समान नागरिक संहिता आखिर क्यों बन रही है चुनाव का सियासी औजार?
समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड एक ऐसा फ़ोबिया बन गया है जिसने देश की सियासत को दो धर्मों में ऐसा बांटकर रख दिया है कि न तो कोई इसकी सच्चाई जानना चाहता है और न ही इसके फायदों से अपने लोगों को ही वाकिफ़ कराना चाहता है.
बेशक गुजरात में विधानसभा चुनाव की तारीख़ का ऐलान होने से पहले ही राज्य सरकार ने इसे लागू करने का फैसला लेते हुए इस पर एक समिति बना दी है. लिहाज़ा, मुस्लिम संगठनों समेत विपक्षी दल इसकी टाइमिंग को लेकर सवाल उठाते हुए इसे चुनावी ध्रुवीकरण से जोड़ने का आरोप भी लगा रहे हैं.
लेकिन सच तो ये है कि समान नागरिक संहिता को देश में लागू करना पिछले कई वर्षों से आरएसएस और बीजेपी के मुख्य एजेंडे में रहा है. हालांकि ये अलग बात है कि एक समर्पित स्वयंसेवक रहते हुए जनसंघ से लेकर बीजेपी तक के हर ज्वार-भाटे को झेलने के बावजूद साल 1998 से 2004 तक प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाले दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी के कंधों पर इसे लागू करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. लेकिन गठबंधन की सरकार होने की मजबूरी और सहयोगी दलों के विरोध के चलते वे इससे संबंधित विधेयक संसद में ला ही नहीं पाये थे.
साल 2014 का चुनाव बीजेपी ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लड़ा था और तब पार्टी ने अपने घोषणा-पत्र में अन्य तमाम मुद्दों के अलावा समान नागरिक संहिता को भी लागू करने का वादा किया था. लेकिन 2014 के बाद 2019 में दोबारा बीजेपी की सरकार आने के साढ़े तीन साल बाद भी इससे संबंधित बिल संसद में न लाने और राज्यों के जरिये इसे थोपने को लेकर सवाल भी उठ रहे हैं.
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि केंद्र सरकार को लगता है कि लोकसभा से ये बिल पास हो जाने के बावजूद राज्यसभा में ये अटक सकता है और उस सूरत में उसकी जमकर किरकिरी होने का खतरा है. इसीलिये, ये रास्ता निकाला गया कि फिलहाल इसे राज्य सरकारों के जरिये लागू करने का फैसला लेकर मुस्लिम समुदाय से उठने वाले विरोध की नब्ज को भांपा जाये. शायद यही कारण है पहले उत्तराखंड और अब गुजरात ने इसे लागू करने का फैसला लिया है.
जिस कानून के बनने से पहले ही उसे लेकर इतना बवाल हो रहा है, तो ये समझना जरुरी है कि आख़िर वह है क्या. समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड का अर्थ होता है, भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए एक समान कानून होना, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो. समान नागरिक संहिता बन जाने के बाद सभी धर्मों में शादी, तलाक और जमीन-जायदाद के बंटवारे को लेकर सिर्फ एक ही कानून लागू होगा. सरकार का दावा है कि ये एक ऐसा निष्पक्ष कानून है, जिसका किसी भी धर्म के साथ भेदभाव करने से कोई ताल्लुक नहीं है.
बता दें कि मौजूदा वक्त में हमारे देश में हर धर्म के लोग ऐसे मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ के अधीन ही करते हैं. फिलहाल मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय का अलग पर्सनल लॉ है जबकि हिन्दू सिविल लॉ के तहत हिंदुओं के अलावा सिख, जैन और बौद्ध भी शामिल हैं. दरअसल, हमारे देश में इस कानून की जरुरत क्यों है और इससे मुस्लिम समुदाय को भला क्यों डरना चाहिए इसे समझना होगा. बुनियादी व अहम बात ये है कि अलग-अलग धर्मों के अलग कानून होने से देश की न्यायपालिका पर बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है. समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे. शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद के बंटवारे में जब सबके लिए एक जैसा कानून होगा तो फिर बेवजह कोई कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाने वाला.
फ़िलहाल हर धर्म के लोग ऐसे जटिल मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ यानी निजी कानूनों के तहत ही करते हैं. दूसरी बड़ी बात ये है कि हर नागरिक पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति पर भी इसका असर पड़ेगा और तब राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक वाली राजनीति के सहारे वोटों का ध्रुवीकरण करना, बीते जमाने की बात बनकर रह जायेगी. लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि इस मुद्दे पर सरकार की तरफ से मुस्लिम समुदाय में फैली गलतफहमी को दूर करने की कोई ठोस कोशिश होती दिखाई नहीं देती.
गुजरात दौरे पर पहुंचे हैदराबाद के सांसद और AIMIM के प्रमुख असदउद्दीन ओवैसी ने एबीपी न्यूज को दिये इंटरव्यू में कहा, "जैसे ही चुनाव करीब आते हैं, बीजेपी ऐसे मुद्दों को उठाना शुरू कर देती है. ये बीजेपी की पुरानी आदत है. उसी आदत को BJP ने फिर दोहराया है. "उनके मुताबिक BJP नेता जिस यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात कर रहे हैं तो उस कानून में क्या है? ओवैसी ने कहा कि गुजरात में एक समुदाय दूसरे समुदाय को घर नहीं बेच सकता है. उनका ये भी कहना था कि देश में इस वक़्त महंगाई और बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा है.उससे ध्यान भटकाने के लिए आप यूनिफॉर्म सिविल कोड ले आइये."
गौरतलब है कि गुजरात से पहले उत्तराखंड की बीजेपी सरकार ने भी इसे लागू करने का फैसला लिया है. बीती 27 मार्च को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में समान नागरिक संहिता को लेकर पांच सदस्यीय समित का गठन किया था. समिति ने इस मसले पर रायशुमारी के लिए गत 8 सितंबर को एक वेबसाइट भी लॉन्च की थी. इसके अलावा, लोगों से डाक और ईमेल के माध्यम से भी सुझाव मांगे गए थे.
तब सरकार के इस फैसले के ख़िलाफ़ मुसलमानों की प्रमुख संस्था जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने देवबंद से इसके विरोध में आवाज बुलंद करते हुए कहा था कि यूनिफॉर्म सिविल कोड किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं होगा. जमीयत का आरोप है कि समान नागरिक संहिता इस्लामी कायदे-कानून में दखलंदाजी होगी. जमीयत उलेमा ए हिंद के अध्यक्ष अरशद मदनी के मुताबिक, 'मुसलमान इस देश के गैर नहीं हैं. ये हमारा मुल्क है, मजहब अलग है लेकिन मुल्क एक है. ऐसे में, यह सवाल उठना भी लाजिमी बनता है कि एक देश में धर्म के हिसाब से अलग-अलग कानून होना क्या वाकई सही है?
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