तीन कृषि कानून को वापस लेने के फैसले से किसान खुश तो हो गए हैं लेकिन क्या वे पांच राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में बीजेपी के लिए गेम चेंजर भी साबित होंगे? ये सवाल इसलिये कि पांच में से तीन राज्यों की कुल 314 सीटें ऐसी हैं जहां किसान हावी होने के साथ ही निर्णायक भूमिका में हैं.लिहाज़ा, उनकी नाराजगी या ख़ुशी बीजेपी के लिए बेहद मायने रखती है.
कृषि कानून वापसी के पूरे पॉलिटिकल गणित और इसके चुनावी फायदे को समझने के बाद ही सरकार को अपने अड़ियल रुख से पीछे हटना पड़ा है.दरअसल,पंजाब,उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड की 75 फीसदी से ज्यादा अर्थ व्यवस्था कृषि पर ही आधारित है.यानी इन तीनों प्रदेशों में सिर्फ किसान ही नहीं बल्कि मजदूर से लेकर व्यापारी तक, सभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से खेती से जुडे़ हैं.इसलिये ये माना जाता है कि कृषि से जुड़ा कोई भी सरकारी फैसला पंजाब और उत्तर प्रदेश की राजनीति को बेहद गहराई से प्रभावित करता है.
अगर यूपी की बात करें,तो वहां की 403 में से तकरीबन 210 सीटें ऐसी हैं, जहां पर किसान ही जीत-हार का फैसला करते हैं.करीब डेढ महीने पहले संघ और बीजेपी के सर्वे में भी ये बात उभरकर आई थी कि अगर किसानों की नाराजगी को दूर नहीं किया गया,तो इनमें से महज दस फीसदी सीटें ही मुश्किल से बीजेपी की झोली में आयेंगी और दुबारा यूपी की सत्ता में वापसी कर पाना बीजेपी के लिए बेहद मुश्किल होगा.यही वजह थी कि साल भर से अड़ियल रुख़ अपनाये बैठी मोदी सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पर मजबूर होना पड़ा.
चूंकि वेस्ट यूपी किसानों का गढ़ है,लिहाज़ा कृषि कानूनों को लेकर नाराजगी का सबसे अधिक असर भी इसी इलाके में देखने को मिला.यहां के जाट समुदाय ने बीजेपी को यूपी और केंद्र में सत्ता दिलाने में अहम भूमिका निभाई है.वेस्ट यूपी के 25 जिलों में 130 सीटें हैं.पिछली बार बीजेपी को इनमें से 104 सीटें मिली थीं.जबकि सपा को 20 बीएसपी को तीन,कांग्रेस को दो और आरएलडी को महज एक सीट ही मिल पाई थी. यहां 12% जाट, 32% मुस्लिम, 18% दलित, जबकि 30 फ़ीसदी दलित आबादी है. किसान आंदोलन में दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर सबसे ज्यादा जाट समुदाय के ही किसान बैठे दिखाई दिए.
वेस्ट यूपी में ही बागपत और मुजफ्फरनगर हैं, जो जाटों के गढ़ हैं. किसान आंदोलन की अगुआई कर रही भारतीय किसान यूनियन का गढ़ सिसौली भी मुजफ्फरनगर में है और जाट समुदाय के परंपरागत झुकाव वाले रालोद की राजधानी कहलाने वाला छपरौली भी बागपत में आता है.लिहाज़ा,बीजेपी को ये डर सता रहा था कि अगर कृषि कानून वापस नहीं लिए गए,तो वेस्ट यूपी में उसका सूपड़ा साफ होना तय है.
पंजाब की कुल 117 में से 77 सीटें ऐसी हैं जहां किसानों का दबदबा है और वे निर्णायक भूमिका में हैं.इनमें से 40 शहरी, 51अर्ध शहरी और 26 ग्रामीण इलाकों की सीट हैं.गांवों के साथ ही अर्ध शहरी कहलाने वाली विधानसभा सीटों पर किसानों का वोट बैंक ही हार-जीत का फैसला करता है.लिहाज़ा,इन 77 सीटों पर अब गणित बदल सकता है.वैसे पंजाब तीन क्षेत्रों मालवा, माझा और दोआबा में बंटा हुआ है. सबसे ज्यादा 69 सीटें मालवा में हैं और ज्यादातर सीटें गांवों में हैं, जहां किसानों का दबदबा है.
यही इलाका पंजाब की सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभाता है.राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भाजपा की निगाहें इसी इलाके में मतदाताओं के बीच सेंध लगाने पर है.हालांकि इन कानूनों की वापसी से जहां कांग्रेस छोड़कर नया दल बनाने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह और बीजेपी के गठबंधन का रास्ता साफ हुआ है,तो वहीं कृषि कानूनों के मुद्दे पर एनडीए का साथ छोड़ने वाले अकाली दल को भी मनाने की कवायद शुरु हो चुकी है.
उधर,उत्तराखंड की 70 में से 27 सीट ऐसी हैं जहां अब राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं. हालांकि छोटा राज्य होने के बावजूद वहां का पूरा मैदानी इलाका कृषि आधारित काम-धंधों वाला ही है. राजधानी देहरादून समेत मैदान के चार जिलों की इन 27 सीटों पर किसानो की नाराजगी दूर होने से बीजेपी को फायदा मिल सकता है.देहरादून जिले की विकासनगर, सहसपुर, डोईवाला और ऋषिकेश सीट, हरिद्वार जिले में शहर सीट को छोड़कर 11 में से 10 सीट, उधमसिंह नगर की नौ, नैनीताल जिले की रामनगर, कालाढूंगी, लालकुआं और हल्द्वानी विधानसभा सीट पर किसान अब खेल बदल सकते हैं.हालांकि यहां का किसान 2022 के चुनाव में बीजेपी को सबक सिखाने की ठान बैठा था, लेकिन अब केंद्र के फैसले के बाद बीजेपी के दोबारा सत्ता पाने की राह आसान हो सकती है.
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