कश्मीर के आतंकवाद ने बिहार की सियासत को इतना गरमा दिया है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब सारे विपक्षी दलों के निशाने पर आ गए हैं. रविवार को कश्मीर घाटी में हुई बिहारी मजदूरों की हत्या को राज्य में बढ़ती  बेरोजगारी से जोड़कर  नीतीश को कठघरे में खड़ा करने का विपक्ष को अब एक कारगर सियासी हथियार मिल गया है. हालांकि ये भी सही है कि नौकरी-रोजगार की तलाश में बिहार के अलावा अन्य राज्यों के लोग भी किसी और प्रदेश में पलायन करने के लिये मजबूर तो होते ही हैं लेकिन अगर बाकियों से तुलना करें,तो बिहार के लोगों का प्रतिशत ही ज्यादा देखने को मिलेगा. लिहाज़ा सवाल उठता है कि सूबे में सबसे लंबे समय तक राज करने वाली नीतीश सरकार लोगों को रोजगार देने में क्या वाकई  नाकाम साबित हुई है?


यदि विपक्ष के इस आरोप में सच्चाई है, तो फिर नीतीश के सुशासन के दावे को सिर्फ हवा-हवाई ही समझा जायेगा क्योंकि बेरोजगारों की फौज़ खड़ी करके कोई भी सरकार अपनी पीठ थपथपाने की हकदार नहीं बन जाती है. हालांकि फिर एक सवाल ये भी उठता है कि अगर बेरोजगारी बिहार में एक बड़ा मुद्दा है, तो हर बार वहां की जनता नीतीश को ही सत्त्ता में आखिर क्यों ले आती है? वैसे इस बार तो ये भी एक अपवाद ही है कि जेडीयू के विधायकों की संख्या बीजेपी से कम है, उसके बावजूद नीतीश ही मुख्यमंत्री हैं .जाहिर है कि नीतीश की लोकप्रियता और साफ सुथरी छवि ही उनके सत्ता में लगातार बने का मूलमंत्र है.


वैसे किसी भी बेगुनाह की मौत पर कोई सियासत नहीं होनी चाहिए और ये भी सच है कि कोई भी सरकार कुछ लाख रुपये का मुआवजा देकर किसी की जिंदगी को वापस नहीं ला सकती. लेकिन सरकार का ये नैतिक फ़र्ज़ बनता है कि वो मुआवजे की रकम इतनी सम्मानजनक तो दे कि मृतक के परिवारजनों के आंसुओं को कुछ हद तक रोका जा सके. इस मुद्दे पर विपक्ष अगर नीतीश सरकार को घेर रहा है,तो वो काफी हद तक अपनी जगह पर सही भी है. तकरीबन हर राज्य की सरकार अपनी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने के लिए हर साल विज्ञापन पर करोड़ों रुपया पानी की तरह बहाती है लेकिन जब बात किसी निर्दोष मजदूर के मारे जाने की हो, तो उसकी जान की कीमत वह महज़ दो लाख रुपये लगाती है. ये स्थिति सिर्फ चिंताजनक नहीं है बल्कि सरकार में बैठे लोगों की उस असलियत को भी उजागर करती है कि वे कितने संवेदन शून्य हो चुके हैं. ऐसे में, विपक्षी दल उस सरकार की आरती तो उतारेंगे नहीं.जाहिर है कि वे उसके प्रति अपना गुस्सा ही निकालेंगे.


लिहाज़ा, बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने मृतक मजदूरों के परिवारों को महज दो-दो लाख रुपये की अनुग्रह राशि देने के नीतीश सरकार के फैसले पर तंज कसा है, तो बिल्कुल सही किया है. तेजस्वी ने कहा, " मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बिहारी की जान की कीमत दो लाख रुपए लगा कर बिना कोई संवेदना प्रकट किए फिर सुषुप्त अवस्था में चले जाएंगे. सर्पदंश और ठनके से मौत पर बिहार सरकार 4 लाख का मुआवज़ा देती है लेकिन सरकार की नाकामी के कारण पलायन कर रोजी-रोटी के लिए बाहर गए बिहारी श्रमवीरों को आतंकवादियों द्वारा मारे जाने पर 2 लाख रुपए देती है. गजब. अन्याय के साथ विनाश ही नीतीश-भाजपा सरकार का मूल मंत्र है."


तेजस्वी की तरह ही एलजेपी नेता चिराग पासवान ने भी इस मसले पर नीतीश कुमार को आड़े हाथों लेते हुए उन्हें प्रदेश में बढ़ती हुई बेरोजगारी का दोषी ठहराया है.चिराग ने अपने ट्वीट में लिखा, " बिहार का बेटा कश्मीर में मारा जा रहा है. आजीविका कमाने गया था, मौत मिली. जहां सुरक्षा का खतरा है, वहां बिहार के लोगों को क्यों जाना पड़ा, क्योंकि बिहार में काम नहीं है. नीतीश कुमार से सवाल है- अगर बिहार में रोजगार होता तो क्या कश्मीर में आतंकियों की गोली का निशाना बनना पड़ता?"


दरअसल,तेजस्वी और चिराग दोनों ही युवा नेता हैं,जिनसे लोगों को बड़ी उम्मीद है कि वे आने वाले दिनों में बिहार की सियासी तस्वीर बदल सकते हैं.बेरोजगारी के कारण पलायन जैसे जनता से जुड़े अहम मसले पर जिस बेबाकी के साथ उन्होंने अपनी बात रखी है, वो उनके सियासी भविष्य को तो मजबूत करेगी. लेकिन सरकार के खिलाफ अब ये एक बड़ा मुद्दा बनता दिख रहा है,जिससे निपटने के लिए सीएम नीतीश कुमार को जमीन पर कुछ करके दिखाना होगा.


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