फारुक अब्दुल्ला आखिर क्यों चाहते हैं मोदी सरकार बनाये तालिबान से रिश्ता?
Farooq Abdullah on Taliban: दुनिया के सबसे बड़े मंच से अफगानिस्तान का नाम लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगर समूचे विश्व को आतंकवाद के बढ़ते हुए खतरे के प्रति चेताया है,तो इसके बेहद गहरे मायने हैं और आने वाले खतरों का संकेत भी है.लेकिन हैरानी की बात ये है कि संयुक्त राष्ट्र की महासभा में मोदी के भाषण देने से ऐन पहले जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला ने केंद्र सरकार को ऐसी सलाह दे डाली,जिसे मानने का सीधा-सा मतलब है, आतंकवाद के आगे घुटने टेकना.
भारतीय राजनीति में फारुक अब्दुल्ला को एक परिपक्व नेता माना जाता है और ये भी समझा जाता है कि वे कश्मीर के दूसरे नेताओं की तरह पाकिस्तान के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली नहीं हैं.लेकिन शानिवार को दिए गए उनके बयान ने इस धारणा को पहली नज़र में तो गलत ही साबित कर दिया है.फारूक अब्दुल्ला ने जो बातें कही हैं,उसकी हक़ीक़त को मोदी सरकार से बेहतर भला कौन जान सकता है.लेकिन सवाल उनके इस बयान देने की टाइमिंग को लेकर उठ रहे हैं.
आखिर उन्होंने तालिबान की सरकार से हमदर्दी जताने वाली ऐसी बात तभी क्यों उठाई ,जबकि दुनिया की सबसे बड़ी पंचायत के सामने पीएम मोदी ने कहा कि "हमें ये सुनिश्चित करना होगा कि अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल न तो आतंकवाद फैलाने के लिए किया जाना चाहिए और न ही आतंकी हमलों के लिए."
दरअसल,फारुक अब्दुल्ला ने अपने इस बयान के जरिये सियासत की बिसात पर ऐसी चाल खेली है,जिससे वे भारत सरकार के प्रति भी अपनी वफ़ादारी निभाने की मुहर लगवा लें,तो वहीं तालिबानी सरकार की आँखों का तारा भी बना रहे.पहली नज़र में उनकी सलाह को गलत कहकर ठुकराया नहीं जा सकता लेकिन अगर बारीकी से गौर करें,तो घुमा फिराकर उनका असली मकसद ये है कि भारत किसी भी तरीके से तालिबानी सरकार को मान्यता दे दे,जो कि मौजूदा हालात में तो कतई मुमकिन नहीं लगता.
फारूक ने कहा है कि "अफगानिस्तान में तालिबान के पास सत्ता है. अफगानिस्तान में पिछली सरकार के दौरान भारत ने अलग अलग प्रोजेक्ट पर अरबों रुपये खर्च किए हैं. हमें वर्तमान अफगान शासन से बात करनी चाहिए. हमने उस देश में बहुत निवेश किया है, तो उनसे रिश्ते रखने में हर्ज़ क्या है?"
मोदी सरकार भी इस हक़ीक़त को जानती है कि 20 साल पुराने वाला तालिबान अगर अब भी नहीं बदला,तो हमारे अरबों रुपये का किया हुआ निवेश मिट्टी में मिल जायेगा.लेकिन इस सच्चाई से भला कौन इनकार कर सकता है कि जब सवाल अपने राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़ा हो और आतंकवाद से मुकाबला करना ही सबसे बड़ी प्राथमिकता हो,तब ऎसे निवेश को कुर्बान करने की परवाह सरकार कभी नहीं करेगी.
लिहाज़ा,सरकार ऐसी सलाह पर आगे बढ़ने से पहले एक नही,सौ बार सोचेगी. सरकार भी इस हक़ीक़त से वाकिफ है कि अगर तालिबान की पुरानी फ़ितरत नहीं बदलती,तो वो भारत के लिए एक बड़ा खतरा है.पाकिस्तान उन्हीं लड़ाकों के जरिये कश्मीर घाटी की फिज़ा में दोबारा ज़हर घोलने की तैयारी में लगा हुआ है.इसीलिये कल पीएम मोदी ने अपने भाषण में पाकिस्तान का नाम लिए बगैर उसे कुछ इसी अंदाज में आगाह किया कि जिनके खुद के घर शीशे के होते हैं,वे दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते.लेकिन ये भी सब जानते हैं कि इसके बावजूद पाकिस्तान अपनी करतूतों से बाज़ नहीं आने वाला है.
बेशक अमेरिका का अब अफगानिस्तान पर कोई कंट्रोल नहीं है लेकिन वो भी ये जानता है कि वो धरती ही कुछ ऎसी है,जो सिर्फ आतंकावाद को जन्म देती है और उन्हें ट्रेनिंग देने का काम पाकिस्तान करता है,तो हथियारों की सप्लाई से लेकर इफ़रात में पैसा देने का जिम्मा चीन ने संभाल रखा है.सो,तालिबान को पाक व चीन से मिल रहे खाद-पानी को लेकर वो बेपरवाह नहीं हुआ है.उसे भी अहसास है कि आतंक का खात्मा अभी पूरी तरह से नहीं हुआ है और ये फिर से अपना रंग दिखा सकता है.यही वजह रही की मोदी और बाइडेन की मुलाकात के बाद दोनों देशों ने साझा बयान जारी करके अफगानिस्तान में आतंकवाद से निपटने के महत्व पर विशेष जोर दिया है.
लेकिन जो लोग तालिबान की सरकार से बात करने और रिश्ते बनाने की वकालत कर रहे हैं,उन्हें ऐसी सलाह देने से पहले वहां के एक मंत्री के दिए गए बयान पर जरूर गौर करना चाहिये.
तालिबान शासन में धर्म का पालन सुनिश्चित कराने वाले मंत्रालय के प्रमुख रहे मुल्ला नूरूद्दीन तुराबी ने कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान में एक बार फिर अपराध के लिए मौत की सज़ा और हाथ-पैर काटने की सज़ा का प्रावधान रखा जाएगा.दो दशक पहले तालिबान की सरकार में किसी जुर्म के लिए कठोर सज़ा देने के लिए मशहूर रहे मुल्ला नूरूद्दीन फिलहाल अफ़ग़ानिस्तान की जेलों का दायित्व संभाल रहे हैं.यानी वे जेल मंत्री है.
उन्होंने एक विदेशी समाचार एजेंसी को बताया कि, "अगर ज़रूरी हुआ तो हाथ-पैर या शरीर के अंग काटने की सज़ा को फिर से लागू किया जाएगा." उन्होंने कहा कि 1990 के दशक की तालिबान सरकार के दौरान अपराधियों को इस तरह की सज़ा सार्वजनिक तौर पर दी जाती थी, लेकिन अब नई सरकार में फिलहाल इस पर विचार हो रहा है कि पुराने तरीके को ही बरकरार रखा जाये या फिर उसमें कोई बदलाव किया जाये. हालांकि उन्होंने तालिबान के शासन में कठोर सज़ा दिए जाने की आलोचना करने पर नाराज़गी भी जताई और कहा कि, "कोई हमें ये न बताए कि हमारे क़ानून क्या होने चाहिए."
उल्लेखनीय है कि 1990 के दशक में अफ़ग़ानिस्तान में अपराधियों को सार्वजनिक तौर पर ईदगाह मस्जिद के पास के मैदान में या फिर काबुल स्पोर्ट्स स्टेडियम में सज़ा दी जाती थी.
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