आज से तकरीबन 90 साल पहले अविभाजित भारत के लुधियाना के क़स्बे समराला में एक ऐसी शख्सियत की पैदाइश हुई थी, जिसने महज़ 43 साल की जिंदगी में अपनी कलम से उस वक़्त के समाज को ये अहसास दिलाया था कि जमीनों का बंटवारा करके एक मुल्क को दो हिस्सों में बांट देना कितना खतरनाक होता है और आने वाली नस्लें इस नासूर को न जाने कितने बरसों तक झेलती रहेंगी. उर्दू भाषा में हिंदुस्तानी जुबान के जरिये एक आम इंसान के दर्द को अपनी जुबान देने वाले सआदत हसन मंटो कभी नहीं चाहते थे कि हिंदुस्तान का बंटवारा हो और उन्हें अपनी आखिरी सांस उस पाकिस्तान की सरजमीं पर लेने को मजबूर होना पड़े,जो न जाने कितने बेगुनाहों के लहू का गवाह बन चुका है, लिहाज़ा उसे 'पाक' कहना खुद को सबसे बड़ा धोखा देना ही होगा.
लेकिन कुदरत के अपने कायदे हैं,जो इंसान के बनाये नियमों से नहीं चला करती.इसलिये चाहते हुए भी मंटो की ये हसरत पूरी नहीं हो पाई.18 जनवरी 1955 की शाम जब मंटो को सुपुर्द-ए-खाक किया गया,तो वह शहर लाहौर था. लेकिन हक़ीक़त ये है कि मंटों की लेखनी से मोहब्बत करने वालों की संख्या आज भी पाकिस्तान के मुकाबले भारत में न जाने कितने गुना ज्यादा है,जिसका अंदाज़ा लगाना ही मुश्किल है.
मंटो की पैदाइश भले ही एक मुस्लिम परिवार में हुई थी लेकिन उन्होंने आखिरी वक्त तक अपनी लेखनी से या और किसी जरिये से कभी ये अहसास नहीं होने दिया कि इंसानियत के सिवा भी उनका कोई और मज़हब है. किसी भी धर्म या मजहब की कट्टरपंथी विचारधारा रखने वाले या उसे आगे बढ़ाने वाले कुछ लोग ये सवाल उठा सकते हैं कि मंटों की तारीफ में इतने कसीदे क्यों पढ़े जा रहे हैं,तो उन्हें ये याद दिलाना जरुरी है कि मौजूदा माहौल में अदद एक मंटों की कमी इसलिये भी खल रही है कि कोई तो ऐसा होता,जो मंटो की तरह ही दोनों मुल्कों के हुक्मरानों को नफ़रत का मर्ज समझा पाने की हिम्मत कर पाता.
21 वीं सदी में आकर भी इन दो मुल्कों में रहने वाले लोगों का क्या हाल हो सकता है,इसका अंदाज़ा उन्हें बरसों पहले ही हो चुका था.शायद इसीलिए मंटों ने लिखा था,”हम लिखने वाले पैग़ंबर नहीं. हम क़ानूनसाज़ नहीं.. क़ानूनसाज़ी दूसरों का काम है- हम हुक़ूमतों पर नुक़्ताचीनी करते हैं लेकिन ख़ुद हाकिम नहीं बनते. हम इमारतों के नक़्शे बनाते हैं लेकिन हम मैमार नहीं. हम मर्ज़ बताते हैं लेकिन दवाखानों के मोहतमिम (व्यवस्थापक ) नहीं.”
मंटो आज क्यों याद आ रहे हैं,तो उस पर भी जरा गौर कर लीजिये और ख़ासकर वे मुसलमान जो रहते तो भारत में हैं लेकिन पाकिस्तान से मोहब्बत करने के अपने अहसास को सरेआम करके कानून के मकड़जाल में फंसने का अपनी दुकान पर बैठे ही बुलावा दे देते हैं.वह इसलिये कि अगर कोई मुस्लिम अपनी दुकान पर बैठे हुए अपने मोबाइल पर ही किसी यू ट्यूब चैनल पर पाकिस्तान से जुड़ी हुई कोई वीडियो देखता है,जिसमें 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगाने की आवाज़ किसी और को सुनाई दे जाती है,तो इसे जुर्म माना जायेगा और इसके लिए आपको जेल की सलाखों के पीछे जाने के लिए भी तैयार रहना होगा. इसे मजाक मत समझिए क्योंकि ताजा मामला उत्तर प्रदेश में बरेली के भुता थाना क्षेत्र के गांव सिघाई से सामने आया है.यहां एक युवक मुस्लिम दुकानदार के पास कुछ सामान लेने गया था लेकिन उसने सामान तो नहीं लिया लेकिन पुलिस में ये शिकायत कर दी कि
वहां एक कट्टरपंथी की दुकान पर पाकिस्तान जिंदाबाद का गाना बज रहा था. उस युवक ने इसका वीडियो बनाकर वायरल कर दिया और थाने में शिकायत भी की. वीडियो वायरल होते ही हड़कंप मच गया. पुलिस ने दो लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करके जांच पड़ताल शुरू कर दी है.
वहां से मीडिया में आई ख़बरों के मुताबिक बरेली के एसपी ग्रामीण राजकुमार अग्रवाल का कहना है कि "पाकिस्तान जिंदाबाद का गाना बजाने का एक वीडियो वायरल हुआ है. इस मामले में एक शख्स ने मुकदमा दर्ज कराया है. वीडियो को आधार मानकर एफआईआर दर्ज की गई है. आरोपियों को हिरासत में लेकर पूछताछ की जा रही है."
पुलिस हिरासत में लिए गए उस आरोपी युवक के घर वालों को भी अपनी बात मीडिया के आगे रखने का का पूरा हक है.अब उसमें कितना सच है और कितना झूठ, इसका फैसला न तो पुलिस कर सकती है और न ही आप या हम.इसके लिए देश की न्यायपालिका अभी जिंदा है,जहां से हर सताये हुए मज़लूम को इंसाफ मिलने की आस आज के इस माहौल में भी बँधी हुई है और यही लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत भी है.
स्थानीय मीडिया में आई खबरों के मुताबिक इस मामले में आरोपी के भाई सद्दाम हुसैन का कहना है कि "उसका भाई यूट्यूब पर पाकिस्तान जिंदाबाद का गाना सुन रहा था. उसने पहली बार ये गाना सुना था. उससे पहले उसने कभी भी ये गाना नहीं सुना." वहीं आरोपी की मां का कहना है कि "उसके बेटे से जो भी गलती हो गई है,उसके लिए उसे माफ कर दिया जाए. अब आगे से कभी भी ऐसी गलती नहीं होगी."
हम नहीं जानते कि इस पर मामले का सच आखिर क्या है लेकिन एक मां के जज़्बातों पर गौर करते हुए इतना तो हर कोई समझ सकता है कि माहौल की बहती हुई फ़िज़ा में कहीं न कहीं नफ़रत का खासा असर है. बरेली की इस घटना को पढ़ने के बाद पाकिस्तान में रहने वाले एक पत्रकार मित्र से फोन पर गुफ़्तगू हुई.उनसे पूछा कि वहां का कोई दुकानदार यू ट्यूब पर हिन्दुस्तान से जुड़ी कोई ऐसी वीडियो देखता है,जिसमें भारत माता की जय,वंदे मातरम या हिंदुस्तान जिंदाबाद जैसे नारे लग रहे हों और वह उसके अलावा दुकान पर आए बाकी ग्राहकों ने भी सुने हों? और,फिर उसके बाद किसी ने पुलिस से उसकी शिकायत की हो कि ये अपनी दुकान पर भारत माता की जय का गाना बजा रहा है,लिहाज़ा इसके खिलाफ कार्रवाई की जाए? उन जनाब से जो जवाब मिला,वो हैरान करने वाला था.उन्होंने कहा-"मोहतरम,आप शायद पगला गए हैं.कल ही लाहौर आइये.जैसा आपके दिल्ली के करोलबाग की अजमल खान मार्किट है,ठीक वैसा ही हमारा अनारकली बाज़ार है.पूरा बाज़ार घुमाउंगा और हर दूसरा दुकानदार यू ट्यूब पर हिंदी फिल्में देख रहा होगा, और कारगिल की लड़ाई पर बनी हर फ़िल्म को देख रहे उस दुकानदार के यहां से आपको भारत माता की जय और हिंदुस्तान जिंदाबाद की आवाज आपके कानों तक भी पहुंचेगी."
"लेकिन जैसे ही मै उन्हें बताऊंगा कि ये दिल्ली से आये हमारे अज़ीज़ मेहमान हैं,फिर तो आप उनकी ख़िदमत भी नहीं झेल पाएंगे.तब आपको अहसास होगा कि मसला हिंदू-मुसलमान का नहीं बल्कि दो मुल्कों के सियासतदानों को अपनी कुर्सी बचाने का है. लिहाज़ा,हमारे पाकिस्तान में भी और आपके हिन्दुस्तान में भी कई लोगों ने मज़हबी कट्टरता का ऐसा चश्मा लगा रखा है,जिसमें अगर इंसान का बहता हुआ लहू न दिखाई दे,तो वे बैचैन-परेशान हो जाते हैं. शायद अब आप भी समझ गए होंगे कि इस दौर में मुझे सआदत हसन मंटो आखिर क्यों याद आ गए!
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)