Farm Laws To Be Repealed: गुरु पूर्णिमा और गुरुनानक जयंती के मौके पर तीनों कृषि कानूनों को वापस करने का ऐलान करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश से माफ़ी मांगकर ये साबित कर दिया कि अन्नदाता के आगे सरकारों की जिद नहीं चला करती. बेशक पांच राज्यों के चुनावों से पहले इसे बीजेपी का एक बड़ा सियासी मास्टरस्ट्रोक समझा जा रहा है, जो सही भी है लेकिन इसका दूसरा पहलू ये भी है कि कोई सरकार भले ही कितनी भी ताकतवर क्यों न हो, जब वो ऐसे आंदोलनों को कुचलने की कोशिशों में नाकाम हो जाती है, तब उसके पास झुकने के सिवा कोई और रास्ता बचता भी नहीं है.
जाहिर है कि कानूनों की वापसी किसानों की जीत है लेकिन सरकार के लिए ये हार नहीं बल्कि शर्मिंदगी का मसला ही माना जायेगा क्योंकि अगर यही करना था, तो फिर साल भर तक ये तमाशा ही क्यों होने दिया गया, जिसमें सैकड़ों किसानों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी. हालांकि पीएम मोदी ने आज इसका ऐलान करते वक़्त साफ कहा कि वे इसके लिए किसी को दोष नहीं देना चाहते. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि ऐसा कानून लाने की सलाह देने वाले ही क्या गलत थे और सरकार के इस फैसले के बाद क्या यही समझा जाये कि वे सलाहकार फ़ेल साबित हुए हैं?
हालांकि ऐसा नहीं है कि खुद को झुकने पर मजबूर करने वाला ये फैसला सरकार ने अचानक रातोंरात ही लिया हो. इस पर पिछले करीब दो महीने से गहरा मंथन चल रहा था. पिछली 20 अक्टूबर को मेघालय के गवर्नर सत्यपाल मलिक ने तो साफ़ कह दिया था कि, "कृषि क़ानून पर केंद्र सरकार को ही मानना पड़ेगा, किसान नहीं मानेंगे".
एक राज्यपाल जब केंद्र सरकार के किसी फैसले की खुली मुखालफत करने लगे, तो उससे ही अंदाज़ मिलने लगा था कि सरकार अब इस मामले पर अपने पैर पीछे खींचने की तैयारी कर रही है. वैसे इसके सियासी नफ़े-नुकसान के साथ ही ये भी विचार हो रहा था कि आने वाले दिनों में किसान आंदोलन का स्वरुप कुछ ऐसा हो सकता है जिसकी आड़ में देशविरोधी ताकतें और भी ज्यादा मजबूत हो सकती है और तब सरकार के लिए उससे निपटना दोहरी चुनौती बन जायेगी. लेकिन इस फैसले का एलान करने की टाइमिंग को लेकर जो चर्चा हो रही है, उसका मकसद पांच राज्यों के चुनाव तो हैं ही लेकिन गुरुनानक देव जी के प्रकाशोत्सव पर इसका ऐलान करके पीएम मोदी ने अपने पुराने सहयोगी अकाली दल को दोबारा एनडीए में शामिल होने का न्योता भी दे दिया है.
हालांकि मोदी सरकार के इस फैसले के पीछे सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पंजाब भी एक बड़ा कारण है. जाहिर है कि उत्तर प्रदेश चुनाव पर किसान आंदोलन का असर बीजेपी की कई सीटें कम करवा सकता था लेकिन पंजाब भी कई लिहाज से बीजेपी के लिए अहम राज्य है. चूंकि पंजाब भारत-पाकिस्तान की सीमा से लगा राज्य है और इस आंदोलन की आड़ में बहुत सारे खालिस्तानी ग्रुप वहां अचानक से सक्रिय हो गए हैं. ऐसे में चुनाव से पहले कई गुट पंजाब में एक्टिव हैं जो मौके का फ़ायदा उठाने की ताक में हैं.लिहाज़ा, ये कह सकते हैं कि केंद्र के इस फैसले ने उनके मंसूबों पर भी पानी फेर दिया है. भविष्य के लिहाज से भी देखें, तो पंजाब व जम्मू-कश्मीर ऐसे सीमावर्ती राज्य हैं जहां बीजेपी आने वाले सालों में अपने बूते पर ही सत्ता में आना चाहती है.
वैसे भी 80 के दशक में पंजाब में पनपे आतंकवाद की कमर तोड़ने के मकसद से ही बीजेपी और अकाली दल का गठबंधन हुआ था.उस वक़्त दोनों दलों के शीर्ष नेता लाल कृष्ण आडवाणी और प्रकाश सिंह बादल की सोच ये थी कि अगर सिखों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी (अकाली दल) और ख़ुद को हिंदू के साथ जोड़ने वाली पार्टी (बीजेपी) साथ में चुनाव लड़े तो राज्य और देश की सुरक्षा के लिहाज से ये बेहतर होगा. इस वजह से सालों तक ये गठबंधन चलता आया. लेकिन नए कृषि क़ानून की वजह से अकाली दल ने पिछले साल बीजेपी का साथ छोड़ दिया और वह एनडीए से अलग हो गया था. जबकि अकाली दल, बीजेपी का सबसे पुराना और भरोसेमंद साथी साबित हुआ है.लिहाज़ा न तो मोदी सरकार और न ही अकाली दल ये चाहता है कि 80 के दशक की चीज़ें दोबारा से वहाँ शुरू हो जाए,इस वजह से भी केंद्र सरकार ने ये फैसला लिया.
कृषि, अर्थशास्त्र और पंजाब की राजनीति पर मज़बूत पकड़ रखने वाले प्रोफेसर आरएस घुमन कहते हैं, "देर से ही आए लेकिन दुरुस्त आए. ये फैसला करीब सात सौ किसानों की बलि देने के बाद आया है. मोदी सरकार ने नए कृषि क़ानून को ख़ुद रद्द नहीं किया, उनको किसानों के ग़ुस्से की वजह से ऐसा करना पड़ा. उत्तर प्रदेश के चुनाव नज़दीक है और पंजाब में भी. लेकिन इस फैसले के बाद भी बीजेपी को पंजाब में कुछ नहीं मिलने वाला. अकाली दल के साथ गठजोड़ होता तो कुछ राजनीतिक फ़ायदा मिल सकता था. लेकिन पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ आने से भी अब बीजेपी की दाल नहीं गलने वाली."
गौरतलब है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बीजेपी के साथ गठबंधन के संकेत देते हुए कहा था कि केंद्र सरकार को कृषि क़ानून पर दोबारा विचार करना चाहिए. मोदी सरकार के ताज़ा फ़ैसले के बाद उनकी प्रतिक्रिया सबसे पहले आई है और उन्होंने इसका स्वागत किया है. वैसे अब देखन ये है कि मोदी सरकार के इस फैसले के बाद अकाली दल वापस एनडीए का हिस्सा बनता है या नहीं.