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क्या एमपी और राजस्थान विधानसभा चुनावों के लिए अपने सीएम चेहरे बदलेगी भाजपा?
इसी वर्ष चुनावों का सामना करने जा रहे मध्य प्रदेश और राजस्थान में इतना तो तय है कि मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होगा. लेकिन रहस्य-रोमांच इस बात का है कि क्या भाजपा शासित इन दोनों राज्यों में पार्टी शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे के मौजूदा चेहरों को ही मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाकर मैदान में उतरेगी या फिर मुखड़े बदल दिए जाएंगे. आखिर एंटीइनकंबैंसी भी कोई शै होती है.
मौजूदा हालात बताते हैं कि कांग्रेस की आपसी गुटबाजी के चलते भाजपा के लिए सत्ता में फुस्स ही सही, वापसी के राजस्थान से ज्यादा अवसर मध्य प्रदेश में हैं और शिवराज सिंह चौहान के दोबारा मुख्यमंत्री बनने के अवसर उतने ही ज्यादा हैं. दूसरी ओर भाजपा के लिए सत्ता में वापसी के बहुत कम अवसर राजस्थान में हैं और वसुंधरा राजे के दोबारा मुख्यमंत्री पद का दावेदार बनाए जाने का अवसर तो दस में से मात्र एक ही है.
अमित शाह पहले ही घोषित कर चुके हैं कि 2018 का विधानसभा चुनाव शिवराज की अगुवाई में ही लड़ा जाएगा जबकि राजे के बारे में शाह ने ऐसा इशारा तक नहीं दिया है. मोदी सरकार द्वारा चलाई गई उज्जवला योजना, स्वच्छ भारत अभियान जैसी जनकल्याण की लोकलुभावन योजनाओं को जमीन पर उतारने में भी शिवराज बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं.
नर्मदा यात्रा के दौरान शिवराज ने मोदी जी को बुलाकर जिस प्रकार से अपनी लोकप्रियता और ताकत का प्रदर्शन किया, मोदी जी उसके कायल दिखे. शिवराज पूरे एमपी की बच्चियों के मामा कहलाते हैं. उनकी खुद की चलाई गई लाडली लक्ष्मी योजना, सूखा राहत में कन्या विवाह, मूलधन में 10% की छूट वाली ऋण योजना, छात्रों के लिए मार्कशीट के आधार पर रोजगार ऋण योजना, सहरिया आदिवासी महिलाओं के लिए विशेष पेंशन योजना जैसे कई कदम हैं, जिनके आधार पर वह अपनी पीठ थपथपा सकते हैं.
इसके साथ-साथ शिवराज ने किसानों को फसल के समर्थन मूल्य से भी अधिक दाम दिलाने के लिए भावांतर योजना चलाकर, संविदा और दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों को नियमित करते हुए उनका वेतन बढ़ाकर जनाक्रोश ठंडा करने की कोशिश शुरू कर दी है. जबकि वसुंधरा ने फिल्म ‘पद्मावत’ के विरोध में उतरी करणी सेना यानी राजपूतों को खुली छूट देने के अलावा कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया. कार्यकाल के मामले में भी शिवराज स्वयं मोदी को पीछे छोड़ते हुए रमन सिंह के बाद भाजपा के दूसरे सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्रित्व संभालने वाले नेता बन गए हैं.
ऐसा भी नहीं है कि खुद को मिस्टर क्लीन के तौर पर पेश करने वाले शिवराज के दामन में दाग नहीं हैं. उनकी 13 सालों की सरकार के दौरान व्यापम, अवैध रेत-खनन, प्याज खरीदी घोटाला, फसल बीमा योजना में करोड़ों के भ्रष्टाचार, अधिकारियों-कर्मचारियों की घूसखोरी का माउंट एवरेस्ट बनना और डंपर जैसे दैत्याकार घोटालों के आरोप लगे. इसके अलावा किसान गोलीकाण्ड, किसानों की बढ़ती आत्महत्याएं, पदोन्नति में आरक्षण, बिजली–पानी की किल्लत, सड़कों की दुर्दशा जैसे मामलों ने जनता और कर्मचारियों को आज भी उद्वेलित कर रखा है.
महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा और बलात्कार के मामलों में भी एमपी सर्वोपरि है. शहरी क्षेत्रों को मलाई मिली है जबकि ग्रामीण क्षेत्र गरीब की लुगाई बने हुए हैं. शायद इसीलिए शिवराज के पूरा दम लगाने के बावजूद ग्रामीण क्षेत्र की अटेर और चित्रकूट विधानसभा सीटों पर हाल ही में हुए उप-चुनाव में भाजपा बुरी तरह हार गई.
इस सबके बावजूद भाजपा के लिए शिवराज की जगह किसी दूसरे चेहरे को प्रोजेक्ट करना आसान नहीं होगा. एमपी में शिवराज के समकक्ष भाजपा का कोई नेता नहीं टिकता. बाबूलाल गौर और सरताज सिंह जैसे दिग्गज अपने अस्तित्व का प्रमाण देने मात्र के लिए कभी-कभी टर्रा उठते हैं. अमित शाह का करीबी होने के बावजूद कैलाश विजयवर्गीय की मालवा छोड़ एमपी के अन्य इलाकों में वह हैसियत नहीं है कि वे शिवराज को चुनौती दे सकें.
एमपी भाजपाध्यक्ष रहे प्रभात झा केंद्र में चले गए. दूसरी बार एमपी भाजपाध्यक्ष चुने गए नंदकुमार चौहान से संगठन ही ठीक से नहीं संभल पा रहा. भाजपाध्यक्ष अमित शाह ने उन्हें पिछले साल सबके सामने डांटते हुए कहा था- ‘ज्यादा भूमिका मत बनाओ और बैठक शुरू करो. मैं यहां भाषण सुनने नहीं आया हूं.’ अर्थात् मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान पार्टी की तरफ से निष्कंटक लग रहे हैं.
राजस्थान की बात करें तो अधिकांश लोगों को राजे सरकार द्वारा चलाई गई एक भी कल्याणकारी योजना का नाम ठीक से याद नहीं है. वे नोटबंदी, जीएसटी, सर्जिकल स्ट्राइक, बुलट ट्रेन, पीएम जन-धन योजना आदि की बात करते हैं, जो केंद्र की योजनाएं हैं. राज्य के गुज्जर इस बार ओबीसी से आरक्षण कोटा छीनने के प्रयास में कांग्रेस का समर्थन कर सकते हैं. लोकसभा उप-चुनावों में अजमेर और अलवर सीट पर भाजपा पिछले दिनों भारी मतों के अंतर से हारी और माण्डलगढ़ विधानसभा उप-चुनाव में भी कांग्रेस ने सेंध लगा दी. इससे भाजपा आलाकमान तक वसुंधरा राजे की राज्य पर पकड़ ढीली हो जाने का संदेश साफ तौर पर चला गया है.
वसुंधरा राजे के नेतृत्व में सूबे की औद्योगिक विकास दर कम हुई है जिसका अर्थ है बेरोजगारों की फौज का बढ़ना. राज्य में हिंसक भीड़ द्वारा की गई साम्प्रदायिक हिंसा का परनाला बह निकला है, जिससे सिविल सोसाइटी आक्रोशित है.
वसुंधरा के राजसी और पक्षपाती रवैये के चलते राज्य का पार्टी नेतृत्व उन्हें अधिक पसंद नहीं करता. फिर राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस का बारी-बारी से सत्ता में आने का इतिहास रहा है और 2018 में बारी कांग्रेस की है. यह सिलसिला तोड़ने और एंटीइनकंबैंसी से जनता का ध्यान भटकाने के लिए भाजपा वसुंधरा राजे की जगह किसी नए चेहरे को प्रोजेक्ट करने का टोटका कर सकती है.
पिछले दिनों यह भी देखा गया है कि मध्य प्रदेश के मुकाबले राजस्थान में कांग्रेसी दिग्गज ज्यादा नजदीकी से काम कर रहे हैं. एमपी में कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, अरुण यादव, अजय सिंह राहुल आदि ने अपने-अपने प्रभावक्षेत्र वाले सतपुड़ा, चंबल, मालवा, निमाण और विंध्य जैसे सूबे बना रखे हैं. दूसरी तरफ समूचे राजस्थान में अशोक गहलोत, राजेश पायलट और सीपी जोशी का आपसी तालमेल पूर्व-कटुता के बावजूद बेहतर नजर आ रहा है. इसलिए भी एमपी में शिवराज को परदे के सामने और राजस्थान में वसुंधरा को परदे के पीछे रखना भाजपा की मजबूरी है. लेकिन एक बात स्पष्ट है- देश में चुनाव कहीं भी हों, एंग्री ओल्ड मैन की भूमिका तो मोदी जी को ही निभानी है!
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