होने की अब औपचारिकताएं भर रह गयी है. इस डील की शर्तें क्या हो सकती है इसे ले कर बस इतना कहा जा सकता है कि चिराग पासवान अगला लोकसभा चुनाव अपने पिता की पारंपरिक सीट हाजीपुर लेना चाहेंगे और साथ ही वह मंत्रालय भी जो उनके पिता के पास थी और फिलहाल उनके चाचा के पास है. तो थोड़ा इंतज़ार कीजिये और यह देखिये कि क्या पशुपतिनाथ पारस अपने भतीजे द्वारा रिप्लेस किए जाते है? 


युवाओं का बिहार! 


युवा बिहार की राजनीति की कमान अब कमोबेश युवा हाथों में है. तेजस्वी, चिराग, कन्हैया, पीके के बाद, भाजपा ने भी इस सच को समझते हुए एक युवा, सम्राट चौधरी को राज्य की कमान सौंपी है. बिहार के लगभग 56 फीसदी वोटर्स 18 से 40 साल के बीच के आयु समूह के है. नीतीश कुमार के बाद बिहार को एक युवा मुख्यमंत्री मिले तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. चिराग पासवान जैसे युवा नेता न सिर्फ अपनी जाति बल्कि बिहार की सभी जाति के युवाओं के बीच लोकप्रिय हो रहे हैं. वैसे भी रामविलास पासवान के समाया से ही लोजपा की एक रणनीति रही है कि सभी जातियों, ख़ास कर सामान्य जाति, को समेत कर चला जाए. बाहुबल या धनबल, कारण चाहे जो भी रहे हो, लोजपा के अधिकाँश उम्मीदवार राजपूत, भूमिहार और ब्राह्मण जातियों से आते रहे हैं.


आज भी लोजपा के प्रदेश अध्यक्ष ब्राह्मण जाति से आने वाले एक पूर्व विधायक ही है. पिछले 1-2 सालों में यह देखा गया है कि चिराग पासवान जब भी बिहार के सुदूर क्षेत्रों के दौरे पर होते है तो उनमें युवाओं की संख्या ठीकठाक होती है. सोशल मीडिया के जरिये भी उनकी लोकप्रियता युवाओं के बीच देखी जा सकती है. अब ये सारी संख्याएं चुनावी परिणाम में कितनी तब्दील होती है, यह कई कारकों पर निर्भर हैं लेकिन इससे एक चीज साफ़ है कि इस वक्त बिहार में भाजपा के लिए चिराग पासवान को इग्नोर करना तकरीबन नामुमकिन है. अंतिम नतीजा अगले 3-4 दिनों में देखने को मिल सकता है. बहरहाल, चाचा-भतीजा की राष्ट्रीय राजनीतिक रस्साकशी के दौर में महाराष्ट्र के बाद एक बार फिर बिहार में भतीजा चाचा पर भारी पड़ने जा रहा है.



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