काफी जद्दोजहद के बाद अब अफगानिस्तान में तालिबान की अंतरिम सरकार बन रही है जिस पर भारत समेत दुनिया के तमाम ताकतवर मुल्कों की नजरें टिकी हैं. सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या अमेरिका ऐसी सरकार को मान्यता देगा, जिसके होने वाले गृह मंत्री को उसने आतंकवादी घोषित करते हुए उस पर एक करोड़ डॉलर का ईनाम रखा हुआ है?


मंगलवार को तालिबान ने इस सरकार की बागडोर संभालने वाले जिन लोगों के नाम का एलान किया है, उसमें सबसे बड़ा नाम सिराजुद्दीन हक़्क़ानी का है, जो इस सरकार के गृह मंत्री होंगे.हक्क़ानी का नाम अमेरिकी एजेंसी एफ़बीआई के 'वांछित आतंकवादियों' की लिस्ट में है.वो हक्कानी नेटवर्क का प्रमुख है,जिसे अमेरिका ने 'आतंकवादी संगठनों' की लिस्ट में अभी भी रखा हुआ है.


लिहाज़ा, जो लोग ये सवाल उठा रहे हैं कि तालिबान की इस सरकार के प्रति भारत कैसा रुख अपनायेगा, उन्हें तो पहले अमेरिका से पूछना चाहिए कि वो अब क्या करेगा, जिसने पहले तो आतंक के इन जन्मदाताओं को अपना हीरो बनाया और फिर 9/11 के हमलों के बाद एक झटके में ही विलेन बना दिया. अब भारत अपनी रणनीति का खुलासा करे, उससे पहले तो अमेरिका समेत यूरोपीय संघ के तमाम मुल्कों को ये तय करना होगा कि दहशतगर्दी के रहनुमाओं के दम पर बन रही  इस सरकार से वे कोई रिश्ता रखना भी चाहते हैं कि नहीं.भारत अपनी पूरी कूटनीति दुनिया के इन ताकतवर देशों के रुख के आधार पर ही तय करेगा लेकिन साथ ही ये भी देखेगा कि पाकिस्तान के अलावा चीन और रुस किस हद तक इस सरकार को अपनी गोद में बैठाने की पहल करते हैं.


तालिबान ने अपनी अंतरिम सरकार का जो खाका पेश किया है, वो उसके दावे के बिल्कुल उलट है. उसने दुनिया के आगे ये दावा किया था कि वह एक ऐसी समावेशी सरकार बनाएगा जिसमें महिलाओं समेत हर वर्ग व विचारधारा का प्रतिनिधित्व होगा. लेकिन, इस अंतरिम सरकार की सारी कमान तो उन कट्टरपंथी लोगों के हाथ में है, जो सिर्फ बंदूक की भाषा ही समझना व समझाना जानते हैं. उनसे मेज पर बैठकर शांति, भाईचारे व मानवाधिकार जैसे मसलों पर बातचीत के जरिये किसी नतीजे पर पहुंचने की उम्मीद करना ही बेकार है.


मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद सरकार के मुखिया यानी प्रधानमंत्री होंगे,जो तालिबान के संस्थापकों में से एक हैं.तो वहीं मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर उप प्रधानमंत्री होंगे,जो तालिबान के सह संस्थापक हैं.ये वही अखुंद हैं,जो अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की पिछली सरकार (1996-2001) के दौरान गवर्नर और मंत्री रह चुके हैं.वो तालिबान के संस्थापक और पूर्व सुप्रीम लीडर मुल्ला उमर के सलाहकार भी थे.


लेकिन, इस सरकार में चरमपंथी समूह हक्कानी नेटवर्क के मुखिया सिराजुद्दीन का शामिल होना ही सबसे ज्यादा खतरनाक माना जा रहा है.क्योंकि आतंकियों का ये गुट एक तरफ तालिबान का सहयोगी है,तो उसका इतिहास सबसे खूंखार आतंकी संगठन अल कायदा से जुड़े रहने का भी है.अफगानिस्तान में दो दशक से ज़्यादा वक़्त तक चली जंग के दौरान हक्कानी नेटवर्क को कई जानलेवा हमलों का जिम्मेदार माना जाता है.


दरअसल, इस आतंकी समूह को सिराजुद्दीन के पिता जलालुद्दीन ने खड़ा किया था.पाकिस्तान के साथ लगती सीमा पर अफ़ग़ानिस्तान का एक ख़ूबसूरत पहाड़ी प्रांत है जिसका नाम है- पक्तिया. छोटी-छोटी घाटियों वाले इस क़बायली इलाक़े में ज़्यादातर पश्तून रहते हैं. सर्दियों में ये वादियां बर्फ़ की सफ़ेद चादर से ढक जाती हैं.लेकिन ये प्रांत अपनी ख़ूबसूरती से ज़्यादा दुनिया के मोस्ट वॉन्टेड आतंकियों  में शुमार रहे जलालुद्दीन हक्कानी की वजह से पहचाना जाता है, जिनका यहां जन्म हुआ था. जदरान क़बीले से ताल्लुक रखने वाले जलालुद्दीन हक्कानी एक समय अमरीका और उसके सहयोगी देशों के लिए हीरो थे, मगर बाद में विलेन बन गए.


पाकिस्तान की वरिष्ठ पत्रकार सबाहत ज़कारिया ने एक इंटरव्यू में बताया था कि," अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के लिए भी हक्कानी काफी महत्व रखते थे.सोवियत संघ के हमले के समय जलालुद्दीन हक्कानी जाने-माने मुजाहिदीन नेता थे. उस समय उनकी अपनी अलग पहचान थी.ऐसे में सीआईए और पाकिस्तान की आईएसआई ने मिलकर उन्हें फंड किया, मिलिट्री ट्रेनिंग दी और सोवियत स्ट्रैटिजी में उन्हें एक महत्वपूर्ण टूल समझा." लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में जब अमरीकी अभियान शुरु हुआ,तो उसने अल कायदा, तालिबान और हक्कानी नेटवर्क को एक-दूसरे के क़रीब लाकर रख दिया. इसी के साथ अफगानिस्तान में अमरीका के लिए महत्वपूर्ण सहयोगी रहा हक्कानी मोस्ट वॉन्टेड आतंकी समूह बन गया.अमरीका ने साल 2012 में ही हक्कानी नेटवर्क को प्रतिबंधित कर दिया था.लेकिन पाकिस्तान ने 2014 में पेशावर के एक स्कूल में बच्चों पर हुए आतंकी हमले के बाद 2015 में लाए गए नैशनल ऐक्शन प्लान के तहत इस पर बैन लगाया.वह भी महज़ इस दिखावे के लिए,ताकि आतंकवाद के खिलाफ लड़ने में उसे अमेरिका से आर्थिक मदद मिलती रहे.


अफ़गानिस्तान में भारत के राजदूत रह चुके विवेक काटजू के मुताबिक "पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क और तालिबान का इस्तेमाल करता रहा है. हक्कानी उसका इंस्ट्रूमेंट है. हक्कानी नेटवर्क ने भारत के दूतावास पर दो बार हमला किया था. यह कहना बिल्कुल ग़लत होगा कि हक्कानी नेटवर्क और तालिबान पाकिस्तान के इशारों पर नहीं चलते हैं."


उनकी ये बात इसकी पुष्टि करती है कि पाकिस्तान ने इस अंतरिम सरकार के गठन में जरुरत से ज्यादा अपनी दिलचस्पी दिखाई.यहां तक कि आईएसआई के मुखिया काबुल पहुंच गए और मंत्रालयों का बंटवारा अपने मन मुताबिक करवाने में भी वे काफी हद तक कामयाब हो गए.


आपको बता दें कि 21 अगस्त 2014.को अमेरिका ने आतंकी संगठन हक़्क़ानी नेटवर्क के प्रमुख नेताओं के बारे में सूचनाएं देने वालों के लिए तीन करोड़ डॉलर के ईनाम देने की घोषणा की थी.तब अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा था, ''विभाग ने अज़ीज़ हक्कानी, ख़लील-अल-रहमान हक़्क़ानी, याहया हक़्क़ानी और अब्दुल रऊफ़ ज़ाकिर का पता बताने वालों के लिए 50-50 लाख डॉलर का पुरस्कार घोषित किया है.'' उस बयान के मुताबिक़ समूह के नेता सिराजुद्दीन हक्कानी पर पहले से घोषित 50 लाख डॉलर के इनाम को बढ़ाकर अब एक करोड़ डॉलर कर दिया गया है.अमरीकी विदेश विभाग ने हक़्क़ानी नेटवर्क को एक खतरनाक संगठन बताते हुए ये भी कहा था कि उसके अल-क़ायदा और अफ़ग़ान तालिबान के साथ ताल्लुक़ात हैं. उनका इलाक़े के अन्य आतंकी संगठनों के साथ भी संबंध हैं.



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