तालिबान पर भारत में हो रही अहम बैठक से आखिर क्यों नदारद हैं पाकिस्तान और चीन?
बीते 15 अगस्त को अफगानिस्तान में तख्ता पलट कर सत्ता में आये आतंकी संगठन तालिबान को किस तरह से समझाया जाए कि वो इस क्षेत्र में अमन-चैन रखते हुए अपनी सरकार चलाये, इसकी फिक्र करते हुए ही आज नई दिल्ली में एक अहम बैठक हो रही है. भारत के बुलावे पर रुस व ईरान समेत सात देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार यानी NSA इसमें हिस्सा ले रहे हैं. पाकिस्तान और चीन को भी इसमें शामिल होने का न्योता दिया गया था लेकिन दोनों देशों ने इसका बहिष्कार करके ये जता दिया है कि वे आतंक को पैदा करने वालों के सबसे बड़े खैरख्वाह बने हुए हैं.
पाकिस्तान के बारे में तो पहले ही आशंका थी कि वो इसमें आने से अपना मुंह चुरायेगा. पर, ऐन वक्त पर चीन ने भी इसमें हिस्सा लेने से कन्नी काट ली. इसका संदेश साफ है कि पाकिस्तान और चीन नहीं चाहता कि तालिबान को आतंक का खात्मा करने की कोई नसीहत दी जाए और न ही दोनों मुल्क ये चाहते हैं कि इस क्षेत्र में शांति कायम करने का सेहरा भारत के सिर पर बंधे. लेकिन क्षेत्रीय शांति कायम करने के प्रयासों वाली ऐसी बैठक से पाक व चीन का दूर रहना, सिर्फ भारत के लिए ही नहीं बल्कि समूचे क्षेत्र की सुरक्षा की दृष्टि के लिहाज से भी बेहद चिंताजनक है. इन दोनों देशों की गैर मौजूदगी एक तरह से आतंकी ताकतों के हौसले और बुलंद करने वाली है, जिसकी जितनी ज्यादा मज़म्मत की जाए, उतनी ही कम होगी.
सब जानते हैं कि तालिबान का आका पाकिस्तान है और तख्ता पलटाने से लेकर अफगानिस्तान में उसकी सरकार बनवाने और मंत्रालयों का बंटवारा करने तक में उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई का सबसे बड़ा रोल रहा है. लिहाज़ा, वो कभी नहीं चाहेगा कि बंदूक के दम पर सरकार में आये तालिबानी लड़ाकों के हुक्मरान हथियारों को छोड़कर अमन का रास्ता अपना लें.
लेकिन, चीन ने इस बैठक में न आने का बहाना भले ही चाहे जो बनाया हो लेकिन उसकी नीयत का पता चल गया कि वो तालिबान का हमदर्द पहले से ही बना हुआ था और आगे भी वो आर्थिक मदद देकर उसे अपने काबू में रखना चाहता है. वैसे भी पिछले दिनों चीन ने तालिबान को सीधे तौर पर ये ऑफर दिया है कि वो अफगानिस्तान के सभी एयरपोर्ट और नेशनल हाईवे के रखरखाव व संचालन का जिम्मा लेना चाहता है, लिहाज़ा इस पर जल्द फैसला हो. हालांकि तालिबानी सरकार ने उसके इस ऑफर को अभी तक न तो मंजूर किया है और न ही ठुकराया है. दरअसल, चीन अफगानिस्तान के रास्ते पाकिस्तान के पोर्ट तक अपनी पकड़ और मजबूत करना चाहता है और इस बहाने वो भारत की सामरिक ताकत की गतिविधियों पर भी अपनी निगाह रखने के लिए बेचैन है. इसीलिये उसने तालिबान सरकार को इतना लुभावना प्रस्ताव दिया है जिस पर कई हजार करोड़ डॉलर खर्च करने के लिए चीन तैयार बैठा है.
आज की बैठक भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अगुवाई में हो रही है,जिसमें रुस व ईरान समेत आठ देश हिस्सा ले रहे हैं. इसमें उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान और तज़ाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी शामिल होंगे. ये तीसरी बार है जब एनएसए स्तर की ऐसी वार्ता आयोजित की जा रही है. विदेश मंत्रालय के मुताबिक इससे पहले 2018 और 2019 में ईरान में इसके पहले दो संस्करणों का आयोजन किया जा चुका है. हालांकि, इस बार बैठक का मुख्य एजेंडा अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी के बाद क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर उपजे हालात पर चर्चा है.
हालांकि रूस पहले भी भारत को तालिबान के साथ बातचीत के लिए आमंत्रित कर चुका है. इस बैठक में रूस और ईरान के शामिल होने को अफ़ग़ानिस्तान पर सहयोगी देशों के बीच अहम रणनीति बनाने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है,लिहाज़ा पाक व चीन की गैर मोजुदगी के बावजूद इसे बेहद अहम माना जा रहा है. लेकिन भारत की पहल पर यह पहली बार है कि केवल अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी ही नहीं बल्कि मध्य एशिया के सभी प्रमुख देश इस बैठक में हिस्सा ले रहे हैं. यह अफ़ग़ानिस्तान में शांति और सुरक्षा स्थापित करने के भारतीय प्रयासों की अहमियत को भी दुनिया के सामने दर्शाता है.
विदेश मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक इस उच्च स्तरीय वार्ता में अफ़ग़ानिस्तान में हाल के घटनाक्रम से उत्पन्न क्षेत्रीय सुरक्षा स्थिति की समीक्षा करने के साथ ही शांति, सुरक्षा और स्थिरता को बढ़ावा देने का भी एकजुट होकर समर्थन किया जाएगा. भारत समेत आठ देश मिलकर इसका भी कोई रास्ता तलाशेंगे कि वहां के लोगों को मानवीय सहायता कैसे पहुंचाई जाए.
बता दें कि इस बैठक में हिस्सा लेने से इनकार करते हुए पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोइद युसूफ़ ने कहा था कि वो इसमें भाग नहीं लेगें. साथ ही उन्होंने भारत पर ये कहते हुए अपना तंज कसा था कि "शांति बिगाड़ने वाला शांतिदूत नहीं हो सकता". वहीं चीन ने इस बैठक के शेड्यूल को वजह बताते हुए इसमें शामिल होने से इनकार किया है. लेकिन साथ ही उसने यह भी कहा कि वह द्विपक्षीय राजनयिक रास्तों के ज़रिए संपर्क और चर्चा के लिए तैयार है. यानी वो इस पूरी कवायद में भारत की भूमिका को महत्व नहीं देना चाहता.
लेकिन इस बीच तालिबानी नेताओं के पाकिस्तान के दौरे को लेकर सबके कान खड़े हो गए हैं क्योंकि एक तरफ जहां भारत में ये बैठक शुरू हो रही है,तो वहीं तालिबान सरकार के विदेश मंत्री आला अफसरों का प्रतिनिधिमंडल लेकर इस्लामाबाद पहुंच रहे हैं.
अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अब्दुल कहर बल्की ने कहा है कि विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुतक्क़ी के नेतृत्व में जा रहा प्रतिनिधिमंडल दोनों देशों के बीच रिश्तों को और बेहतर बनाने, अर्थव्यवस्था और लोगों की आवाजाही के लिए बेहतर सुविधाएं मुहैया करवाने के साथ ही शरणार्थियों के मामलों पर बातचीत करेगा.
बल्क़ी के ट्वीट के अनुसार इस प्रतिनिधिमंडल में तालिबान सरकार के वित्त और वाणिज्य मंत्रालय के आला अधिकारी भी शामिल होंगे. हालांकि पाकिस्तान ने तालिबान की सरकार को आधिकारिक तौर पर अभी तक मान्यता नहीं दी है लेकिन इस्लामाबाद स्थित दूतावास में तालिबान द्वारा नियुक्त अधिकारी तैनात हैं. पाकिस्तान के अख़बार डॉन ने एक पाकिस्तानी अधिकारी के हवाले से लिखा है कि ये दौरा बहुत अहम होगा क्योंकि आमिर ख़ान मुतक्क़ी तालिबान की व्यवस्था में बहुत अहम स्थान रखते हैं.
लिहाज़ा,तालिबानी सरकार के कद्दावर मंत्री के इस दौरे की टाइमिंग बहुत मायने रखती है और साथ ही शक भरा ये सवाल भी उठाती है कि पाकिस्तान की गोद में बैठे तालिबान पर भारत आखिर भरोसा करे भी तो किस आधार पर करे?
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