Jharkhand Namaz room Controversy: झारखंड विधानसभा के नए भवन में नमाज़ पढ़ने के लिए अलग से एक कमरा देने पर जो बवाल मचा है, वह बताता है कि राजनीति में धर्म की जड़ें किस हद तक गहरी हो चुकी हैं. सवाल उठता है कि जब अल्पसंख्यक समुदाय को कोई खास सुविधा दी जायेगी, तो फिर भला बहुसंख्यक वर्ग क्यों पीछे रहेगा? उसके लिए तो यह धार्मिक सहिष्णुता से ज्यादा अपनी नाक ऊंची रखने और उसके जरिये अपनी सियासत चमकाने का मसला भी है.


यही कारण है कि रांची में सदन से लेकर सड़क तक बीजेपी इसका विरोध कर रही है और उसकी मांग है कि अब हनुमान चालीसा का पाठ करने के लिए भी अलग से एक कमरा दिया जाये. इस मांग को गैर वाजिब इसलिये भी नहीं कहा जा सकता कि संसद और राज्यों की विधानसभाओं में धर्म के आधार पर  अक्सर ऐसा भेदभाव करने की कोई परंपरा नहीं है.


चूंकि कमरा आवंटन का आदेश विधानसभा अध्यक्ष रविंद्रनाथ महतो ने दिया है, लिहाज़ा वे इसे पूरी तरह से उचित ठहराते हुए कहते हैं कि, "जिस तरह का प्रचार किया जा रहा है, वैसा नहीं है. पुराने विधानसभा भवन में भी मुस्लिम विधायकों और कर्मचारियों के लिए एक कमरा आवंटित किया गया था. ख़ासकर विधानसभा के मुस्लिम कर्मचारियों के लिए. चूंकि नमाज अता करना उनकी दिनचर्या का हिस्सा है, इसलिए नये भवन में भी उन्होंने अपने लिए एक ख़ाली जगह की मांग की, जहां वह शांति से नमाज़ पढ़ सकें. विशेषतौर से शुक्रवार के दिन. इसी को ध्यान में रखते हुए उन्हें एक कमरा आवंटित किया गया है. इससे ज़्यादा कुछ नहीं है. यह समझ से बाहर है कि आखिर इस पर इतना विवाद क्यों खड़ा किया गया."


ये आदेश जारी होने और बीजेपी विधायकों के हंगामा करने के बाद पत्रकारों ने विधानसभा अध्यक्ष से पूछा था कि क्या हिंदू विधायकों व कर्मचारियों के लिए भी कोई ऐसी व्यवस्था करेंगे? इसके जवाब में महतो ने कहा था कि, "मेरे लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के विधायक बराबर हैं. अगर विपक्ष इसकी मांग करता है और वे मेरे सामने प्रस्ताव लेकर आते हैं, तो हम इसको आनेवाले समय में देखेंगे. अभी इस पर चर्चा करने की कोई ज़रूरत नहीं है." मतलब साफ है कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन सरकार बीजेपी की इस मांग को पूरा करने के लिए फिलहाल तैयार नहीं दिखती. वैसे भी विधानसभा का सत्र 9 सितंबर तक ही था.


सत्र भले ही ख़त्म हो गया है लेकिन मुख्य विपक्षी बीजेपी को सरकार ने एक ऐसा मुद्दा दे दिया है,जो आने वाले दिनों में दो वर्गों के बीच नफ़रत की दीवार को और ज्यादा मजबूत ही करेगा. नेता प्रतिपक्ष बाबूलाल मरांडी ने भी इसका विरोध करते हुए ट्वीट किया,"विधानसभा लोकतंत्र का वह मंदिर है, जिसे किसी धर्म या पंथ की परिधि में समेट कर नहीं रखा जा सकता. लेकिन झारखंड विधानसभा में किसी वर्ग विशेष के लिए नमाज कक्ष का आवंटन किया जाना, न केवल एक गलत परंपरा की शुरुआत है बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों के भी विपरीत है.


जानकारी के मुताबिक़ झारखंड के पुराने विधानसभा भवन के परिसर में भी दो मंदिर हैं. यही कारण है कि अब बीजेपी नये परिसर में भी हनुमान मंदिर बनाने पर अड़ गई है. बीजेपी विधायक और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सीपी सिंह कहते हैं, "इबादत करने का सबको अधिकार है, लेकिन ये सरकार तुष्टीकरण कर रही है. पुराने विधानसभा में नया मंदिर नहीं बना था. वो पहले से था. तो क्या उसे तोड़कर हटा दिया जाता? हम तो कहते हैं कि नए विधानसभा में हनुमान जी का मंदिर बना देना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता है तो आंदोलन तय है." उन्होंने यह भी कहा कि "बहुसंख्यक अपना बड़ा दिल दिखाते रहे और इधर मुस्लिम विधायक तालिबान का समर्थन करते रहें, ऐसा नहीं चलेगा."


हालांकि झारखंड विधानसभा के पहले अध्यक्ष इंदर सिंह नामधारी इस आदेश में कुछ भी अजीब या ग़लत नहीं मानते हैं. वे कहते हैं,"बिहार विधानसभा में दशकों से ये परंपरा चली आ रही है. वहां भी कर्मचारियों और विधायकों ने कहा था कि हमें नमाज़ पढ़ने के लिए बाहर जाना पड़ता है. ऐसे में सत्र के समय निर्धारित समय पर लौटने में परेशानी होती है. वहां कई बार बीजेपी की सरकार आई, लेकिन उस परंपरा को बंद नहीं किया गया. लिहाज़ा झारखंड में भी वही समस्या और मांग स्पीकर के सामने रखी गई, जिसे उन्होंने मान लिया. उन्होंने एक अलग जगह दे दी. मैं स्पीकर के इस फैसले को केवल धार्मिक सहिष्णुता व मानवता के तौर पर देखता हूँ.अगर मेरे समय में भी इसकी मांग होती तो मैं भी देता."


अब अगर किसी दबाव में वहां मंदिर बनाने की अनुमति दी जाती है कि तो कल से ईसाई विधायक चर्च के लिए और आदिवासी विधायक अपने लिए अलग मंदिर बनाने की मांग करेंगे. लेकिन मजे की बात ये है कि बीजेपी के आदिवासी नेता भी इस व्यवस्था का विरोध कर रहे हैं. बीजेपी के आदिवासी विधायक नीलकंठ सिंह मुंडा कहते हैं, "हम भी सरना आदिवासी हैं, हम भी कहेंगे कि हमारे लिए भी विधानसभा परिसर में सरना स्थल बनाया जाए. नमाज़ अदा करने देना चाहिए था, इसके लिए अलग से आदेश निकालने की क्या ज़रूरत थी." लेकिन बड़ा सवाल तो ये है कि लोकतंत्र के मंदिर को किसी भी तरह की धार्मिक पहचान देने की जरुरत ही आखिर क्या है? 



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