जिन विनायक दामोदर सावरकर यानी वीर सावरकर को लेकर आज देश की राजनीति में इतना उबाल आया हुआ है, उनके बारे में शायद कम लोग ही ये जानते होंगे कि वे गुलामी के दौर में पहले ऐसे भारतीय राजनीतिक कैदी थे जिन्होंने एक अछूत को मंदिर का पुजारी बनाया था. इसलिए आज जो कोई भी अपने तर्क के जरिए ये साबित करने की कोशिश में लगे हैं कि वे सिर्फ हिंदुओं के ही नायक थे, तो उनकी ये सोच तार्किक और ऐतिहासिक दस्तावेजों के लिहाज से सच की कसौटी पर तो खरी उतरती नहीं दिखती.
सावरकर के पूरे जीवन को उनकी लिखी किताबों के जरिए ही समझा जा सकता है और उसे पढ़ने के बाद हर कोई इसी नतीजे पर पहुंचेगा कि वे किसी एक धर्म, जाति या समुदाय की आवाज उठाने वाले क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि वे सबके थे, यानी उस दौर में वे हर भारतीय के हीरो थे.
जो लोग उन्हें हिंदुत्व का सबसे बड़ा पैरोकार मानते हुए उन्हें आरएसएस की विचारधारा से जोड़ने का आरोप लगाते हुए तमाम दावे कर रहें हैं, तो उन्हें सावरकर की एक पुस्तक को अवश्य ही बड़े गौर से पढ़ना चाहिए. उन्होंने अपनी पुस्तक 'हिन्दुत्व' के पृष्ठ 81 पर लिखा है कि "कोई भी व्यक्ति बगैर वेद में विश्वास किए भी सच्चा हिन्दू हो सकता है. केवल जातीय संबंध या पहचान हिन्दुत्व को परिभाषित नहीं कर सकती है बल्कि किसी भी राष्ट्र की पहचान के तीन आधार होते हैं- भौगोलिक एकता, जातीय गुण और साझा संस्कृति."
दरअसल, इस दुनिया से विदा होने के 55 साल बाद भी अगर आज सावरकर फिर से इस देश की राजनीति का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र-बिंदु बन गए हैं, तो उसके कई कारण हैं. लेकिन उसमें भी सबसे बड़ी वजह जो रही, उसे लेकर आज भी ये सवाल उठ रहा है कि देश को आजादी मिलने के बाद क्या एक सोची-समझी रणनीति के तहत सावरकर को बदनाम करने और उनके खिलाफ नफरत की भावना फैलाने की साजिश रची गई थी? क्या इसके लिए ऐसे इतिहासकारों का इस्तेमाल किया गया, जो कम्युनिस्ट व फासीवादी विचारधारा से प्रेरित थे और जिनका मकसद था कि सावरकर को एक ऐसे खलनायक के रुप में पेश किया जाए, ताकि आने वाली पीढ़ियां इस इतिहास को पढ़ने के बाद उनसे नफरत करने लगें? ये सवाल भले ही सियासी हैं लेकिन मामला इतिहास से जुड़ा हो और यदि वह प्रमाणित हो जाए कि उसे जानबूझकर गलत तरीके से लिखा गया है, तो उसे दुरुस्त करना एक मुल्क व उसके समाज की जिम्मेदारी बन जाती है, जिसके लिए इतनी हाय तौबा मचाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता.
हालांकि इस सच को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि सावरकर का इतिहास लिखने में किसने, किस मकसद से कितनी गलतियां की हैं. इसे नापने के लिए आज कोई पैमाना मौजूद नहीं है क्योंकि न तो सावरकर हमारे बीच में हैं और न ही उनके समकालीन साथी, जो ये बता सकें कि झूठ आखिर कौन बोल रहा है. लिहाजा, कांग्रेस समेत वामपंथी विचारधारा से जुड़े तमाम लोगों का आरोप है कि मोदी सरकार इतिहास से छेड़छाड़ कर रही है और वो अपनी विचारधारा के मुताबिक एक नया इतिहास लिखवा रही है, जो देश के सेक्युलर ढांचे के लिहाज से बेहद खतरनाक है. संघ और बीजेपी ने इसे ये कहते हुए सिरे से नकार दिया है कि किसी दुर्भावना से लिखे गए गलत इतिहास का सच अगर सामने आता है, तो उसमें किसी को भी ऐतराज भला क्यों होना चाहिए.
सावरकर की नए सिरे से लिखी गई जीवनी की जिस पुस्तक को लेकर इन दिनों राजनीति गरमाई हुई है, उसे इतिहासकार डॉ विक्रम संपत ने लिखा है जिन्होंने उनके बारे में कई ऐसे दावे पेश किए हैं, जो उनके आलोचकों को जरा भी रास नहीं आ रहे हैं. डॉ संपत ने अपनी किताब 'सावरकर' में लिखा है, '1920 में जब सावरकर जेल में बंद थे, तब गांधी जी ने उन्हें दया याचिका दायर करने की सलाह दी थी. यही नहीं, दया याचिका के लिए केस भी खुद गांधी जी ने तैयार किया था.' संपत ने किताब में आगे लिखा है कि गांधी जी ने 26 मई 1920 को यंग इंडिया में 'सावरकर बंधु' नाम से एक लेख भी प्रकाशित किया था जिसमें सावरकर के केस से जुड़े मुद्दे लिखे थे. इसी पुस्तक का विमोचन करते हुए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि "वीर सावरकर को लेकर कई तरह के झूठ फैलाए गए. कहा गया कि उन्होंने अंग्रेजों के सामने कई बार दया याचिका दायर की थी, जबकि हकीकत ये है कि वीर सावरकर ने गांधी जी के कहने पर ही सबकुछ किया था." उन्होंने ये भी कहा, "वीर सावरकर बड़े स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने हमेशा राष्ट्र के लिए काम किया लेकिन कम्यूनिस्ट और फासीवादी विचारधारा के इतिहासकारों ने उन्हें बदनाम करने की हर संभव कोशिश की. सावरकर के प्रति देश में नफरत फैलायी."
राजनाथ के इस बयान के बाद ही मौजूदा राजनीति में ऐसा उबाल आया, जो फिलहाल तो ठंडा पड़ता नहीं दिखता. लेकिन ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ बगावत का परचम उठाने वाले सावरकर की विचारधारा और उनके संघर्ष को समझने के लिए हमें इतिहास के उन पन्नों को खंगालना पड़ेगा, जिनके बारे में काफी हद तक प्रामाणिक होने का दावा किया जाता रहा है. उसके मुताबिक वे भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के केंद्र लंदन में ही उसके विरुद्ध क्रांतिकारी आंदोलन को संगठित किया और साल 1906 में 'स्वदेशी' का नारा देकर सबसे पहले विदेशी कपड़ों की होली जलाई. इतिहास में उनके नाम का जिक्र इसलिए भी है कि वे गुलाम भारत के पहले ऐसे व्यक्ति रहे, जिन्हें अपने विचारों के कारण बैरिस्टर की डिग्री खोनी पड़ी. लेकिन साल 1857 की लड़ाई को 'भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम' बताते हुए 1907 में लगभग एक हज़ार पृष्ठों का इतिहास लिखने का श्रेय भी सावरकर को ही दिया जाता है.
इतिहास तो ये भी बताता है कि वे भारत के पहले और दुनिया के एकमात्र ऐसे लेखक थे जिनकी पुस्तक को प्रकाशित होने के पहले ही ब्रिटिश साम्राज्य की सरकारों ने प्रतिबंधित कर दिया था. उन्हें दुनिया का पहला ऐसा राजनीतिक कैदी बताया गया है, जिनका मामला हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में चला था. उन पर लिखा गया इतिहास तो ये भी दावा करता है कि सावरकर ने ही वह पहला भारतीय झंडा बनाया था, जिसे जर्मनी में 1907 की अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम कामा ने फहराया था.
अगर आज गांधी बनाम सावरकर की जो बहस छिड़ी है, तो वो भी यूं ही नहीं है. जाहिर है कि इसका भी कोई इतिहास जरूर रहा होगा, जिसके सहारे ये दावा किया जा रहा है कि उन्होंने गांधी के कहने पर ही अंग्रेजों के आगे दया याचिका दायर कर माफी की गुहार लगाई थी. तो सवाल उठता है कि क्या गांधी नहीं चाहते थे कि देश में सावरकर की लोकप्रियता और स्वीकार्यता उनके बराबर हो जाए? कुछ हद तक इतिहास के पन्ने इस सवाल का भी जवाब देते हैं. उस जमाने में लिखे गए इतिहाकारों की मानें, तो गांधी और सावरकर के रिश्ते कभी भी मधुर नहीं रहे. बल्कि सावरकर को महात्मा गांधी का कटु आलोचक बताया गया है.इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि अंग्रेजों द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जर्मनी के विरुद्ध जो हिंसा की गई, उसे गांधीजी ने समर्थन दिया था. तब सावरकर ने सार्वजनिक रूप से गांधी के इस कदम का विरोध करते हुए उसे एक 'पाखंड' करार दिया था.
हालांकि उनके आलोचक कहते हैं कि वीर सावरकर की छवि को उस समय बहुत धक्का लगा जब 1949 में गांधी हत्याकांड में शामिल होने के आरोप में आठ लोगों के साथ उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया. हालांकि, ठोस सबूतों के अभाव में वो बरी हो गए. सावरकर इस मामले में जेल गए, फिर छूटे और 1966 तक जिंदा रहे. लेकिन उनके जीवन काल में ही उस हत्याकांड की जांच के लिए कपूर आयोग बनाया गया था और उसकी रिपोर्ट में शक की सुई सावरकर से हटी नहीं थी. यह आरोप उनके व्यक्तित्व से जुड़ा रहा. कपूर कमिशन की रिपोर्ट में कहा गया कि 'उन्हें इस बात का यकीन नहीं है कि सावरकर की जानकारी के बिना गांधी हत्याकांड हो सकता था.'
हालांकि कड़वा सच ये भी है कि किसी भी जांच आयोग की रिपोर्ट अदालत के फैसले से बड़ी नहीं होती लेकिन सावरकर के आलोचकों को आज भी वो फैसला हजम नहीं हो पा रहा है. इसलिए कह सकते हैं कि जब तक इतिहास रहेगा, तब तक गांधी की तरह उनके नाम पर भी सियासत गरमाने का सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा.
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