मेरा रंग
बन गया पीड़ा दायक
जब बचपन में
अपनों ने कराया था
मेरा परिचय मेरे रंग से


दलित कवियत्री रजतरानी मीनू की यह काव्यात्मक अभिव्यक्ति वो दर्पण है जिसमें रंगभेदी समाज पूरा नंगा दिखता है. वही समाज जो काले रंग को हर स्थिति में कमतर या अशुभ मानता है. यह समाज सफेद रंग के प्रति इतना आकर्षित होता है कि दूसरे हर रंग के प्रति मन में हीन भावना आ जाती है. यही सोच एक ऐसे समाज की रचना कर देती है जहां अगर किसी के चमड़ी और खासकर चेहरे का रंग सफेद यानी गोरा नहीं है तो यह बेहद शर्मिंदगी का विषय हो जाता है.


वैसे तो भारतीय समाज में जाति के आधार पर भेदभाव सदियों से किया जाता रहा है, लेकिन अक्सर कहा जाता है कि रंगभेद भारत में नहीं है. यह सरासर झूठ है क्योंकि भारतीय समाज का प्रभावी विचार है कि काला खराब है और गोरा होना सुंदर होना है, गोरे लोग बेहतर होते हैं, अक्लमंद और श्रेष्ठ होते हैं.


हां इतना कहा जा सकता है कि यहां भारतीय समाज में रंगभेद लैंगिक आधार पर ज्यादा है और इसलिए यह अधिक खतरनाक भी है. हमारे समाज में लड़कियों का सांवला या काला रंग बदसूरती का प्रमाण माना जाता है. बचपन से ही उनके रंग के कारण उनका आत्मविश्वास खत्म कर दिया जाता है. उनके व्यक्तित्व को बेरहमी से कुचला जाता है.


लड़कियों के लिए नौकरी में उनकी योग्यता से अधिक उनका रंग मायने रखता है. आज सेल्स गर्ल से लेकर एअर होस्टेस तक गोरे रंग वाली लड़कियों की जरूरत है. वैवाहिक विज्ञापन से लेकर फिल्मी दुनिया तक हर जगह सिर्फ गोरे रंग की लड़कियां ही मांग में हैं. इन जरूरतों ने बाजार को भी पंख लगा दिए हैं और वह गोरे होने के लिए अलग-अलग तरह के क्रीम बेचने लगी है. बाजार ने इस तरह का वातावरण बना दिया है जैसे मानों भारतीय समाज में लड़कियों के लिए सांवला या काला रंग किसी शारीरिक अपंगता जितना ही बड़ा अभिशाप है.


फेयर एंड लवली का नाम बदला जाएगा


ताजा खबर ये है कि एफएमसीजी यानी फास्ट मूविंग कन्ज्यूमर गुड्स, कंपनी यूनीलिवर ने गोरेपन को बढ़ावा देने वाले प्रोडक्ट की मार्केटिंग में बदलाव का फैसला किया है और इसी के तहत कंपनी फेयर एंड लवली का नाम बदलेगी और फेयर शब्द हटाएगी. कदम निश्चित तौर पर सराहनीय है लेकिन सवाल यह है कि सदियों से गोरा बनाने वाली क्रीम के विज्ञापनों में सावले रंग की लड़की को सिर्फ हीनता की शिकार के तौर दिखाकर और क्रीम के इस्तेमाल के बाद उसे गोरे रंग की लड़की में बदलकर जिस सामाजिक सोच का निर्माण ये कंपनियां कर चुकी है क्या उसमें भी बदलाव आएगा.


काला अशुभ या हीन क्यों है ?


जाने-अनजाने में हम कई तरह की काली चीजों का इस्तेमाल करते हैं. हर घर में खाना बनाने में प्रयुक्त होने वाले हांड़ी, पतीला, कढ़ाई अक्सर नीचे से काले होते हैं. तवा तो पूरा काला होता है. इस काले तवे पर सफेद रोटी पकती जो पेट भरती है. काली भैंस के सफेद दूध से दही, घी, मक्खन, मिठाई आदि बनते हैं. सड़कें काली होती है और उनपर दौड़ने वाले मोटर गाड़ियों के पहिए भी काले होते हैं. शुगर की बीमारी में काला जामुन हमारी जान बचाता है. गर्मी से तपते हुए लोगों के चेहरे पर काले बादल को देखकर ही मुस्कान आ जाता है. काली कोयल की मधुर आवाज कानों को सबसे ज्यादा सुकून देते हैं. हम इंसानों की दुनिया कई रंगों से रंगीन है, उन्हीं में एक खूबसूरत रंग काला भी है. तो फिर कुदरत की इस नेमत को स्वीकारने में हम क्यों झिझकते हैं.


बॉलीवुड और काला रंग


फिल्म 'सच्चा-झूठा' में गीतकार इन्दीवर द्वारा लिखा गया गीत जिसे कल्याणजी-आनंदजी ने कंपोज किया और किशोर कुमार ने आवाज दी, आप सबने सुना होगा. गाने के बोल थे '' दिल को देखो, चेहरा न देखो, चेहरे ने लाखों को लूटा, दिल सच्चा और चेहरा झूठा'', या फिर फिल्म गुमनाम में जब शैलेंद्र ने लिखा “हम काले हैं तो क्या हुआ दिल वाले हैं'' या फिर “ मोरा गोरा रंग लेई ले..मोहे श्याम रंग देई दे..” तो लगा मानों काले होने पर शर्मिंदगी को खत्म करने के लिए गीतकार और बॉलीवुड ने कमर कस ली है, लेकिन तभी दूसरे गीतों के बोल की तरफ ध्यान गया.


एक पुराने गीत में हिरोइन गुनगुनाती है, “गोरे ..गोरे .. ओ बांके छोरे..कभी मेरी गली आया करो'' इन लफ्जों ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि फिल्मी गीतों के जरिए एक बाजार तैयार किया जा रहा है जहां आकर्षक दिखने की शर्त सिर्फ महिलाओं के लिए नहीं बल्कि पुरुषों के लिए भी होगा. आज बाजार में देख लीजिए, जितनी महिलाओं को गोरा बनाने वाली क्रीम मौजूद है उतनी ही पुरुषों को भी.


बॉलीवुड में ऐसे हजारों गीत मिल जाएंगे जो सफेद रंग को बेहतर मानने का प्रतीक है. उदाहरण के तौर पर ''चांद सी महबूबा हो मेरी तुम..कब ऐसा मैंने सोचा था'', या फिर ''चौदवीं का चांद हो या आफताब हो'' या ''गोरे गोरे चांद से मुख पर काली काली आंखें हैं'' या फिर ये देख लीजिए, ''चांदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसा बाल'', ऐसे कई गीत हैं जो चांद को गोरेपन का प्रतीक बनाकर लिखे गए हैं.


बॉलीवुड में इस गंभीर पक्षपात से एक मात्र अनजान साहब ही बचते हुए नजर आते हैं, जिन्होंने ऐसा बर्ताव नहीं किया और काले-गोरे दोनों को समभाव से देख दोनों की तारीफ़ एक ही गीत में कर दिया –


“जिसकी बीबी गोरी उसका भी बड़ा नाम है..कमरे में बिठालो बिजली का क्या काम है...
जिसकी बीबी काली उसका भी बड़ा नाम है आंखों में बसा लो सुरमें का क्या काम है.''


साहित्य और काला रंग


साहित्य में भी काले रंग के प्रति बड़े स्तर पर उदासीनता ही देखने को मिली है. हर शब्द जो शुभ नहीं होता उसमें काला जोड़ दिया गया है. भाषाई शब्दकोष ऐसे शब्दों से भरे पड़े हैं. उदाहरण के तौर पर काला धन, काला दिल, काला कारनामा, काला जादू, मुंह काला करा लिया, इतिहास का काला अध्याय आदि.


लगभग यही हाल लोकस्मृति में और धर्मग्रंथों में भी देखने को मिलती है. देवी-देवताओं और अप्सराओं को गोरा यानी सफेद रंग और राक्षसों का काला रंग बताया और दिखाया जाता है. हां अपवाद के तौर पर, राम और कृष्ण को सांवला भी बताया जाता है, लेकिन जब उनकी तस्वीर या मूर्ति बनाई जाती है, तो उन्हें नीला बना दिया जाता है.


क्या फेयरनेस क्रीम के नाम बदल देने से कुछ बदलेगा


बाजार हर रोज सौंदर्य को लेकर एक नए नियम को गढ़ता है. सौंदर्य के दो पक्ष हैं, पहला स्वीकार और दूसरा नकार. किसी को भी जैसा वह है वैसे ही स्वीकारना और नकारना, दोनों में अंतर है. स्वीकार यथास्थिति का समर्थन करता है और जो चीज जैसी हो उसको वैसी ही स्वाकार कर लेता है, जबकि नकारता का भाव परिवर्तन के अवसर प्रदान करता है. इसलिए महत्वपूर्ण यह नहीं कि बाजार रंगभेद के नियम बदल रहा हो, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि आप अपने रंग के प्रति मन में सम्मान का भाव रखिए.


अमेरिका में नीग्रो लोग जिस रंग भेद का शिकार रहे, अपने उसी काले रंग पर उन्होंने गर्व करना सीखा. 'Black is Beauty' कहते ही वे न केवल काले रंग के हीनता बोध से मुक्त हो जाते हैं बल्कि उनके अंदर यह आत्मविश्वास पैदा हो जाता है कि हम किसी से कम सुंदर नहीं हैं.


(उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)