पश्चिम बंगाल की एक विधानसभा सीट पर हुए उप-चुनाव के नतीजे ने सिर्फ ममता बनर्जी को ही चोट नहीं पहुंचाई है, बल्कि लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष की एकता के ताने-बाने को ही पूरी तरह से बिखेर कर रख दिया है. ममता ने 2024 के लिए एकला चलो की नीति का ऐलान करते हुए विपक्ष के मंसूबों पर तो पानी फेरा ही है, लेकिन इसने बीजेपी की उम्मीदों को और भी पंख लगा दिये हैं कि अब उसे चुनौती देने के लिए एकजुट विपक्ष सामने नहीं होगा.
मुर्शिदाबाद जिले की सागर दिघी विधानसभा सीट पर हुए उप-चुनाव में टीएमसी की हार ने ममता बनर्जी को बड़ा झटका दिया है और उनकी हालत उस घायल शेरनी की तरह हो गई है, जो पलटकर दोगुनी ताकत से हमला करने के इंतजार में रहती है, लेकिन उनके इस ऐलान ने समूचे विपक्ष के साथ ही बीजेपी को भी थोड़ा चौंका दिया है कि वे 2024 का चुनाव अकेले ही लड़ेंगी और किसी गठबंधन में शामिल नहीं होंगी. दरअसल, ममता के इस गुस्से की बड़ी वजह है कि जिस सीट पर पिछले 12 साल से उनका कब्जा था, उसे कांग्रेस और सीपीएम के गठबंधन ने हथिया लिया है.
ममता ने बेशक इस हार को स्वीकार किया है, लेकिन वे इसे पचा नहीं पा रही हैं और इसीलिये उन्होंने आरोप जड़ा है कि बंगाल में कांग्रेस, लेफ्ट और बीजेपी का अनैतिक गठबंधन बना है. उन्होंने ये सीट गंवाने के लिए अपनी पार्टी को जिम्मेदार ठहराने की बजाय सारा ठीकरा इस अनैतिक गठबंधन के सिर फोड़ते हुए लोकसभा चुनाव अकेले ही लड़ने का फैसला लेकर एक सियासी दांव खेला है.
बंगाल की राजनीति के जानकार कहते हैं कि ममता का गुस्सा होना काफी हद तक जायज़ इसलिये भी है कि मुस्लिम बहुल इस इलाके में टीएमसी को हराना सिर्फ कांग्रेस-लेफ्ट का ही नहीं बल्कि बीजेपी का भी मकसद था. उप-चुनाव के वोट शेयर को देखें, तो इससे साफ पता चलता है कि बीजेपी ने अपना वोट कांग्रेस को ट्रांसफर करने में काफी मदद की है. ममता भी यही आरोप लगा रही है कि इस चुनाव में जहां एक तरफ कांग्रेस-लेफ्ट का गठबंधन था, तो वहीं दूसरी तरफ बीजेपी का वोट ट्रांसफर और ये सब चुपचाप किया गया. इसीलिए ममता ने कटाक्ष किया है कि तृणमूल के खिलाफ ये तीनों दल मिलकर नाटक कर रहे हैं. मुंह पर कुछ और पीछे कुछ, लेकिन विश्लेषक इसे हैरान करने वाला मान रहे हैं कि कांग्रेस-लेफ्ट का गठबंधन होने के बाद भी बीजेपी ने वोट ट्रांसफर किया.
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी के एक बयान का जिक्र करते हुए ममता ने दोनों दलों को आड़े हाथ लिया है. दरअसल, चौधरी ने चुनाव-प्रचार के दौरान कहीं कहा था कि लेफ्ट-कांग्रेस और बीजेपी साथ काम कर रहे हैं. ममता ने इसे लपक लिया और कहा कि अच्छी बात है कि उन्होंने इस सच स्वीकार कर लिया, लेकिन उन्होंने एक बुनियादी सवाल उठाया है कि अगर इस प्रकार के गठबंधन किए जाएंगे, तो कांग्रेस या लेफ्ट आखिर कैसे बीजेपी से लड़ाई लड़ेंगे. अगर सभी ममता के खिलाफ लड़ेंगे तो फिर बीजेपी से मुकाबला कौन करेगा?
बहरहाल, ममता की नजर अब लोकसभा चुनाव पर ही हैं. वे नहीं चाहतीं कि सिर्फ कांग्रेस ही मोदी सरकार के खिलाफ प्रमुख चुनौती बनकर उभरे, बल्कि वह खुद इस हैसियत में आने के लिए सारी कवायद कर रही हैं. पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 42 सीटें हैं. पिछली बार टीएमसी को 22, बीजेपी को 18 और कांग्रेस को महज दी सीटें ही मिली थीं. वाम दलों का सूपड़ा साफ हो गया था.
जानकार कहते हैं कि ममता ने अकेले चुनाव लड़ने की जो सियासी चाल खेली है, उसका क्या नतीजा निकलता है ये तो बाद में पता चलेगा, लेकिन फिलहाल उन्होंने ये फैसला लेकर अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश की है. अगर वे कांग्रेस और लेफ्ट के गठबंधन में चुनाव लड़तीं, तो जाहिर है कि उनके हिस्से में कम सीटें आतीं और राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें अपनी ताकत दिखाने का मौका नहीं मिलता, लेकिन अब वे अपने बूते पर जितनी भी सीटें लाएंगी, विपक्ष में उनकी स्थिति ज्यादा मजबूत होगी और तब वे पीएम पद के उम्मीदवार की रेस में भी काफी आगे की हैसियत में होंगी.
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