तालिबान का इतिहास ही इतना खूंखार रहा है कि भारत ने कभी उससे दुआ-सलाम तक नहीं की,हाथ मिलाना या गले लगना तो बहुत दूर की बात है.लेकिन इतने बरसों में ऐसा पहली बार होगा जब तालिबान और भारत एक ही मेज़ पर आधिकारिक तौर पर आमने-सामने होंगे.बुलावा तो रुस ने दिया है लेकिन 20 अक्टूबर को मास्को में होने वाली इस वार्ता में चीन,पाकिस्तान और ईरान भी शामिल होंगे.जाहिर है कि वहाँ तालिबान के नेता अपनी सरकार को अन्तराष्ट्रीय बिरादरी में मान्यता देने-दिलाने का रोना रोयेंगे ही और चूंकि रुस के साथ ही चीन औऱ पाकिस्तान भी उसके हमदर्द बने हुए हैं,लिहाज़ा वे भी घुमा-फिराकर भारत पर एक तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की कोशिश करेंगे.ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि क्या भारत इतनी आसानी से तालिबान को मान्यता देने पर राजी होगा या पहले अपनी शर्तों को पूरा करवाने की जिद पर अडिग रहेगा? हालांकि अफगानिस्तान में भारत ने हजारों करोड़ रुपये का निवेश कर रखा है,वह तो चिंता की एक वजह है ही लेकिन उससे भी बड़ी फ़िक्र भारत को ये है कि तालिबानी सरकार कहीं पाकिस्तान की कठपुतली बनकर उस जमीन को आतंकवाद का इतना बड़ा खेत न बना डाले, जिसकी फसल की गाज कश्मीर घाटी में हमें झेलनी पड़े.लिहाज़ा,अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के जानकार भारत के इस फैसले को बिल्कुल सही ठहराते हुए मानते हैं कि ये एक ऐसा मौका है,जहां हम तालिबान को उसके तमाम हमदर्द मुल्कों के बीच दो टूक लहज़े में अपनी बात समझा सकते हैं कि आखिर भारत उससे क्या उम्मीद रखता है.अगर वो अपनी कथनी को करनी में नहीं बदलता,तो उसे मान्यता देने के बारे में भारत सोच भी नहीं सकता,भले ही उसे चार-पांच देश अपना भी लें,तब भी.


हालांकि रूस ने ये साफ कर दिया है कि इस बैठक में तालिबान को मान्यता देने के बारे में चर्चा नहीं होगी बल्कि उसके सत्ता में आने के बाद आतंकवाद के बढ़ते खतरे को लेकर ही बहस का सारा फ़ोकस रहेगा.लेकिन रुस भी इसकी गारंटी पुख्ता तौर पर भला कैसे दे सकता है कि वहां तालिबानी नेता अपने अस्तित्व से जुड़े सबसे जरुरी मुद्दे को उठाएंगे ही नहीं.
रूस ने इस बहुदेशीय बैठक को 'मास्को फॉर्मेट' का नाम दिया है.दरअसल,अफगानिस्तान के मसलों को सुलझाने के लिए रूस ने 2017 में बातचीत का जो सिस्टम बनाया था,उसे ही मास्को फॉर्मेट कहते हैं.हक़ीक़त तो ये भी है कि इस वक़्त भारत से ज्यादा रुस को आतंकवाद का डर सता रहा है.उसे लगता है कि तालिबान के सत्त्ता में काबिज़ होने के बाद आतंकी पूर्व सोवियत संघ के देशों में घुसपैठ करके अपने नए ठिकाने बना सकते हैं.यही कारण है कि उसने पिछले दिनों तजाकिस्तान में युद्धाभ्यास भी किया है,ताकि संभावित खतरों से निपटने के लिए पूरी तरह से चाक-चौबंद हो लिया जाए.


मास्को वार्ता के बाद रूस ने अफगानिस्तान के मसलों पर चर्चा करने के लिए ट्रोइका प्लस- रूस, अमेरिका, चीन और पाकिस्तान की बैठक बुलाने का भी फैसला किया है. रूस के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के मुताबिक उनका देश अफगानिस्तान में दाएश/आईएसआईएस की गतिविधियों से चिंतित है. लिहाज़ा मास्को प्रारूप की तरह ही उसमें भी अफगानिस्तान में आतंकवाद के बढ़ते खतरे पर ही ध्यान केंद्रित किया जाएगा. लेकिन मास्को में होने वाली वार्ता को लेकर सियासी व कूटनीतिक हलकों में ये सवाल उठ रहा है कि क्या भारत और तालिबान के एक -दूसरे के नजदीक आने की कोई उम्मीद दिखती है? फिलहाल तो इसका सटीक जवाब किसी के पास भी नहीं है लेकिन अगर इतिहास पर गौर करें,तो भारत ने कभी भी तालिबान को मान्यता नहीं दी है.दो दशक पहले भी जब उनकी सरकार थी तब भी भारत ने, राजनयिक भाषा में जिसे कहते हैं -'एंगेज' करना, वो कभी नहीं किया. सिर्फ़ एक बार, जब इंडियन एयरलाइन्स के विमान का आतंकियों ने अपहरण कर लिया था और उसे कंधार ले गए थे, तब पहली और आख़िरी बार भारत ने तालिबान के कमांडरों से औपचारिक बातचीत की थी. फिर भारत ने हमेशा ख़ुद को तालिबान से दूर ही रखा.


अफगानिस्तान से अमेरिकी फ़ौजों के हटने की प्रक्रिया से पहले जब दोहा में तालिबान के नेताओं के साथ वार्ता के दौर चले, तब भी भारत ने उनक साथ 'एंगेज' नहीं करने का ही फ़ैसला किया. पीछे के दरवाज़े से भी तालिबान के नेतृत्व से बातचीत का केंद्र सरकार ने हमेशा खंडन ही किया है,जबकि कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल भी इसे सियासी मुद्दा बनाते रहे. अब मास्को में होने वाली इस वार्ता को लेकर सुरक्षा व कूटनीति से जुड़े विशेषज्ञों की राय कुछ जुदा है.कुछ मानते हैं कि पानी के स्थिर होने तक भारत को सब्र के साथ ही काम लेना चाहिए. उनके अनुसार तालिबान से भारत को कुछ हासिल होने वाला नहीं है, क्योंकि तालिबान के आने के बाद जम्मू कश्मीर के रास्ते भारत में आतंकियों के घुसपैठ की घटनाएं बढ़ सकती हैं और पकिस्तान ऐसा करने की पूरी कोशिश करता रहेगा. जबकि अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्रालय में कई सालों तक अपनी सेवाएं दे चुके जेएनयू में इंटरनेशनल स्टडीज के प्रोफेसर गुलशन सचदेव कहते हैं कि तालिबान के साथ पाकिस्तान का होना भारत के लिए बड़ी चुनौती बना रहेगा.उनके मुताबिक ''तालिबान के पिछले शासनकाल और इस सरकार में सिर्फ़ इतना सा फ़र्क़ है कि पहले वाले में उसे मान्यता नहीं मिली थी. लेकिन इस बार विश्व के दो ताक़तवर देश मसलन,रूस और चीन उसे मान्यता दे रहे हैं. यूरोप के देश भी ऐसा ही करेंगे क्योंकि इससे उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. लिहाज़ा, इस बार अपनी सुरक्षा और संप्रभुता को देखते हुए भारत के लिए तालिबान से 'डील' करना बेहद ज़रूरी हो जाएगा.''सचदेव कहते हैं कि भारत को देर नहीं करनी चाहिए क्योंकि जितनी देर भारत तालिबान के साथ 'एंगेज' करने में करेगा, उसका सीधे तौर पर पाकिस्तान फ़ायदा उठाने की कोशिश करेगा.


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