बीजेपी के लिए दिल्ली आखिर 'दूर-अस्त' क्यों होती जा रही है?
दिल्ली नगर निगम के चुनाव नतीजों ने बीजेपी नेतृत्व को मंथन करने के लिये एक बड़ा सबक ये दिया है कि केंद्र से लेकर देश के कई राज्यों में अपना डंका बजाने वाली पार्टी से दिल्ली में आखिर कहां, कैसे और क्यों ऐसी चूक हो रही है कि उसका वजूद लगातार कम होता जा रहा है. कहते हैं और अधिकांश लोग इसे मानते भी हैं कि दिल्ली से निकला कोई भी सियासी संदेश देश के बहुत बड़े हिस्से को प्रभावित करता है.
इसलिये बड़ा सवाल ये है कि बीजेपी के लिए दिल्ली विधानसभा की सत्ता में आने का रास्ता क्या अब इतना कांटेदार बन चुका है कि उसे पार कर पाना बेहद मुश्किल हो गया है? इसलिये कि बीजेपी के पास अपने विरोधियों को जवाब देने के लिए अब तक ये जवाब था कि देश की राजधानी के नाते सबसे बड़े नगर निगम में उसकी सत्ता है. लेकिन 15 साल तक उसका स्वाद चखने वाली पार्टी को मौका मिलते ही बेदखल करने में दिल्लीवालों ने जरा भी देर नहीं लगाई.
वैसे तो साल 1993 में पार्टी के जमीनी व दिग्गज़ नेता मदनलाल खुराना की अगुवाई में अपने दम पर ही दिल्ली में सरकार बनाने वाली बीजेपी पिछले 24 बरस से सत्ता पाने का वनवास ही झेल रही है. लेकिन पार्टी का रिमोट अपने हाथ में रखने वाले संघ से लेकर बीजेपी नेतृत्व ने कभी इस पर गहराई से गौर ही नहीं किया कि पहले 15 साल तक दिल्ली पर राज करने वाली शीला दीक्षित से मुकाबला करने के लिए वे कोई एक भी ऐसा दमदार नेता आखिर क्यों नहीं दे पाये. उसके बाद साल 2013 में दिल्ली के राजनीतिक नक्शे पर उभरे अरविंद केजरीवाल को टक्कर देने के लिए भी बीजेपी के पास प्रभावशाली नेताओं का ऐसा अकाल पड़ गया कि उसे एक के बाद एक कई प्रदेश अध्यक्ष बदलने का प्रयोग करना पड़ा लेकिन उसका भी कोई फायदा नहीं हुआ. लिहाजा, बीजेपी को ये सोचना होगा कि जो "मोदी मैजिक " देश के दो तिहाई राज्यों में पिछले आठ साल से अपना असर दिखाता आ रहा है वो आखिर दिल्ली में बेअसर क्यों हो रहा है?
हालांकि राजनीति के धुरंधर जानकर कहते हैं कि MCD के नतीजों से पीएम मोदी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है क्योंकि स्थानीय निकाय के चुनाव और लोकसभा का चुनाव जिन मुद्दों पर लड़ा जाता है, उसमें जमीन-आसमान का फर्क होता है, इसलिये बीजेपी के लिए खतरे जैसी स्थिति नहीं है. बेशक उनका तर्क काफी हद तक सही है लेकिन अरविंद केजरीवाल जिस तेजी के साथ अपना राजनीतिक वजूद मजबूत कर रहे हैं, उस सचाई से आंखें मूंद लेना बहुत बड़ी गलती होगी. इसलिये भी कि फिलहाल दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों पर बीजेपी का कब्ज़ा है लेकिन इन नतीजों ने बता दिया है कि चार सीटों पर बीजेपी की हालत बेहद खराब है. इसमें भी सबसे ज्यादा बुरी हालत उस नयी दिल्ली संसदीय क्षेत्र की है जहां के 25 वार्ड में से 20 में बीजेपी का सूपड़ा साफ हो गया है. जबकि यहां की सांसद देश की विदेश राज्य मंत्री मीनाक्षी लेखी हैं.
पिछले कुछ महीने से देश के दिग्गज नेताओं के भाषणों में एक वाक्य समान रुप से सुनाई दे रहा है कि "जनता ही जनार्दन होती है और वही भगवान का रुप होती है." लेकिन इस जुमले को भुनाने में दो ही नेता सबसे ज्यादा कामयाब हुए हैं. पहले, गुजरात के मुख्यमंत्री बनने से लेकर देश के पीएम की कुर्सी पर बैठने वाले नरेंद्र मोदी और दूसरे, दिल्ली के रामलीला मैदान से शुरु हुए अन्ना हजारे के आंदोलन से राजनीति की पारी खेलने वाले अरविंद केजरीवाल. दोनों ही सफल होते गए लेकिन राजनीति में अगर आपका विरोधी इसी आधार पर जनता का समर्थन हासिल करने लगे तब देश की सत्ता में बैठी पार्टी के लिए ये खतरे की घंटी बन जाती है.
दिल्ली और पंजाब की विधानसभा से लेकर MCD की सत्ता से दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को बेदखल करने की ताकत सिर्फ अकेले केजरीवाल की नहीं थी बल्कि ये समझना होगा कि उन्होंने राजनीति को एक नई परिभाषा देते हुए उसे बदलने के जिस फार्मूले को अपनाया है, वो लोगों को पसंद आ रहा है और वे उसका साथ भी दे रहे हैं. दरअसल, केजरीवाल ने पहले दिल्ली और फिर पंजाब में मुफ्त बिजली, पानी देने के वादे को पूरा करने के साथ लोगों को ये अहसास दिलाने में कामयाबी पाई है कि उनकी पार्टी ईमानदार है. राजनीति के कीचड़ में आकर खुद को बेदाग़ रखते हुए उसे लोगों की निगाह में साबित करना सबसे बड़ी अग्नि-परीक्षा होती है. उस लिहाज से अगर आकलन करें, तो केजरीवाल को फिलहाल तो जनता पास ही करती जा रही है.
दिल्ली, पंजाब विधानसभा के और अब MCD में हुए चुनावों में बीजेपी व कांग्रेस ने केजरीवाल के किए वादों को मुफ्त में रेवड़ियां बांटने का जुमला ही बताया था लेकिन लोगों पर इसका कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने अपने एक वोट की ताकत से ये दिखा दिया कि अब वे अलग तरह के लोगों के हाथों में सत्ता सौंपना चाहते हैं,जिसका नाम आम आदमी पार्टी है.
दिल्ली सरकार में लगातार 15 साल तक राज करने वाली कांग्रेस को और फिर अब MCD में 15 साल से काबिज़ बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर देना, कोई बच्चों का खेल नहीं है.इसलिये,कोई माने या न माने लेकिन 2024 का मुकाबला मोदी बनाम केजरीवाल होने की बिसात बिछ चुकी है. ये अलग बात है कि इस सियासी शतरंज के खेल का नतीजा क्या होगा.
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