देश का कोई भी राजनीतिक दल क्या महज़ एक व्यक्ति से बड़ा हो सकता है और ख़ासकर देश की 136 बरस पुरानी पार्टी कांग्रेस की बात करें,तो उसे चुनाव जीतने के लिए क्या अब एक शख्स के रहमोकरम पर निर्भर होना पड़ेगा? मंगलवार को राहुल गांधी समेत  कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने तो चैन की ही सांस ली होगी कि चुनावी रणनीति बनाने के जरिये अचानक देश के सियासी नक्शे पर छा जाने वाले प्रशांत किशोर यानी पीके ने कांग्रेस में शामिल होने के लिए अपनी 'ना' कहकर अच्छा ही किया.                  


पिछले एक हफ़्ते से अपनी स्लाइड्स के जरिये कांग्रेस नेताओं को अगला लोकसभा चुनाव जीताने का पाठ पढ़ाने वाले प्रशांत किशोर के प्रस्ताव को ठुकराकर कांग्रेस ने कुछ भी गलत नहीं किया है.उलटे, पार्टी नेतृत्व के इस फैसले से जमीनी स्तर पर काम कर रहे उन कार्यकर्ताओं में ये भरोसा जगा है कि हफ्ते भर पहले अपनी चुनावी रणनीति समझाने वाले एक शख्स को राष्ट्रीय नेता बनाकर उनके ऊपर थोपा नहीं गया है.


दरअसल, 2014 के लोकसभा चुनाव में पीएम मोदी के लिए और फिर नीतीश कुमार व ममता बनर्जी के लिए चुनावी रणनीति बनाने वाले प्रशांत किशोर को शायद ये गुमान हो गया था कि वो कांग्रेस से जो मांगेंगे,वह उन्हें तश्तरी में रखकर मिल जाएगा. कांग्रेस की सीटें भले ही कम है और वो सत्ता पाने की रेस में भी अभी काफी पीछे है लेकिन पीके के प्रस्ताव को न मानने का फैसला चाहे सोनिया का हो या राहुल गांधी का लेकिन पार्टी में इसकी तारीफ इसलिये भी हो रही है कि उन्होंने अपने पुराने नेताओं की वफ़ादारी को दरकिनार करके किसी नये व्यक्ति को 'आउटसोर्स' नहीं किया.


हालांकि, पीके के दिये सुझावों से गांधी परिवार खुश था और उनकी प्रेजेंटेशन देने के बाद ही सोनिया गांधी ने पार्टी नेताओं की एक कमेटी बनाकर उसे अपनी रिपोर्ट देने के लिए कहा था. पीके ने कांग्रेस को लोकसभा की कुल 543 में से सिर्फ 400 सीटों पर ही फोकस करने के लिये कहा था,जहां कांग्रेस का सीधा मुकाबला बीजेपी से है. संगठन और जन संवाद की रणनीति में बड़े बदलाव करने के साथ ही कुछ राज्यों में गठबंधन को लेकर भी उन्होंने कुछ नए प्रस्ताव दिए थे. उन्होंने अपनी करीब चार सौ स्लाइड्स के जरिये जो कुछ दिखाया,उसमें भी कांग्रेस को अपने लिए सब हरा-हरा ही नज़र आया. लेकिन पार्टी के आठ बड़े नेताओं की कमेटी ने सोनिया को अपनी जो रिपोर्ट सौंपी, उसमें साफ कह दिया कि उनकी प्रोफेशनल सेवाएं लेना तो ठीक है लेकिन उन्हें पार्टी में शामिल करना या कोई बड़ा पद देना 'बैक फायर' कर सकता है.


कांग्रेस के अंदरुनी सूत्रों की मानें, तो पीके ने प्रियंका, राहुल व पार्टी के अन्य नेताओं से मिलने के बाद जब आखरी मुलाकात सोनिया गांधी से की,तो उन्होंने खुद को पार्टी का उपाध्यक्ष या महासचिव  बनाने की पेशकश कर दी.बताते हैं कि साथ ही उन्होंने ये शर्त भी रख दी कि लोकसभा चुनाव की समूची रणनीति बनाने की कमान भी उन्हें सौंपी जाये. लेकिन सोनिया ने कोई भी आश्वासन देने से पहले साफ कह दिया कि पार्टी के बाकी वरिष्ठ नेताओं से मशविरा किये बगैर वे कोई फैसला नहीं ले सकतीं.आखिरकार सोनिया ने अपना फैसला भी सुना दिया कि वे चाहें तो पार्टी के empowerd actoin group के सदस्य बन सकते हैं लेकिन पार्टी उन्हें कोई और बड़ा पद देने को तैयार नहीं है.


सोचने वाली बात ये है कि जिस शख्स की लालसा पार्टी का बड़ा पद पाने की हो,उसे महज एक कमिटी का सदस्य बनाए जाने का प्रस्ताव भला कहाँ से रास आता. सो, बात तो टूटनी ही थी, सो टूट गई. अब ये अलग बात है कि कांग्रेस को इसका कितना नुकसान होगा या फायदा लेकिन पीके की कंपनी आइपैक अगर कांग्रेस के राजनीतिक प्रतिद्वंदी तेलंगाना के मुख्यमंत्री की  पार्टी  टीआरएस के लिए भी काम करती है,तो राजनीति में ऐसा कौन होगा, जो अपने दुश्मन के दोस्त को भी अपने कंधे पर बैठाकर खुद अपने लिए ही गड्ढा खोदेगा. कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं ने आगामी लोकसभा के चुनाव की पूरी कमान एक नए शख्स के हाथ में सौंपने का विरोध करके कुछ गलत नहीं किया बल्कि पार्टी की रही-सही साख को बचाने का ही काम किया है.


अकबर रोड के कांग्रेस मुख्यालय में कई नेता पिछले हफ़्ते भर से ये कयास लगा रहे थे कि पीके के कांग्रेस में आने से शायद पार्टी में नई जान आ जायेगी.लेकिन एके एंटनी,दिग्विजय सिंह,अशोक गहलोत और कमलनाथ जैसे नेताओं की भाषा से साफ इशारा मिल रहा था कि देश की सबसे पुरानी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को अपनी लुभावनी बातों के जाल में फंसाकर बड़ा पद हथिया लेना,उतना भी आसान नहीं है.और,वही हुआ भी.


राजनीतिक दलों के साथ एक बड़ी दिक्कत ये है कि वे खुद अपना ही इतिहास भूल जाते हैं.याद कीजिये लोकसभा के तीन चुनाव-1996,1998 और 1999 में बीजेपी ने क्या पीके जैसे किसी चुनावी रणनीतिकार की सेवाएं ली थीं.तब उस पार्टी के एकमात्र रणनीतिकार थे,प्रमोद महाजन जिन्होंने अपनी 'चाणक्य नीति' का इस्तेमाल करते हुए कॉर्पोरेट घरानों से जुड़े अपने रिश्तों का पूरा फायदा पार्टी को दिलवाया और लगातार तीन बार पार्टी को सत्ता दिलवाने में अपनी अहम भूमिका भी निभाई.


साल 2004 और 2009 में हुए लोकसभा चुनावों के वक़्त कांग्रेस के पास सबसे अहम रणनीतिकार थे अहमद पटेल. वे कहने को तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव/सलाहकार थे लेकिन पार्टी को दोनों बार सत्ता दिलवाने में पर्दे के पीछे से उन्होंने जो भूमिका निभाई, उनके उस कर्ज़ को न तो गांधी परिवार और न ही पूरी पार्टी भुला सकती है और न ही उसे उतार सकती है.आठ दिन पहले पार्टी से जुड़ने की ख्वाहिश रखने वाला एक शख्स बदले में बड़ा पद मांगता है.क्या उसकी तुलना आप उन अहमद पटेल से करेंगे? जिन्होंने 10 साल तक पार्टी की सरकार होने के बावजूद मंत्रीपद पाने की कोई लालसा नहीं रखी.


दरअसल, लगातार चुनाव हारने के बाद कांग्रेस की हालत कुछ वैसी ही हो गई है,जिस पर ये कहावत बिल्कुल फिट बैठती है कि,"घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध." यानी घर के सबसे क़ाबिल सदस्य की तो उपेक्षा करते रहो लेकिन बाहर से आये मूर्ख व्यक्ति को भी अपने सिर-आंखों पर बैठा लो. लिहाज़ा,कांग्रेस में पीके से कहीं ज्यादा समझदार,दिमागदार और वफादार नेताओं का फिलहाल तो अकाल नहीं ही पड़ा है.गांधी परिवार को आज जरुरत है,उनकी क्षमताओं को पहचानने और उन्हें आगे लाकर मौका देने की. लेकिन ये सियासत की वो घंटी है, जिसे बांधने के लिए परिवार की चापलूसी नहीं ,बल्कि हिम्मत दिखाने की जरुरत है लेकिन बड़ा सवाल है कि ये समझाने के लिए भी आखिर आगे कौन आयेगा?


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