आखिर पूर्व पीएम नरसिम्हा राव और सोनिया गांधी के बीच झगड़ा क्यों था?
'लोग मुझसे राजनीति में आने को कह रहे हैं. अगर मैं आपकी बेटी होती तो आप क्या सलाह देते?'
राजीव गांधी की हत्या के करीब छह महीने बाद 1992 की शुरुआत में ये सवाल पूछा था सोनिया गांधी ने तब के कांग्रेस अध्यक्ष और देश के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से. नरसिम्हा राव ने जवाब दिया-
'आपने मेरी बेटी के तौर पर पूछा है तो मैं कहूंगा कि आप मत आइए.'
ये सवाल-जवाब बताता है कि दोनों के बीच भरोसा कितना गहरा था. ये भरोसा ही था कि पीएन हक्सर और कैप्टन सतीश शर्मा की सलाह पर सोनिया गांधी पीवी नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाने पर सहमत हो गई थीं. फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि राव और सोनिया के बीच दरार आ गई? आखिर ऐसा क्या हुआ था कि राव ने सोनिया गांधी का भरोसा खो दिया था और फिर जीते जी ही नहीं, मरने के बाद भी पीवी नरसिम्हा राव की डेड बॉडी को इसका अंजाम भुगतना पड़ा था, इसे जानने के लिए चला पड़ेगा उस इतिहास में जो शुरू हुआ था 21 जून, 1991 से.
सियासी संन्यास की ओर बढ़ रहे नरसिम्हा राव 21 जून, 1991 को देश के 10वें प्रधानमंत्री बने थे. उन्हें पता था कि ये पद उनके पास तब तक ही है, जब तक सोनिया गांधी उनसे इत्तेफाक रखती हैं. राव को ये भी पता था कि पीएन हक्सर और कैप्टन सतीश शर्मा की सलाह पर ही सोनिया गांधी राव के नाम पर सहमत हुई थीं. इसलिए राव जब प्रधानमंत्री बन गए, तो उनके सामने एक लक्ष्य तय था कि गांधी परिवार से नजदीकी बनी रहे और इसके लिए हर मुमकिन कोशिश भी की जाए. यही वजह थी कि प्रधानमंत्री बनने के बाद राव ने वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के साथ मिलकर जो आर्थिक नीतियां शुरू की थीं, उनमें से ज्यादातर योजनाओं के नाम में राजीव गांधी का नाम जुड़ा हुआ था. राजीव गांधी को देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजने का फैसला भी खुद राव की ही देन थी. सोनिया गांधी के संचालन में बने नए-नवेले राजीव गांधी फाउंडेशन को भी सरकार की ओर से 100 करोड़ रुपये का दान दिया गया था.
इसके अलावा राव हफ्ते में दो बार सोनिया गांधी से फोन पर जरूर बात करते थे. कभी-कभी तो उन्हें फोन पर इंतजार भी करना पड़ता था. इसके बारे में विनय सीतापति ने अपनी किताब हाफ लायन में लिखा है कि राव ने अपने सचिव पीवीआरके प्रसाद से इसकी शिकायत करते हुए कहा था कि मुझे तो इंतजार बुरा नहीं लगता है, लेकिन प्रधानमंत्री को जरूर बुरा लगता है. हालांकि राव लगभग हर हफ्ते सोनिया गांधी के घर जाकर उनसे मुलाकात करते रहते थे. इस बीच सोनिया गांधी ने जब अपने बच्चों राहुल और प्रियंका की सुरक्षा को लेकर राव से जिक्र किया तो राव ने कानून में संशोधन के जरिए प्रधानमंत्री की सुरक्षा करने वाली एसपीजी को पूर्व प्रधानमंत्री और उनके परिवार की सुरक्षा करने वालों के लिए भी लगा दिया.
लेकिन अप्रैल, 1992 आते-आते स्थितियां बदलने लगीं. अप्रैल, 1992 में तिरुपति में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ था. इसकी अध्यक्षता की थी पीवी नरसिम्हा राव ने. और ऐसा करने वाले वो नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के पहले शख्स थे. इस अधिवेशन के बाद से ही कांग्रेस के कुछ नेता राव की शिकायतें लेकर सोनिया गांधी के घर 10 जनपथ पर जाने लगे. लेकिन जाते तो नरसिम्हा राव भी थे. इसलिए स्थितियां सामान्य ही रहीं. 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई. एक पक्ष ने इसकी तारीफ की, दूसरे पक्ष ने इसका विरोध किया. विरोध के इन सुरों में एक सुर सोनिया गांधी का भी था, जो सार्वजनिक तौर पर उनका पहला सियासी बयान माना जा सकता है. इस बयान पर और किसी ने गौर किया हो, न किया हो, लेकिन नरसिम्हा राव ने जरूर किया.
भले ही बाबरी विध्वंस के लिए सोनिया ने प्रधानमंत्री को जिम्मेदार नहीं ठहराया था, लेकिन प्रधानमंत्री ने इंटेलिजेंस ब्यूरो को 10 जनपथ आने-जाने वालों पर नजर रखने का आदेश दे दिया. विनय सीतापति की किताब हाफ लायन के मुताबिक 18 दिसंबर को आईबी ने अपनी रिपोर्ट सौंपी. कहा कि 7 दिसंबर से 14 दिसंबर के बीच अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, नारायण दत्त तिवारी, माधव राव सिंधिया और अहमद पटेल ने सोनिया गांधी से मुलाकात की थी. रिपोर्ट में ये भी कहा गया था कि अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह और अहमद पटेल ने प्रधानमंत्री समेत अन्य लोगों ने बाबरी से जुड़े मामले से निपटने के तरीके पर नाराजगी जाहिर की थी.
लेकिन फिर भी नरसिम्हा राव सोनिया गांधी से हर हफ्ते मिलते रहो. वहीं विपक्ष सवाल उठाता रहा कि आखिर देश के प्रधानमंत्री को एक आम नागरिक को रिपोर्ट करने की जरूरत ही क्या है. इसका असर राव पर भी पड़ने लगा. तीन-तीन अविश्वास प्रस्ताव को विश्वास में बदलने के बाद राव के तेवर थोड़े तल्ख होने शुरू हो गए और आखिरकार 1993 का आधा साल बीतते-बीतते उन्होंने सोनिया गांधी के घर 10 जनपथ जाना छोड़ दिया. इससे राव के विरोधियों को मौका मिल गया. अर्जुन सिंह, नटवर सिंह, माखन लाल फोतेदार, शीला दीक्षित और विन्सेंट जॉर्ज ने सोनिया के कान भरने शुरू कर दिए. लेकिन अब 10 जनपथ में राव की बात रखने वाला कोई नहीं था.
नतीजा ये हुआ कि सोनिया गांधी को यकीन हो गया कि राजीव गांधी की मौत की जांच बेहद धीमी गति से हो रही है और इसके लिए जिम्मेदार राव हैं. बात तब और बिगड़ गई, जब 20 अगस्त, 1995 को सोनिया गांधी अमेठी पहुंच गईं. करीब 10 हजार लोगों की मौजूदगी में सोनिया ने भाषण दिया. कहा कि मेरे पति को गुजरे चार साल तीन महीने बीत गए हैं, लेकिन जांच धीमी गति से चल रही है. भीड़ ने नारे लगाए, राव हटाओ, सोनिया लाओ... ये सोनिया गांधी की पहली रैली थी, जिसमें सीधा मोर्चा राव के खिलाफ था.
इस बीच कांग्रेस टूट गई. राव के विरोधी रहे नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह, नटवर सिंह और शीला दीक्षित ने नई पार्टी बना ली. नाम रखा गया तिवारी कांग्रेस. वहीं ये बात भी सियासी गलियारों में घूमने लगी कि अब सोनिया गांधी राव का इस्तीफा चाहती हैं. लेकिन फिर एक दिन दिल्ली के हैदराबाद हाउस में इफ्तार पार्टी हुई, जिसमें सोनिया गांधी भी मौजूद थीं. वहां राव के करीबी ज्योतिषि एनके शर्मा भी मौजूद थे. शर्मा ने पूछा कि क्या आप राव का इस्तीफा चाहती हैं. सोनिया ने कहा...नहीं...
लेकिन राव को लगा कि उनके खिलाफ बड़ी साजिश रची जा रही है. उन्होंने इंटेलिजेंस ब्यूरो को काम पर लगा दिया. इस बीच उनकी सोनिया गांधी से सार्वजनिक तौर पर कई मुलाकातें भी हुईं. बात भी हुई...लेकिन एक गांठ तो थी, जो दोनों के बीच पड़ गई थी. ये बात भी आम हो गई थी कि राव बिना नेहरू-गांधी परिवार के कांग्रेस की कल्पना करने लगे हैं. 1996 के चुनावी नतीजों ने राव की इस कल्पना पर कालिख पोत दी. नरसिम्हा राव के बाद सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष बने और फिर 1998 में कांग्रेस की कमान खुद सोनिया गांधी ने संभाल ली. 1999 के चुनाव में राव को टिकट तक नहीं मिला. वो बीमार पड़े तो बहुत कम ऐसे कांग्रेसी थे, जो उन्हें देखने उनके घर 9 मोतीलाल नेहरू मार्ग पर पहुंचे. 23 दिसंबर, 2004 को जब नरसिम्हा राव की मौत भी हुई तो न तो उनका शव कांग्रेस मुख्यालय तक पहुंचाया गया और न ही दिल्ली में उनका अंतिम संस्कार करवाया जा सका. कांग्रेस के अंदर और कांग्रेस के बाहर भी लोग यही मानते हैं कि इस फैसले के लिए सिर्फ और सिर्फ एक शख्स जिम्मेदार था और वो थीं खुद सोनिया गांधी, जिन्होंने अपने ही बनाए प्रधानमंत्री के अंतिम संस्कार में भी भाग लेना मुनासिब नहीं समझा था.
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