शहरों के नाम बदलने की शुरुआत उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की पिछली सरकार ने की थी, जिसका असर अब देश की राजधानी दिल्ली में दिखने लगा है. चूंकि राजधानी का नाम तो बदला नहीं जा सकता, लिहाज़ा बीजेपी शासित नगर निगम ने दिल्ली के 40 गांवों के नाम बदलने के बहाने एक नई सियासत शुरु कर दी है. ये सभी वे गांव हैं, जिनके मुस्लिम नाम हैं, लेकिन 15 साल तक एमसीडी पर राज करने वाली बीजेपी को अब अचानक ये ख्याल आया है कि ये तो गुलामी का प्रतीक हैं, इसलिए एक साथ सबके ही नाम बदल दो.
दरअसल, नाम बदलना तो बहाना है, असली मकसद तो वोटों का ध्रुवीकरण कराना है. दिल्ली में जल्द ही नगर निगम के चुनाव होने हैं, इसलिए ये सारी कवायद मुस्लिमों नामों से जुड़ी ऐतिहासिक निशानी को मिटाकर बहुसंख्यक वोटों को गोलबंद करने के लिए हो रही है. वोटों की राजनीति करने पर किसी को कोई ऐतराज नहीं है, लेकिन ये कोशिश उस समाज को बांटने वाली ही कही जायेगी, जहां पिछले कई बरसों से हिंदू-मुस्लिम आपस में मिल-जुलकर रहते हुए गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल पेश करते आ रहे हैं.
उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार ने दिल्ली की तीनों नगर निगमों का विलय करके उसे एक नगर निगम बनाने का विधेयक संसद के दोनों सदनों से पास कराकर उसे कानून की शक्ल दे दी है. आज 28 अप्रैल से ये कानून अपने अस्तित्व में भी आ गया है. इससे एक दिन पहले ही दिल्ली बीजेपी के नेताओं ने दक्षिण दिल्ली के ऐतिहासिक मोहम्मद पुर गांव का नाम बदलकर उसका नाम 'माधवपुरम' रख डाला और गांव के प्रवेश द्वार पर इसका बोर्ड भी टांग दिया.
दूसरे राज्यों की तरह दिल्ली के ये गांव कोई शहर से बाहर नहीं हैं, बल्कि दिल्ली के 11 जिलों के बीचोंबीच आजादी के पहले से ही बसे हुए हैं. बल्कि ये कहना ज्यादा ठीक होगा कि ये गांव बहुत पहले से ही थे और आजादी के बाद इनके आसपास कालोनियां बसने के बाद उस इलाके ने एक शहर/जिले का रुप ले लिया. इनमें से कइयों का ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व भी है और इनके नाम बदलने के लिए पुरातत्व विभाग की मंजूरी लेना भी जरुरी है. नियमों व कानून के मुताबिक वह भी इसकी मंजूरी इतनी आसानी से नहीं दे सकता. इसलिये कि उसका तो काम ही पुरातत्व के महत्व वाली निशानियों को संजोकर रखना है.
मजे की बात ये है कि दिल्ली के नगर निगमों के पास गांवों के नाम बदलने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है, क्योंकि ये उसकी संपत्ति नहीं है. पुरानी कहावत है कि 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' सो जब केंद्र में भी अपनी ही पार्टी की सरकार है तो फिर डर कैसा? वैसे अगर दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार भी चाहे तो अकेले वह भी नाम बदलने का फैसला नहीं ले सकती. उसे भी उपराज्यपाल के पास प्रस्ताव भेजना होगा. दिल्ली सरकार के प्रशासनिक ढांचे में उपराज्यपाल के अधीन नामकरण समिति की एक इकाई है, जो नाम बदलने के प्रस्तावों का अध्ययन कर नाम बदलने पर अपनी सहमति देती है.
हालांकि आम आदमी पार्टी ने एक बयान जारी कर कहा था कि दिल्ली में ऐसे मामलों को लेकर ‘राज्य नामकरण प्राधिकरण’ है और अगर ऐसा कोई प्रस्ताव मिलता है तो संबंधित निकाय द्वारा उचित तरीके से समीक्षा की जाएगी और प्रक्रिया के तहत कार्यवाही की जाएगी. सवाल है कि केजरीवाल सरकार ऐसा प्रस्ताव ही एलजी को भला क्यों भेजेगी, क्योंकि उसका तो सीधा आरोप है कि बीजेपी इसके जरिये समाज को बांटने की सियासत कर रही है.
दिल्ली के एकीकृत नगर निगम की निर्माण समिति के अध्यक्ष रहे जगदीश ममगाईं कहते हैं कि नगर निगम केवल उन सड़कों, गलियों, भवनों के नाम रख या बदल सकते हैं, जो उसकी निजी संपत्ति हैं, या उनके अधिकार क्षेत्र में आते हैं. दिल्ली के ये गांव निगमों की संपत्ति नहीं हैं. वह केवल वहां सफाई जैसी मूलभूत सेवाएं देती है, लिहाजा उसके पास नाम बदलने का कोई अधिकार नहीं है. इसलिए ऐसी कोशिश सिर्फ राजनीतिक लाभ पाने से ज्यादा कुछ नहीं है.
हालांकि दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष आदेश गुप्ता दलील देते हैं कि "आजादी को 75 साल हो चुके हैं. कोई भी गुलामी की मानसिकता देश को नहीं चाहिए. दिल्ली की केजरीवाल सरकार तुष्टिकरण की राजनीति करती है, एक वर्ग विशेष को खुश करने की होड़ में लगी रहती है. हम 40 और गांव के नाम बदलेंगे, क्योंकि इन सभी गांव की पंचायत ने हमें प्रस्ताव दिया है."सवाल फिर वही है कि 15 साल तक एमसीडी में राज करते हुए गुलामी की याद दिलाने वाले इन मुस्लिम गांवों के नाम बदलने की याद आखिर अभी ही क्यों आई?
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)