शिवसेना के दो गुटों की लड़ाई में आखिर इतना 'लाचार' क्यों बन गया चुनाव आयोग?
हमारे देश के गांवों-कस्बों में पिछले कई बरसों से चली आ रही दो कहावतें आज भी जिंदा है. पहली ये कि न तो खेलेंगे और न ही खेलने देंगे और दूसरी कि न तो खाएंगे और न ही खाने देंगे लेकिन कोई सोच भी नहीं सकता था कि हमारे देश का चुनाव आयोग इन दोनों कहावतों को अपनाते हुए अंपायर की ऐसी भूमिका निभाएगा कि सियासी पिच पर खेल रही एक ही पार्टी की दोनों टीमों को एक उंगली उठाकर मैदान से बाहर कर देगा.
मुंबई के अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस और कुछ अन्य मराठी भाषा के पत्र-पत्रिकाओं में कार्टून बनाकर अपनी शोहरत कमाने वाले बाला साहेब ठाकरे को अचानक ये जुनून सवार हुआ था कि एक ऐसी राजनीतिक पार्टी बनाई जाए जिसका एकमात्र मकसद हिंदुओं को जाग्रत करने और हिंदुत्व की रक्षा करने से जुड़ा हो. उस जमाने के लोग बताते हैं कि 19 जून 1966 को मुंबई में जब बाल ठाकरे ने शिवसेना की स्थापना की थी तो कांग्रेस के अलावा और कई तरफ से भी उनका मज़ाक बनाया गया था. लेकिन शायद ये कोई नहीं जानता था कि महज एक दशक के भीतर ही उन्होंने इसे इतना ताकतवर बना डाला कि बाल ठाकरे की एक आवाज पर ही मुंबई के तमाम कारखानों की चिमनियां बुझ जाया करती थीं. एयरपोर्ट से लेकर रेलवे स्टेशनों व बेस्ट की बसों के कामगार चंद मिनटों में मुंबई की धड़कन रोक दिया करते थे. मुंबई समेत महाराष्ट्र ने भी उस जलवे को आखिरी वक्त तक देखा.
बाल ठाकरे ने अपनी पार्टी का प्रतीक चिन्ह बाघ रखा हुआ था जिसे दुश्मन पर त्वरित हमला करने की निशानी माना जाता है. वे अपनी आखिरी सांस तक जिस कुर्सी पर बैठे उसके आसन और पिछले हिस्से पर भी दहाड़ते हुए बाघ की तस्वीर को सब ने देखा है. ये कहने में जरा भी गुरेज नहीं है कि पहले जनसंघ और फिर साल 1980 में बनी बीजेपी को हिंदुत्व की घुट्टी पिलाने और उसके जरिए सत्ता पाने का रास्ता दिखाने वाले बाल ठाकरे ही इकलौते शख्स थे. क्योंकि उस वक्त तक पूरे देश में शिवसेना एक कट्टर हिन्दू राष्ट्रवादी दल के रूप में अपनी पहचान बना चुकी थी. इसलिये ताज्जुब होता है कि 42 साल पहले बनी बीजेपी में जब एक 22 साल का समर्थक/कार्यकर्ता हिंदुत्व के नाम पर आज सब कुछ करने के लिए तैयार बैठा है जिसे उसकी असली परिभाषा तक नहीं पता कि इस कट्टर हिंदुत्व की शुरुआत करने वाला कौन था."
अब बात करते हैं, शिवसेना के उस 'धनुष और तीर' के चुनाव चिन्ह को लेकर जो उसे रजिस्टर्ड होने के वक्त से मिला हुआ है लेकिन अब दो फाड़ हो चुकी शिवसेना के इस पर हक जमाने की ये लड़ाई चुनाव आयोग तक तो आनी ही थी सो आ भी गई. अब चुनाव आयोग की कमान टी.एन.शेषन जैसे बेख़ौफ़ अफसर के हाथ में तो है नहीं जो सारे दस्तावेजी सबूत देखकर चंद घंटों में ही ऐलान कर देते कि इस चुनाव चिन्ह को पाने का असली हकदार कौन है.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और ठाकरे गुट में जारी खींचतान के बीच चुनाव आयोग ने बड़ा आदेश देकर एक तरह से अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की कोशिश की है. आयोग ने शनिवार को कहा कि मुंबई में अंधेरी पूर्व सीट पर 3 नवंबर को होने वाले उपचुनाव में दोनों समूहों में से किसी को भी शिवसेना (Shiv Sena) के लिए आरक्षित 'धनुष और तीर' के चुनाव चिन्ह का उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जाएगी.
एक तरह से चुनाव आयोग ने शिवसेना के इस अधिकृत चुनाव चिन्ह को फिलहाल सील कर दिया है या कहें कि जब्त कर लिया है जो उसके अधिकार-क्षेत्र में आता है. आयोग ने दोनों गुटों को इन उपचुनावों के लिए चुनाव आयोग द्वारा अधिसूचित मुक्त प्रतीकों की सूची में से अलग-अलग चुनाव चिन्ह चुनने को कहा है. उद्धव और शिंदे गुट, दोनों को ही केंद्रीय चुनाव आयोग को 10 अक्टूबर तक नए चुनाव चिन्ह और अपने दल के नाम के बारे में बताना है जिनको वह इस अंतरिम आदेश के लागू रहने तक अपनाना चाहते हैं.
लेकिन सवाल ये उठता है कि दोनों पक्षों की तरफ से पेश किए गए दस्तावेजी सबूतों के आधार पर हमारा चुनाव आयोग कोई अंतिम फैसला लेने में इतना पंगु क्यों बन जाता है? उसे अपने सामने आए तथ्यों व सबूतों के आधार पर निष्पक्ष फैसला लेने के लिए आखिर कौन-सी ताकत रोकती है? दोनों गुटों को अलग-अलग चुनाव-चिन्ह चुनने का फैसला देकर आयोग ने अपनी जिम्मेदारी से बचने के साथ ही ये संकेत भी दिया है कि वो संविधान के मुताबिक अपनी मर्जी से फैसले लेने की लिए भी लाचार बन चुका है.
जाहिर है कि ऐसे मामले से ही उसकी निष्पक्षता, पारदर्शिता और राजनीतिक दबाव में काम करने के आरोप लगते हैं. लेकिन ऐसे आरोपों पर मीडिया के सामने कोई ठोस जवाब देने की बजाय मुख्य चुनाव आयुक्त ऐसे कन्नी काट जाते हैं मानो वे एक संवैधानिक, स्वतंत्र निकाय के प्रमुख होने की बजाय सरकार के अदने-से कारिंदे हों.
संविधान के निर्माताओं ने लोकतंत्र के चार स्तंभ जब बनाये थे तो उसमें पत्रकारिता यानी मीडिया को आखिरी पायदान पर इसलिये रखा था कि पहले तीन स्तंभों यानी-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में कुछ गड़बड़ होती है या फिर इनसे आम लोगों की तकलीफ़ दूर नहीं होती है तो पत्रकारिता उसे निष्पक्ष व निर्भीक तरीके से देश के सामने रखेगी लेकिन ये भी कि ऐसा कोई भी समाचार पूर्वग्रह से प्रेरित यानी पक्षपातपूर्ण न हो.
मुझे याद है कि टी.एन. शेषन जब मुख्य निर्वाचन आयुक्त होते थे तो वो अपना कोई भी कड़ा फैसला लेने के बाद सबसे पहले पहले मीडिया को बुलाकर उसका ऐलान कर देते थे ताकि उस पर सरकार या विपक्षी दलों को नुक्ताचीनी करने की कोई गुंजाइश ही न बचे. सवाल उठता है कि आज हमारा चुनाव आयोग वैसे ही सीना तानकर फैसले लेने से आखिर घबराता क्यों है?
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