राजनीति,अर्थशास्त्र व दर्शनशास्त्र के महान पंडित चाणक्य को भारत का “मेकियावली “कहा जाता है.चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य की शासन व्यवस्था चलाने के लिए “अर्थशास्त्र”नाम से पुस्तक लिखी थी,जो इतने बरसों बाद भी भारतीय राजनीति पर बिल्कुल सटीक बैठती है. पश्चिम बंगाल की राजनीति में पिछले कुछ अरसे से चल रही उठापटक या फिर कहें कि 'घर वापसी' की बात ,तो चाणक्य का ये कथन बिल्कुल सही साबित होता है कि "राजनीति अपने स्वार्थ को साधने का सबसे बड़ा साधन है,इसलिये राजा यदि किसी से अपना विश्वासपात्र होने की अपेक्षा रखता है,तो ये उसकी सबसे बड़ी भूल है." लेकिन आधुनिक राजनीति का हर शासक इस गलती को दोहराता आया है और उसका कड़वा स्वाद चखने से भी वो अछूता नहीं रहा है.
देश की राजनीति में पश्चिम बंगाल अकेला ऐसा प्रदेश है,जहां पहले कांग्रेस और उसके बाद तीन दशक से कुछ ज्यादा वक्त तक सिर्फ लाल झंडे का ही राज चलता था.कांग्रेस में रहते हुए ही एक फायर ब्रांड नेता की इमेज बनाने वाली ममता बनर्जी ने बंगाल के लोगों की नब्ज को तभी समझ लिया था कि जनता को एक ऐसे विकल्प की तलाश है,जो उनकी सारी न सही लेकिन बुनियादी जरुरतों वाली उम्मीदों को पूरा कर सके.सत्ता के बेहद नजदीक रहते हुए भी ममता ये समझ चुकी थीं कि वे कांग्रेस में रहते हुए इस विकल्प को पूरा नहीं कर सकतीं. लिहाज़ा, वो कांग्रेस से अलग हुईं और अपनी नई पार्टी यानी तृणमूल कांग्रेस बनाकर लाल साम्राज्य से मुकाबला करने के लिए मैदान में उतर आईं.
अखाड़े की मिट्टी पर कुश्ती लड़ने के लिए उतरे नये पहलवान को कभी ये मुगालता नहीं होता कि वो पहली बार में ही उसे जीत लेगा,बल्कि वो उससे ये सिखता है कि मेरा विरोधी पहलवान किन पेंचों के जरिये मुझे धराशायी करता है.कुश्ती का वही फलसफा सियासी मैदान पर भी लागू होता है.सो,ममता ने पहली असफलता के बाद हार नहीं मानी,बल्कि दोगुनी ताकत के साथ लड़ाई लड़ी और बंगाल का किला फतह किया. लेकिन इस सच से भी इंकार नहीं कर सकते कि सियासत के मैदान में अगर एक अदना-सा बादशाह ही ऐसे अभेद्य किले को फतह कर ले,तो जाहिर है कि ताकतवर शहंशाह की ख्वाहिश होती है कि आखिर वो इसे कैसे नहीं फतह कर सकता.साल 2014 के लोकसभा चुनावों से जो शुरुआत हुई,उसके अच्छे नतीजे 2019 में देखने को भी मिले.लेकिन इस साल हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों ने न सिर्फ बाज़ी उलट दी,बल्कि उन सबकी उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया,जिन्होंने ममता का साथ छोड़ दिया था,ये सोचकर कि उन्हें जितना मिला है उससे भी ज्यादा मिलेगा ही.
कहते हैं कि इंसान का वक़्त बदलने के साथ उसकी विचारधारा बदलने में भी देर नहीं लगती.सो,यही सब इन दिनों बंगाल की राजनीति में देखने को मिल रहा है.मुकुल राय वह नाम है जिन्हें बंगाल में ममता का सबसे खास सिपहसालार समझा जाता था.लेकिन उन्होंने तृणमूल को छोड़ बीजेपी का दामन थामा लेकिन जब समझ आया कि वहां उन्हें उतनी हैसियत मिल ही नहीं सकती, तो उन्होंने फौरन 'घर वापसी' में ही अपनी भलाई समझी.बात करते हैं हिंदीं फिल्मों के मशहूर गायक बाबुल सुप्रियो की जिन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने ही लांच किया था. उन्हें सरकार में मंत्री भी बनाया गया और 2019 में वे दोबारा सांसद निर्वाचित हुए.लेकिन ये उनकी बदकिसमती ही कह सकते हैं कि वे हाल ही में सम्पन्न विधानसभा का चुनाव अपने ही संसदीय क्षेत्र से हार गए. उसकी सज़ा उन्हें ये मिली कि उन्हें मंत्रिमंडल से ही बाहर कर दिया गया.अब ये भी सोचने वाली बात है कि गायन की दुनिया छोड़कर पिछले सात साल से जिसे राजनीति/सत्ता का चस्का लग गया हो,तो वो इतनी आसानी से तो नहीं छूटता. सो,उन्होंने भी बीजेपी को अलविदा कहते हुए ममता का दामन थाम लिया.
अब बंगाल से ही बीजेपी के लिए एक और बुरी खबर सुनने को मिल रही है. बंगाली फिल्मों की चर्चित अभिनेत्री लॉकेट चटर्जी हुगली से पार्टी की सांसद हैं,जो पिछले लोकसभा चुनाव में खासे वोटों के अंतर से जीतकर आईं हैं. कहा जा रहा है कि वे बीजेपी में अपनी उपेक्षा से खफा हैं और जल्द ही ममता की तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम सकती हैं.सोशल मीडिया पर उनकी कही बातों और उस पर टीएमसी के नेताओं की जवाबी प्रतिक्रिया से तो यही संकेत मिलते हैं कि वे भी बाबुल सुप्रियो के रास्ते पर आने को उतावली हैं.अगर ऐसा होता है,तो बीजेपी के लिए बाबुल के बाद ये दूसरा बहुत बड़ा झटका होगा.
बताते हैं कि कई कारणों से लॉकेट चटर्जी पार्टी में ख़ुद को अलग-थलग महसूस कर रही हैं. वो बंगाल में बीजेपी महिला मोर्चा की प्रमुख थीं, लेकिन उनको हटाकर अग्निमित्रा पॉल को महिला मोर्चे की ज़िम्मेदारी दे दी गई. मोदी कैबिनेट के विस्तार में भी जगह नहीं मिलने के कारण लॉकेट नाराज़ हैं. इसके साथ ही सांसद होने के बावजूद उन्हें विधानसभा चुनाव में उतारने के फ़ैसले से लॉकेट ख़ुश नहीं थीं क्योंकि वे भी बाबुल की तरह ही चुनाव हार गईं थीं. लिहाज़ा, अब बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय तो ये होना चाहिए कि बंगाल में अपना किला मजबूत करने से पहले ही वो ढह क्यों रहा है और इसके पीछे अहंकार ही कहीं सबसे बड़ी वजह तो नहीं है?
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