लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर सभी दलों की तरफ से रणनीतियां बनाई जा रही हैं. सियासी गुणा-भाग कर आगे की तरफ कदम बढ़ाया जा रहा है और राजनीतिक नफा-नुकसान का आकलन किया जा रहा है. इन सबके बीच केन्द्र सरकार की तरफ से लाए गए अध्यादेश के खिलाफ आम आदमी पार्टी को कांग्रेस का समर्थन मिलना भी एक बड़े भविष्य का राजनीतिक कदम है. यही वजह है कि दिल्ली कांग्रेस के नेताओं की तरफ से लाख विरोध करने के बावजूद अध्यादेश पर 'आप' का समर्थन कर दो विरोधी दल आगामी लोकसभा चुनाव से पहले सहयोगी बन गए हैं.
कांग्रेस पार्टी की दिल्ली ईकाई की तरफ से लगातार अध्यादेश के मुद्दे पर सीएम अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी का विरोध किया जा रहा. कांग्रेस नेताओं के खिलाफ खासकर पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के खिलाफ टिप्पणी को लेकर 'आप' सुप्रीमो से माफी की मांग की गई. लेकिन, इन सब विरोधों के बावजूद कांग्रेस पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने इसे दरकिनार किया और 2024 लोकसभा चुनावों के लिए आम आदमी पार्टी के साथ जाने का फैसला किया.
कांग्रेस ने क्यों उठाया ये कदम?
दरअसल, कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के इस कदम ने ना सिर्फ पार्टी की दिल्ली ईकाई के कैडर के मनोबल को कमजोर किया है, बल्कि यहां के कई कांग्रेस नेताओं को अपने भविष्य के राजनीतिक कदमों को दोबारा सोचने पर मजबूर कर दिया है. पार्टी कैडर्स के बीच शीर्ष नेतृत्व के इस कदम से असहजता की भावना दिल्ली कांग्रेस नेताओं में साफ महसूस की जा सकती है.
ऐसा माना जा रहा है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी इस वक्त अपने राजनीतिक करियर को लेकर चिंतिंत है, क्योंकि उसके लोकसभा और विधानसभा चुनावों में निराशाजनक प्रदर्शन रहे. कांग्रेस के इस कदम के बारे में बात करते हुए राजनीतिक विश्लेषक रुमान हाशमी बताते हैं कि चूंकि कांग्रेस पार्टी देश में पिछले 9 साल से सत्ता से बाहर है. जो तमाम एजेंसियों के सर्वे आ भी रहे हैं, उसमें 2024 में दोबारा नरेन्द्र मोदी को पीएम और बीजेपी को सत्ता में आने का अनुमान लगाया जा रहा है. ऐसे में इस वक्त कांग्रेस पार्टी बेहद कमजोर स्थिति में हैं. गुलाम नबी आजाद समेत पार्टी के कई पुराने नेता 'हाथ' का साथ छोड़कर जा चुके हैं.
कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को मानहानि केस में कोर्ट से सजा मिल चुकी है. उनकी संसद सदस्यता चली गई. इधर, कांग्रेस के साथ रहने वाले जेडीयू नेता और बिहार सीएम नीतीश कुमार काफी अप्रत्याशित नेता हैं, जिन पर बहुत ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता है. ऐसे में पार्टी को अपना सर्वाइवल के लिए ये कुर्बानी देनी ही थी.
कांग्रेस की सियासी मजबूरी
रुमान हाशमी बताते हैं कि जब से आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला है, उसके बाद से उसके हौसले बुलंद हैं. कर्नाटक में विपक्षी नेताओं की बैठक के दौरान भी पोस्टर में सीएम केजरीवाल का फोटो लगाया गया था. पटना में विपक्षी नेताओं की पहली बैठक के दौरान ही आम आदमी पार्टी की तरफ से साफ कहा गया था कि कांग्रेस पार्टी केन्द्र की तरफ से दिल्ली के अधिकारों को लेकर लाए गए अध्यादेश पर अपना रुख साफ करे. ऐसे में कांग्रेस के पास कोई और दूसरा विकल्प नहीं बचा था.
दिल्ली कांग्रेस नेताओं में चिंता की एक बड़ी वजह ये भी है कि 2020 विधानसभा चुनाव में आप को करीब 54 फीसदी वोट मिले थे. दूसरा नंबर पर बीजेपी और तीसरे पर खिसक कर कांग्रेस चली गई थी. जबकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी पहले, कांग्रेस दूसरे और 'आप' तीसरे नंबर पर थी. ऐसे में दिल्ली कांग्रेस में इस बात को लेकर जरूर चिंता है कि वोट के कांग्रेस में शिफ्ट होने के बावजूद उसका सीट पाने के तौर पर कांग्रेस को कोई खास फायदा नहीं हो पाया.
दिल्ली कांग्रेस के अल्पसंख्यक नेताओं ने भी आम आदमी पार्टी के साथ किसी तरह के गठबंधन का विरोध करते हुए प्रस्तावित नागरिक संशोधन विधेयक (सीएए) और एनआरसी पर उसके समर्थन का हवाला दिया था. कांग्रेस इन दोनों का विरोध करती आयी है और इसके खिलाफ हुए विरोध प्रदर्शन का समर्थन किया है.
इसके साथ ही, यूनिफॉर्म सिविल कोड पर आम आदमी पार्टी के समर्थन करने वाले बयान का भी मुद्दा बनाकर केन्द्रीय नेतृत्व से 'आप' से दूर रहने को कहा गया था. इसमें बताया गया था कि इससे कांग्रेस के बचे हुए वोट शेयर को भी काफी नुकसान पहुंचेगा, जो खासकर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के मुस्लिम बहुल इलाकों में हैं. लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व ने इन सभी चीजों को अनसुना किया.
जाहिर है, इस वक्त कांग्रेस को अपने सर्वाइवल की ज्यादा चिंता है, बजाय अपने वोट शेयर बचाने या उसे बढ़ाने की. ऐसे में बेशक उसने तत्काल बड़ी कुर्बानी दी और दिल्ली के नेताओं की नाराजगी की जोखिम उठाते हुए भले ही ये कदम उठाया हो, लेकिन उसके बाद इसके अलावा और कोई अन्य विकल्प बचा भी तो नहीं था.
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