जेएनयू पिछले कई साल से सुर्खियों में रहा है. सबसे अधिक वहां की राजनीतिक सक्रियता और छात्रों की पॉलिटिक्स में रुचि देश में चर्चित रहा है. जेएनयू का चुनाव भी अपने ढंग का होने और छात्रों द्वारा ही चुनाव आयोग बनाकर उसे संचालित करने की वजह से एक अजूबा माना जाता रहा है. चुनाव के समय बहुतेरे लोग उस पूरी प्रक्रिया को समझने और देखने भी आते थे. डिबेट और डिस्कशन की स्वस्थ परंपरा वहां रही है और हालिया कुछ घटनाओं को छोड़ दें तो वहां राजनीतिक हिंसा भी नहीं होती है.
डीयू के 100 साल पूरे होनेवाले हैं. यहां स्टूडेंट्स की विशाल संख्या और चुनाव के दौरान शक्ति-प्रदर्शन की वजह से यहां के चुनाव पर भी पूरे नेशनल मीडिया की नजर रहती है. फिलहाल दोनों ही विश्वविद्यालयों में चुनाव स्थगित हैं और दोनों ही पक्ष चाहे वह प्रशासन हो या छात्र संगठन एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं.
क्यों टल रहे हैं चुनाव
2019 में इन दोनों ही जगहों पर आखिरी बार छात्रसंघ का चुनाव हुआ था. दो साल तो कोरोना की वजह से चुनाव टले, लेकिन इस साल भी लगता है कि चुनाव होने में संदेह के बादल लगे हुए हैं. पहले जेएनयू का मामला समझते हैं. जब लिंगदोह कमिटी की सिफारिशें आईं, तो जेएनयू के तत्कालीन प्रशासन ने लिंगदोह कमिटी की सिफारिशों के हिसाब से चुनाव करवाने की बात की. 2017 में तत्कालीन वीसी मामाडिला ने जेएनयू के स्टूडेंट यूनियन को मान्यता देने से इंकार कर दिया. उसके बाद तब जेएनयू स्टूडेंट्स यूनियन इस मसले को लेकर कोर्ट चली गई. इसके बाद कोरोना और फिर मामला लटकता चला गया.
जेएनयू प्रशासन चाहता था कि चुनाव एलसीआर (लिंगदोह कमिटी रेकमेंडशन्स) के आधार पर हो. उसमें प्रशासन की भी भूमिका हो, जैसे डीयू में चुनाव प्रशासनिक स्तर पर होता है, जिसमें डीन और रजिस्ट्रार इत्यादि सभी की भूमिका होती है. जेएनयू में मामला इस पर फंसा कि तत्कालीन स्टूडेंट्स यूनियन चाह रही थी कि चुनाव स्वायत्त तरीके से जैसे होते आए हैं, वैसे ही हों और उसमें प्रशासन का हस्तक्षेप न हो. तत्कालीन प्रशासन ने यूनियन को ही मानने से इंकार कर दिया और कहा कि जब तक प्रशासनिक नोटिफिकेशन नहीं होता तब तक छात्रसंघ की मान्यता नहीं होगी.
इस पर हमने विद्यार्थी परिषद के जेएनयू इकाई के सेक्रेटरी विकास पटेल से बात की, तो उनकी राय कुछ ऐसी थी.
विकास पटेल-
विद्यार्थी परिषद चुनाव चाहती है, समय से होना चाहिए, लेकिन प्रशासन और इससे पहले का जो यूनियन है, उनकी हीलावहाली की वजह से चुनाव नहीं हो रहे. तीन साल पहले जो लोग यूनियन में गए थे, उनमें से कई अब स्टूडेंट भी नहीं हैं. जेएनयू प्रशासन ने लिंगदोह कमिटी के मुताबिक चुनाव कराने का तब फैसला किया और तत्कालीन यूनियन को मान्यता देने से इंकार कर दिया. उसी के बाद ये लोग कोर्ट चले गए, तो तब से मामला अटका हुआ है. फिर कोरोना हुआ. अब प्रशासन कई बार कह चुका है कि वह नोटिफिकेशन निकालेगा, लेकिन अभी तक हुआ तो नहीं है. फिर, ये जो यूनियन के लोग हैं, उनमें से कई तो बीच में बाहर भी गए, फिर भी वापस आकर यूनियन में बने हुए हैं.
सबसे मजेदार मजा तो आयशी घोष का है. वह पिछले छात्रसंघ की प्रेसिडेंट थी. बंगाल चुनाव के समय वह बंगाल जाकर विधायकी का चुनाव भी लड़ आईं और अब भी खुद को जेएनयूएसयू प्रेसिडेंट कहती हैं.
स्वाति सिंह, प्रसिडेंट, डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स फेडरेशन, जेएनयू
वैसे, जेएनयू में ही डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स फेडरेशन की प्रेसिडेंट स्वाति सिंह अपने सहपाठी विकास पटेल से सहमत नहीं हैं. वह सारा ठीकरा प्रशासन पर फोड़ती हैं.
स्वाति सिंह कहती हैं, “तीन वर्षों से स्टूडेंट यूनियन का चुनाव नहीं हुआ. तो अभी जो यूनियन आ रही है, उसमें तीन-चार लोग ही आते हैं. पहले हमारे पास 40 से 45 लोग होते हैं. एडमिन का इस पर केयरलेस रवैया है. अभी भी वो लोग चाह रहे हैं कि किसी तरह यूनियन को अपने काबू में कर लिया जाए या फिर मामले को टाला जाते रहे.
हाईकोर्ट से आदेश है कि हरेक डिसीजन मेकिंग में आपको पिछले यूनियन के लोगों को रखना पड़ेगा. 2017 से मामालिडा जब वीसी बने तो उन्होंने स्टूडेंट यूनियन के चुनाव में दखल देनी शुरू की. उन्होंने कई बार हमारे ईसी के लोगों को भी धमकाने की जरूरत की. एडमिस्ट्रेशन ने ईसी को पैसे देने में दिक्कतें कीं, सभी जगहों पर लोगों को किया है.
हमारी कई दिक्कतें हैं, जिनको सुलझाने के लिए हमें यूनियन की जरूरत है. प्रशासन ने 2017 में यह फरमान आया कि आपका यूनियन नोटिफाइड नहीं है और प्रशासन इसी पर आमादा है. प्रशासन कुछ प्रक्रियाओं के नाम पर सारी डेमोक्रेटिक गतिविधि को शांत कर रहा है”. डीयू चुनाव का मसला अलग है. वहां चूंकि प्रशासन ही सारी व्यवस्था करता है, तो यह उसका दायित्व है कि चुनाव की तिथि वह तय करे और नोटिफिकेशन निकाले.
मनोज कुमार, दयाल सिंह कॉलेज टीचर्स असोसिएशन के अध्यक्ष
हमने इस मसले पर दयाल सिंह कॉलेज टीचर्स असोसिएशन के अध्यक्ष मनोज कुमार से बात की.
मनोज कुमार कहते हैं, “भारत एक लोकतांत्रिक देश है. विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने के बाद जब छात्रों के बीच एक नेतृत्व ही नहीं रहेगा, तो छात्रों से जुड़े इंटरेस्ट की बातें कौन करेगा..अभी जब न्यू एडुकेशन पॉलिसी लागू हो रही है, तो हम लोगों ने तो उसके मुताबिक काम करना शुरू कर दिया है. स्टूडेंट्स को वह बातें बताने वाला कौन है, नयी शिक्षा नीति जो इतनी अच्छी नीति है, उसके लिए तो स्टूडेंट्स के बीच राजनीतिक संवाद होना ही चाहिए. डीयू का 100 साल पूरा होनेवाला है. बहुतेरे सांसद हैं, कई विभूतियां आई हैं, तो प्रशासन को लोकतंत्र देना चाहिए. डीयू में चुनाव प्रशासन ही करवाता है. तो बिना टाले हुए जल्द से जल्द चुनाव होने चाहिए.”
आगे क्या होगा?
फिलहाल, जेएनयू का छात्रसंघ चुनाव तो टलता ही दिख रहा है, क्योंकि कोरोना की वजह से सारे प्रवेश देरी से हुए. पिछले साल यानी 2022 का एडमिशन मार्च तक चला है. अब अगर, प्रशासन अगस्त तक नए सत्र का प्रवेश पूरा कर लेता है, तो शायद सितंबर में चुनाव हो जाए. इतनी तेजी संभव नहीं लगती है. डीयू ने भी अभी तक चुनाव का नोटिफिकेशन नहीं निकाला है. इससे लगता है कि चुनाव में इस बार भी देर ही होगी या अगले साल ही हो पाएगा. जैसा कि स्वाति सिंह कहती भी हैं, यह प्रशासन की कैंपस को राजनीतिक तौर पर पंगु बनाने की साजिश है.