दुनिया में सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश में जाति पर मची है रार, विपक्ष को है जातिगत-जनगणना से प्यार पर भाजपा करे इनकार
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक अब हम चीन को पीछे छोड़कर दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाले देश हैं. एक अरब 40 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाला हमारा देश चीन से भी 50 लाख अधिक जनसंख्या वाला देश हो गया है. हमारे यहां जनगणना का काम कोरोना की वजह से 2021 में नहीं हो पाया और हम अब तक 2011 के आंकड़ों पर ही आश्रित हैं. जातिगत जनगणना का मसला बीते कुछ साल से राजनीति के केंद्र में है. जैसे-जैसे 2024 का आम चुनाव नजदीक आ रहा है, वैसे ही इसको लेकर सरगर्मियां भी बढ़ती जा रही हैं. एक तरफ जहां कांग्रेस सहित अधिकांश गैर-भाजपाई दल किसी न किसी तरह जाति-जनगणना का समर्थन कर चुके हैं, वहीं केंद्र सरकार कह चुकी है कि वह जातिगत जनगणना नहीं कराएगी. इस मुद्दे के इतने पेंचोखम इसी से समझे जा सकते हैं कि 1930 के बाद अब तक किसी भी पार्टी ने यह काम करने की हिम्मत नहीं दिखाई है.
गैर भाजपाई विपक्ष लामबंद
भाजपा के BeteNoire (यानी वह दुश्मन जो कभी दोस्त था) नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना के आदेश दे दिए हैं. बिहार इस काम को करनेवाला पहला राज्य बन गया है. देश भर में जनगणना के आंकड़ों के लिए अब तक 2011 ईस्वी ही स्रोत-वर्ष है. कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए ने 2011 में जातिगत जनगणना करवाई तो थी, लेकिन मजे की बात है कि इसके आंकड़े जारी नहीं किए. इस बीच तमिलनाडु के एम के स्टालिन हों, NCP के शरद पवार हों या फिर सपा के अखिलेश यादव, अधिकांश विपक्षी नेताओं ने प्रधानमंत्री मोदी से जातिगत जनगणना करवाने की अपील की है. फिलहाल, संसद-सदस्यता से हटाए गए राहुल गांधी ने भी सरकार को चुनौती दी है कि या तो 2011 के आंकड़ों को सार्वजनिक करें या फिर फिलहाल हो रही जनगणना में ही जाति के आंकड़ें भी भरवाएं. कुल मिलाकर, भाजपा विरोधी अधिकांश दल इस बात पर सहमत हैं कि जातिगत-जनगणना जल्द से जल्द करवाई जाए, वहीं केंद्र सरकार ने यह साफ कर दिया है कि वह जातिगत जनगणना नहीं करवाने जा रही है.
यहां एक बार याद करना ठीक रहेगा कि 1989-90 के वर्ष भारतीय लोकतंत्र के लिए काफी परीक्षा वाले साल थे. उस समय वी पी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार केंद्र में थी. भाजपा के कमंडल के जवाब में वी पी सिंह ने वर्षों से धूल फांकती मंडल आयोग की रिपोर्ट को निकलवाया और उसकी रिपोर्ट लागू कर अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू कर दिया. उसके बाद तो जो हुआ, वह इतिहास ही है. न केवल देश की राजनीति के केंद्र में ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग आ गया, बल्कि बिहार और यूपी सहित अन्य कई राज्यों को पिछड़े वर्ग का सीएम भी मिला. देशव्यापी प्रदर्शन, हिंसा और आत्महत्या ने भी देश के मानस को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया. देश आज फिर से शायद उसी क्रॉसरोड्स पर है.
जिसकी जितनी संख्या भारी...
उसी दौरान एक चुनावी नारा बहुत चला था- जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी. यह 1984 में बनी राजनीतिक पार्टी बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने दिया था. एक प्रजातांत्रिक देश में विशुद्ध तौर पर अपने संख्याबल के तौर पर अपने अधिकारों को असर्ट करने का यह पहला और बिल्कुल अनूठा मौका था. बिहार में लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, (स्व.) रामविलास पासवान इत्यादि के उदय के साथ ही विशुद्ध जातिगत आधार पर और जाति के नेता उभर कर आए, तो यूपी में मुलायम सिंह यादव और बहन मायावती के तौर पर ओबीसी और दलित समुदाय को नए नेता मिले. इन दोनों राज्यों में राजनीति की धुरी ऐसी बदली कि आज लगभग साढ़े तीन दशकों के बाद भी ओबीसी ही इन जगहों की राजनीति के केंद्र में हैं. नरेंद्र मोदी के उदय के साथ ही केंद्र में पहली बार एक मजबूत प्रधानमंत्री मिला है, जो पिछड़े वर्ग से आता है.
जातिगत जनगणना का मतलब भी इसी से है कि जनगणना में जाति के भी आंकड़े भरे जाएं. जब आज अधिकांश सरकारी योजनाओं के केंद्र में जाति है तो यह कहने की बात नहीं कि जातिगत जनगणना की मांग की जाए. इसके पीछे यह भी डर है कि अधिकांश सरकारी योजनाओं में जो बेनिफिशियरी यानी लाभुक हैं, वे कहीं पीछे न रह जाएं और उनके बदले कोई और उनका लाभ न उठा ले. एक और बड़ी वजह यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर 50 फीसदी का जो कैप लगाया हुआ है, उसके भी बढ़ाने की चाहत कई राजनीतिक दल समय-समय पर कर चुके हैं. उनकी मांग के पीछे यही कारण है कि जातिगत आंकड़े उससे कहीं अधिक है, जितना बताया जा रहा है.
केंद्र को आखिर क्यों है इनकार
अगर सब कुछ इतना ही सीधा है, तो फिर जातिगत जनगणना में दिक्कत क्या है जो भाजपानीत केंद्र सरकार इसके विरोध पर अड़ी हुई है? इसलिए, कि सब कुछ इतना साफ और आसान है नहीं, जितना दिखता है. जब मंडल आयोग की रिपोर्ट को झाड़-पोंछकर उसकी अनुशंसा को लागू किया गया तो देश में आग लग गई थी. जगह-जगह आत्महत्या और हिंसा, आगजनी का बाजार गर्म हो गया था. जाति हमेशा से ही इस देश में एक जटिल मुद्दा रहा है. इसको समझने में बड़े-बड़े समाजशास्त्री और धुरंधर मुंह की खा चुके हैं. अब, मान लीजिए कि बिहार की जाति-जनगणना पूरी हो गई और 2024 से पहले नीतीश के नेतृत्व वाली सरकार ने इसे जारी कर दिया, तो इसका फायदा किसको मिलेगा? बिहार में मात्र एक बार भाजपा को मुंह की खानी पड़ी और महागठबंधन का प्रयोग सफल रहा था, वह भी 2015 में. उस साल राजद ने किसी तरह लोगों तक यह संदेश पहुंचा दिया था कि भाजपा आरक्षण विरोधी है. भाजपा सफाई देती रही, लेकिन नुकसान होना था सो हुआ. जाहिर तौर पर यह एक बार फिर से 1990 के दशक के मंडल-कमंडल की राजनीति को फिर से सुलगा देगा.
हालांकि, इस बार एक बुनियादी अंतर भी है. हिंदुत्व के बड़े झंडे के तले सभी जातियों को एकसार करने वाली भाजपा के केंद्र में भी ओबीसी ही हैं. देश के प्रधानमंत्री खुद पिछड़ी जाति से आते हैं और भाजपा इसका ढिंढोरा पीटने से कहीं नहीं चूकती है. बिहार से लेकर यूपी तक और दक्षिण में भी, सांसदों से लेकर मंत्रियों तक, भाजपा ने अपनी राजनीति के केंद्र में पिछड़ों को रखा है और इसलिए शायद इस बार भाजपा अपने नुकसान का पहले से आकलन कर सावधानी बरत रही हो.
हालांकि, अभी के हालात देखते हुए यह तो संभव नहीं लगता कि 2024 के चुनाव से पहले केंद्र सरकार जातिगत जनगणना करवाएगी या फिर पुराने आंकड़े भी जारी करेगी. इसके पीछे उसका अपना डर और अपनी राजनीति है.
[ये आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है.]