हमारे देश की राजनीति में डॉ.  राम मनोहर लोहिया को प्रतिरोध और असंतोष की सबसे बड़ी आवाज़ के रूप में आज भी जाना-पहचाना और याद भी रखा जाता है. नारीवाद को लेकर आज से 60 बरस पहले जो उन्होंने लिखा,उसकी बात आगे करेंगे लेकिन फिलहाल बड़ा मुद्दा ये है कि लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाकर उसे 21 साल करने के फैसले का जो लोग विरोध कर रहे हैं,उनमें से दो सांसद उसी समाजवादी पार्टी से हैं,जिसके कर्ताधर्ता मुलायम सिंह यादव ने अपनी जवानी में उन्हीं लोहिया के चरणों में बैठकर ही राजनीति के गुर सीखे थे. उम्र के लिहाज़ से मुलायम ने तो पार्टी की बागडोर पहले ही बेटे के हाथ में सौंप दी लेकिन उनकी विरासत को आगे ले जाने वाले अखिलेश यादव भी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रहे है कि वे अपने इन दो सांसदों की बेलगाम होती जुबान पर कोई लगाम कस सकें.


इस बारे में मोदी सरकार द्वारा अगले हफ्ते संसद में लाये जाने विधेयक को दोनों सदनों से पारित कराये जाने के बाद उसे कानून की शक्ल देने का विरोध विपक्षी दलों के उन सांसदों की तरफ से नही हुआ है,जो बहुसंख्यक कहलाते हैं. हैरानी की बात ये है कि इसकी मुखालफत करने वाले दोनों सांसद मुस्लिम समुदाय से हैं और उनका साथ देने के लिए हैदराबाद के वे असदुद्दीन ओवैसी भी कूद पड़े हैं,जिन्हें संसद के भीतर और बाहर भी बेहद शिक्षित,शालीन,सभ्य और उदारवादी विचारधारा रखने वाला सांसद समझा जाता है. लिहाज़ा,ये सवाल उठना लाज़िमी है कि मुस्लिम समुदाय के ये तीनों स्वघोषित रहनुमा आखिर अपनी बहन-बेटियों को मिलने वाली इस तीन साल की आज़ादी के खिलाफ परचम क्यों लहरा रहे हैं? सवाल ये भी है कि हमारे मुस्लिम समुदाय में पैदा हुईं लड़कियों को उनकी मर्जी और उम्र के मुताबिक शादी करने का हक़ क्यों नहीं मिलना चाहिए. पवित्र कुरान या हदीस में कहीं भी ये नही लिखा है कि आपको अपनी बेटी की शादी 16-18 साल में ही करना जरुरी है,वरना जहन्नुम में जाओगे. लेकिन ये सियासत है,जो अपना हर रंग दिखाने से बाज़ नही आती और सिर पर अगर उत्तरप्रदेश के चुनाव हों,तो इसी एक मसले के जरिये मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण करने में भी आसानी हो जाती है. लेकिन दिल्ली में बैठे समझदार मुस्लिम विश्लेषक इसे मोदी सरकार का एक क्रांतिकारी फैसला बताते हुए कहते हैं कि "इससे समाज के उस तबके में बदलाव आने की शुरुआत होगी,जो आज भी बेटियों को एक बोझ मानते हुए उसे जल्द से जल्द डोली में विदा करने की चाहत रखता है.


अब उसे ये भी पता लगा जाएगा कि तीन साल पहले जिसके निकाह का सोच रहा था,वही बेटी इन तीन सालों में कितनी 'कमाऊपूत' बन गई है." हो सकता है कि हमारे मुस्लिम नेताओं-मित्रों को इस सवाल पर ऐतराज हो लेकिन ये पूछना भी वक़्त की जरूरत ही कहेंगे  कि आखिर वो इस आधुनिक और बदलते हुए भारत की तस्वीर का रंग भरने में अभी भी अपनी बेटियों -बहनों को इतना पीछे किसलिये छोड़ना चाहने है? जाहिर है कि ऐसी सोच रखने वाले कुछ नेता अगले हफ्ते जब संसद के दोनों सदनों में ये बिल लाया जाएगा,तब भी वे इसका विरोध ही करेंगे.  लेकिन शायद तब वे अपने समुदाय की उन लड़कियों का वो खिलखिलाता चेहरा देखने की जुर्रत नहीं कर पाएंगे,नो सिर्फ यूपी में ही नहीं बल्कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक देखने को मिलेगा.


अब बात करते हैं,उन डॉ.  राम मनोहर लोहिया की जो लोकसभा के सांसद भले ही 1963 में बने लेकिन उससे पहले और उसके बाद भी उन्होंने किसी भी सरकार को उसकी गलत नीतियों के खिलाफ उसे कटघरे में खड़ा करने में कोई कोताही नही बरती. उन्होंने छह  दशक पहले नारीवाद को लेकर जो कुछ लिखा-कहा,वो आज भी उतना ही सामयिक है. उन्होंने 'द्रौपदी और सावित्री" शीर्षक से जो लेख लिखा था, उसे आज भी इसलिये याद किया जाता है क्योंकि उसमें लोहिया ने कहा था कि  "महिलाएं अपनी गरिमा और आज़ादी चाहती हैं, तथाकथित नैतिकता या देवी का दर्जा नहीं. '"सिर्फ सियासत नहीं बल्कि सरकार चलाने और उसके लिए जाने वाले फैसलों की बारीकियां जो लोग समझते हैं,वे जानते हैं कि कई बार इतिहास की उन अच्छाइयों को अपनाने और उस पर आगे बढ़ने से हो समाज-देश का भला हो सकता है. लिहाज़ा,ये कहना गलत  नहीं होगा कि इस मायने में मोदी सरकार ने लोहिया के विचारों पर अपनी मुहर लगाते हुए उसे अमली जामा पहनाने की तरफ एक प्रगतिशील कदम उठाया है.


दरअसल,लोहिया ने उस जमाने मे ही नारीवाद की बहस को पौराणिक संदर्भ देते हुए कहा था कि सावित्री और सीता को आदर्श स्त्री और पौराणिक व्यक्तित्व के रूप में व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है. लेकिन उन्होंने 'आदर्श नारीत्व' की उस अवधारणा को स्वीकार करने से इनकार कर दिया जो पतिव्रत धर्म के इर्द-गिर्द घूमती थी. वे द्रौपदी को नारीत्व का सबसे शक्तिशाली प्रतीक मानते थे जिनके पास तेज बुद्धि थी और अपने मन की बात कहने का साहस भी था. इसीलिये लोहिया ने कृष्ण के अपवाद के साथ यह भी कहा कि "द्रौपदी शायद इतिहास की एकमात्र महिला है जो अपने समय के सभी पुरुषों की तुलना में सबसे अधिक समझदार थीं". डॉ.  लोहिया ने ये भी कहा था कि महिलाओं के सशक्तीकरण के बिना सामाजिक समृद्धि संभव नहीं है.


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