नोटबंदी का सपना बेचकर भी सरकार को क्यों नहीं है जमीनी हक़ीक़त की परवाह?
देश में हुई नोटबंदी को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद मैंने दुनिया के बहुत सारे मनोवैज्ञानिकों की स्टडी को पढ़कर ये पता लगाने की कोशिश करी कि आखिर ऐसा क्यों होता है कि सरकार का कोई एक फैसला करोड़ों लोगों के लिए मुसीबत बन जाता है लेकिन फिर भी लोग खामोश रहते हैं. ऐसा होने के पीछे आखिर क्या बड़ी वजह रहती होगी? उनकी स्टडी के नतीजे भारत के किसी मामले को लेकर तो हो ही नहीं सकते क्योंकि अब उनमें से सालों पहले से ही कोई भी इस दुनिया में नहीं है. लेकिन उनके निष्कर्ष भारत के मौजूदा हालात पर अगर सटीक बैठते हैं तो उसका कसूरवार मैं तो नहीं हो सकता.
दुनिया के अलग-अलग देशों के लोगों के दिमाग का अध्ययन करने वाले इन मनोवैज्ञानिकों के नतीजों को ठुकराने का हक हम सबको है लेकिन उन्होंने जो कहा है, पहले उस पर गौर करते हैं. वे कहते हैं कि "किसी भी देश के बादशाह का पहला मकसद अपनी प्रजा को अच्छे सपने दिखाना होता है और फिर उसे साकार करने के लिए वो जनता को मानसिक रूप से तैयार करता है और फिर अपना मकसद पूरा होते ही वो इसकी फिक्र नहीं करता है कि इससे उसकी प्रजा का कितना भला हुआ है. इसलिये संसार के तमाम बादशाह सपने बेचकर ही अब तक अपनी सल्तनत को बचाते आये हैं."
उनकी इस राय से इत्तिफाक रखने की किसी को मजबूरी भी नहीं है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले को जरा बारीकी से परखने की जरुरत है और उस पर सत्तारुढ़ पार्टी को भी जश्न मनाने की जरूरत इसलिये नहीं है कि शीर्ष अदालत ने नोटबंदी का फैसला लिए जाने की सरकार की कानूनी प्रक्रिया को ही जायज़ ठहराया है. इस नोटबंदी करने के पीछे सरकार ने जो दावे किये थे वो किस हद तक पूरे हुए भी या नहीं, इस पर कोर्ट ने सरकार को कोई क्लीन चिट नहीं दी है. और, यही वो अहम पहलू है, जहां कोर्ट ने देश की जनता को छुट्टा छोड़ दिया है कि वे अपनी सरकार से इस बारे में हर सवाल पूछकर उसे कटघरे में खड़ा कर सकते हैं.
लेकिन दिक्कत ये है कि पिछले कारीब दो दशक से तेज टीआरपी हासिल करने की होड़ में लगे मीडिया ने लोगों के इस बुनियादी अधिकार को ही छीन लिया है कि उन्हें हर अहम फैसले की पूरी जानकारी लेने का हक है. इसलिये, देश की जनता भी मीडिया के जरिये मिली आधी-अधूरी या अधकचरी जानकारी के आधार पर ही तय कर लेती है कि सरकार का कहा हर वाक्य परम सत्य है. लेकिन लोकतंत्र में चौथा स्तंभ कहलाने वाली पत्रकारिता के लिये भी ये खतरे की बड़ी घंटी इसलिये है कि समाज के प्रति अगर वो अपना फर्ज निष्पक्षता से नहीं निभाएगी, तो सरकार की नकेल तो उस पर कसेगी ही और तब यही जनता उसका साथ देने के लिए सड़कों पर नहीं उतरने वाली है. वैसे भी एक स्वस्थ व मजबूत लोकतंत्र में मीडिया को लोगों की सबसे मजबूत आवाज समझा जाता है और इसीलिये उसे एक निर्भीक व निष्पक्ष विपक्ष की भूमिका में भी देखा जाता है.
अब बात करते हैं कि 8 नवंबर 2016 को नोटबंदी के लिए फैसले का ऐलान करते हुए सरकार ने जो बड़े-बड़े दावे किये थे क्या वे सचमुच पूरे हो गये. नोटबंदी के फैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में दायर 58 याचिकाओं का जवाब देते हुए केंद्र सरकार की तरफ से यही तर्क दिया गया कि यह जाली करेंसी, टेरर फंडिंग, काले धन और कर चोरी जैसी समस्याओं से निपटने की प्लानिंग का हिस्सा और असरदार तरीका था. यह इकोनॉमिक पॉलिसीज में बदलाव से जुड़ी सीरीज का भी सबसे बड़ा कदम था.
लेकिन हकीकत ये है कि सरकार की उम्मीद से बेहद कम कालाधन ही बाहर आया लिहाजा वो मकसद तो अब भी पूरा नहीं हो पाया. नोटबंदी करते समय सरकार को उम्मीद थी कि नोटबंदी से कम से कम 3 से 4 लाख करोड़ रुपए का काला धन बाहर आ जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि तब बाजार के प्रचलन में जारी 15.41 लाख करोड़ रुपये में से 15.31 लाख करोड़ रुपये रिजर्व बैंक में वापस आ गए थे. सरकार का दूसरा व सबसे बड़ा दावा ये भी था कि इस कदम से जाली मुद्रा यानी नकली नोटों पर रोक लगेगी. लेकिन 2016 में जब्त की गई नकली मुद्रा की कीमत 15.92 करोड़ रुपये थी. तब से हर साल, रिजर्व बैंक ने नकली मुद्रा बरामदगी में औसतन 150% की सूचना दी है. नोटबंदी का एक अन्य लक्ष्य आतंकवाद की कमर तोड़ना भी था. लेकिन मिटना तो दूर, सरकार की अपनी स्वीकारोक्ति के अनुसार, यह घटना वास्तव में बढ़ रही है.
बाद में, सरकार का यह दावा भी झूठा साबित हुआ कि नकदी की जगह डिजिटल लेन-देन होगा. साल 2016 में प्रचलन में मुद्रा 16.4 लाख करोड़ रुपये थी, जो साल 2020 में बढ़कर 24.2 लाख करोड़ रुपये हो गई. बीते साल 15 अक्टूबर तक देश में 29 लाख करोड़ रुपए की करेंसी चलन में थी. इसलिये नकदी और काले धन का संबंध जोड़ना भी निराधार ही साबित हुआ. इसके अलावा गौर करने वाली बात ये भी है कि साल 2022 के अक्टूबर में आई एक रिपोर्ट में सामने आया कि नोटबंदी के समय जारी नए 500 और 2000 के नोटों में से अब 9.21 लाख करोड़ गायब हो गए हैं और इनका हिसाब RBI के पास नहीं है.
लोग शायद भूल गए होंगे लेकिन इस मामले को लेकर देश में एक बहस तब भी हुई थी, जब पता चला कि साल 2017-18 के दौरान 2000 के नोट सबसे ज्यादा चलन में रहे लेकिन इसके बाद अचानक गायब हो गए. फिर जानकारी आई कि RBI ने 2019 में इनकी छपाई ही बंद कर दी थी. एक संदिग्ध दावा यह भी था कि नोटबंदी के बाद से आयकर रिटर्न में बढ़ोतरी हुई है, जबकि डेटा का चयनात्मक उपयोग ऐसा आभास दे सकता है लेकिन टैक्स-टू-जीडीपी अनुपात इन दावों को झुठलाता है.
इसलिये सवाल ये नहीं है कि एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के नाते आप अपनी ही सरकार से ये सवाल पूछने की हिम्मत जुटा पाते हैं या नही कि इस नोटबंदी से आखिर क्या हासिल हुआ? लेकिन नवम्बर 2016 के उस दर्द को तो जरा याद कीजिये ,जब अपने ही 500 और 1000 रुपये के नोटों को बदलने और नये नोट पाने के लिए बैंकों के बाहर लगी लंबी लाइन में लगकर एक भिखारी होने का अहसास आपने भी किया था.
इसलिये दुनिया के तमाम बड़े मनोवैज्ञानिकों की इस थ्योरी को आप किस कसौटी पर ठुकरा सकते हैं कि एक चतुर बादशाह पहले सपने बुनता है,फिर दिखाता है और फिर उसे अपने मनमाफ़िक तरीके से बेचकर भी कामयाब बन जाता है?
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