(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
BLOG: एक देश एक चुनाव के आइडिया से क्षत्रप क्यों डर रहे हैं?
बड़ा पेंच यह भी है कि दबंग राष्ट्रीय दल तो अपना सिक्का जमाने में आसानी से कामयाब हो सकते हैं, लेकिन अपने-अपने राज्यों के दबे-कुचले तबकों को सामाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करने वाले क्षेत्रीय दलों के हाशिए पर चले जाने का खतरा पैदा हो जाएगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक देश एक चुनाव की अपनी पुरानी संकल्पना साकार करने के लिए आम सहमति बनाने के इरादे से दिल्ली में जो सर्वदलीय बैठक बुलाई थी, उसमें 40 में से मात्र 21 दल ही भाग लेने पहुंचे. कांग्रेस ने इससे दूर रहना ही मुनासिब समझा और बीएसपी अध्यक्ष मायावती, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष ममता बनर्जी, आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल भी बैठक में हाजिर नहीं हुए. कुछ वाम दल जरूर पहुंचे, लेकिन उन्होंने इस विचार का वहीं विरोध कर दिया. इतना ही नहीं एनडीए में शामिल शिवसेना और बीजेपी से दोस्ती गांठने वाली एआईएडीएमके भी फिलहाल इस खयाली पुलाव को चखने के मूड में नहीं लगती. जाहिर है यह संकल्पना अधिकतर क्षेत्रीय क्षत्रपों को निरापद नहीं लग रही है.
वैसे तो एक देश एक चुनाव बड़ा चित्ताकर्षक और सुमधुर विचार लगता है!...और जब इसके अमल में आने से चुनावी खर्च लगभग आधा रह जाने तथा देश के बारहों महीने चुनावी मूड में न रहने का खयाल आता है, तो यह विचार बेहद उपयोगी भी लगने लगता है. मोदी जी ने 2017 में कानून दिवस के अवसर पर लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव एक साथ सम्पन्न कराने की राय जाहिर की थी. तर्क यह था कि देश में अलग-अलग चुनाव होने से न केवल मानव संसाधन पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है बल्कि आचार-संहिता लागू होने की वजह से देश के विकास में बाधा पहुंचती है.
नीति आयोग पहले ही कह चुका है कि वर्ष 2024 से लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ सम्पन्न कराना राष्ट्रीय हित में होगा. सिविल सोसाइटी भी मानती है कि अगर ग्राम पंचायतों और स्थानीय निकायों के चुनाव भी शामिल कर लें तो कोई साल ऐसा नहीं जाता, जब भारत में कहीं न कहीं चुनाव न हो रहे हों! देश का थिंक टैंक भी बीच-बीच में राय देता रहता है कि लगातार चुनावी मोड में रहने के चलते देश के अंदर और बाहर अस्थिरता बढ़ती है तथा आर्थिक विकास की अनदेखी होती है. अक्सर चुनावी चकल्लस जारी रहने के चलते सामाजिक समरसता भी भंग होती है.
लेकिन कल्पना करने से ज्यादा कठिनाई किसी विचार को जमीन पर उतारने में आती है. पहली कठिनाई तो यही है कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ सम्पन्न कराने की वकालत करता हो! यह भी सच है कि बिना किसी संवैधानिक सेट अप के चुनाव आयोग इस नई व्यवस्था के लॉजिस्टिक्स पर एक कदम आगे नहीं बढ़ा सकता. राज्यसभा की एक समिति पहले ही राय दे चुकी है कि इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा क्योंकि संविधान विशेषज्ञ एक साथ चुनाव कराने को भारत के संघीय ढांचे पर प्रहार बताते हैं. भारत की विविधता के मद्देनजर अलग-अलग महत्व के मुद्दों पर अलग-अलग भौगोलिकताओं में लड़े जाने वाले अलग-अलग स्तर के चुनाव अगर एक साथ कराए जाएंगे तो जनता राष्ट्रीय स्तर के तत्कालीन मुद्दों के असर में आ जाएगी और स्थानीय हित में मत व्यक्त नहीं कर सकेगी.
इसीलिए बड़ा पेंच यह भी है कि दबंग राष्ट्रीय दल तो अपना सिक्का जमाने में आसानी से कामयाब हो सकते हैं, लेकिन अपने-अपने राज्यों के दबे-कुचले तबकों को सामाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करने वाले क्षेत्रीय दलों के हाशिए पर चले जाने का खतरा पैदा हो जाएगा. राष्ट्रीय धारा का प्रबल आवेग क्षेत्रीय मुद्दों का रुख अपने पक्ष में आसानी से मोड़ सकता है. इसलिए अस्तित्व को दांव पर लगाकर क्षेत्रीय दल अपनी सहमति भला क्यों देंगे? उनकी यह समझ भी बनी है कि चुनाव जीतकर पांच साल के लिए क्षेत्रीय जनाक्रोश झेलने का भय नदारद हो जाने से केंद्रीय सत्ता विपक्ष शासित राज्यों के हितों की अनदेखी भी कर सकती है!
एक साथ चुनाव कराने से चुनावी खर्च घटने का जो तर्क दिया जा रहा है, वह खोखला है. चुनाव में वोटर अपनी जेब से कोई पैसा खर्च नहीं करता, बल्कि तय सीमा से कई गुना अधिक पैसा राजनीतिक दल उड़ाते हैं. इलेक्शन बांड की गोपनीयता और कॉरपोरेट फंडिंग के इस दौर में बेतहाशा खर्च का बहाना मतदाताओं की आंख में धूल झोंकने जैसा है. एक अनुमान के मुताबिक 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब 60,000 करोड़ रुपए पानी की तरह बहाए गए.
हाल ही में आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और उड़ीसा में एक साथ संपन्न हुए चुनावों के हवाले से एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि अब मतदाता केंद्र और राज्य के मुद्दों को अलगाने की सलाहियत रखने लगा है. लेकिन क्या जमीनी हकीकत यही है? जिस देश में आज भी जागरूकता की कमी, अशिक्षा और भावनात्मक मुद्दों की बहुलता के चलते घर के मुखिया के आदेश मात्र से पूरे परिवार के लोग किसी पार्टी को आंख मूंद कर वोट डाल आते हों, वहां राष्ट्रीय और क्षेत्रीय आकांक्षाओं को अलहदा कर पाना उनके लिए इतना आसान है क्या? पिछले दिनों एक सर्वे ने दिखाया था कि कॉलेज की कई छात्र-छात्राएं देश के राष्ट्रपति का नाम तक नहीं बता पा रही थीं!
राजनीतिक दलों व जनप्रतिनिधियों को लेकर मतदाताओं का असंतोष और धारणा किसी पंचवर्षीय योजना के अनुसार नहीं, बल्कि समय-समय पर बदलती रहती है. वे अपने जीवन में आए बदलाव को स्वयं महसूस करते हुए मतदान करते हैं. इसी भय से सभी पक्षों के नेता अपने इलाके से संपर्क बनाए रखते हैं और अपनी नीतियों से मतदाताओं को कायल करने की कोशिश करते हैं. इस प्रक्रिया में मतदाता का महत्व रेखांकित होता है और दोतरफा व्यवहार होने से लोकतंत्र को मजबूती मिलती है. पांच साल में एक साथ चुनाव करा लेना मतदान को मात्र नीरस कर्मकाण्ड में बदल कर रख देने की कवायद सिद्ध हो सकती है.
सर्वदलीय बैठक के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने आश्वासन दिया कि हड़बड़ी में कोई निर्णय नहीं लिया जाएगा और पीएम मोदी इस मुद्दे पर एक कमेटी कठित करने जा रहे हैं, जो एक साथ चुनाव कराने की व्यावहारिकता को लेकर अपने सुझाव देगी. वैसे भी एक देश एक चुनाव की संकल्पना को लेकर किसी को यह मुगालता नहीं होना चाहिए कि कोई एक पार्टी केंद्र अथवा राज्य में हमेशा एडवांटेज की स्थिति में रहेगी. कल को दूसरे दल भी इसका सही या गलत फायदा उठा सकते हैं. इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि यह सिलसिला एक देश एक दल और एक देश एक नेता जैसे अलोकतांत्रिक रास्ते पर आगे नहीं बढ़ेगा!
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.) विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार लेखक से ट्विटर पर जुड़ने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/VijayshankarC और फेसबुक पर जुड़ने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/vijayshankar.chaturvedi