नयी दिल्लीः पड़ोसी देश नेपाल में आये सियासी भूचाल को थामने के लिए वहां की सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक साहसिक फ़ैसला देकर चीन के मंसूबों के पूरा होने में भी एक तरह से स्पीडब्रेकर लगा दिया है. पिछले साल दिसंबर से ही अंतरिम प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली चीन से अपनी पींगे बढ़ाते हुए देश पर राज करने के निरंकुश रास्ते की तरफ जिस तरह से बढ़ रहे थे,उस पर अब लगाम लग चुकी है. नेपाली सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद अब शेर बहादुर देउबा को दो दिनों के भीतर प्रधानमंत्री नियुक्त किया जायेगा और प्रतिनिधि सभा फिर से बहाल होगी.


चूंकि नेपाल न सिर्फ एकमात्र हिंदू राष्ट्र है बल्कि वह भारत के लिए हर लिहाज से भी महत्वपूर्ण मित्र देश है, लिहाजा भारत कभी नहीं चाहेगा कि वहां कोई ऐसी सरकार सत्ता में आये,जो चीन के इशारों पर काम करे. इसलिये कूटनीति के लिहाज से भी यह फैसला भारत के लिये अनुकूल ही कहा जायेगा. हालांकि चीन नेपाल की आर्थिक मदद करता रहा है और उसने वहां काफी निवेश भी कर रखा है. इसलिये देउबा सरकार भी उससे रिश्ते खराब तो नहीं ही करेगी लेकिन पुराना अनुभव बताता है कि उस रिश्ते में एक सीमा रेखा का ख्याल रखते हुए वह भारत के साथ अपने संबंधों को ही प्राथमिकता देगी. लेकिन चीन की फ़ितरत ही कुछ ऐसी है कि वो कभी चुप नहीं रह सकता, लिहाजा आने वाले महीनों में फिर से वह कोई ऐसी कारस्तानी करने की तलाश में रहेगा, जिससे नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बन सके.


बता दें कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की सिफारिश के बाद राष्ट्रपति विद्या भंडारी ने पांच महीने में दो बार संसद के निचले सदन को भंग कर दिया था. संसद भंग करने के बाद इस साल 12 व 19 नवंबर को मध्यावधि चुनाव कराने की घोषणा की गई थी. चुनाव को लेकर और राष्ट्रपति के फैसले के खिलाफ नेपाली सुप्रीम कोर्ट में 30 याचिकाएं दाखिल की गई थीं. बता दें कि 275 सदस्यीय सदन में विश्वास मत के दौरान हारने के बाद भी ओली अल्पमत सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद उनके हाथ से कमान ले ली जाएगी.


राष्ट्रपति के फैसले के खिलाफ विपक्षी दलों के गठबंधन की ओर से भी याचिका दाखिल की गई थी. इस याचिका में कहा गया था कि राष्ट्रपति की ओर से संसद के निचले सदन भंग करने के आदेश को रद्द किया जाए और नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाए. विपक्षियों की ओर से दाखिल याचिका में 146 सांसदों ने हस्ताक्षर किए थे.


दरअसल,ओली 10 मई को संसद में विश्वास मत नहीं जीत पाए थे जिसके बाद राष्ट्रपति ने विपक्ष को 24 घंटे के अंदर विश्वास मत पेश करने का प्रस्ताव दिया था.तब नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देऊबा ने अपने लिए प्रधानमंत्री पद का दावा किया था और कहा था कि उनके पास 149 सांसदों का समर्थन है.


लेकिन नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने 22 मई की आधी रात को प्रधानमंत्री ओली की सिफ़ारिश पर संसद भंग कर नवंबर में चुनाव कराने की घोषणा की थी. हालांकि नेपाली राष्ट्रपति ने पिछले साल दिसंबर में भी संसद भंग करने का फ़ैसला किया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने गत फ़रवरी में इसे असंवैधानिक क़रार देते हुए संसद को बहाल कर दिया था.


सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का विपक्षी दलों ने स्वागत किया है. नेपाली कांग्रेस के प्रवक्ता विश्वप्रकाश शर्मा ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने सत्तारूढ़ दल के फैसले को ठीक कर दिया है. उन्होंने कहा, "सुप्रीम कोर्ट ने चीज़ों को संविधान के मुताबिक ट्रैक पर ला दिया है." सीपीएन-यूएमएल के वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रधान मंत्री माधव कुमार नेपाल ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने "निरंकुश प्रवृत्ति को नियंत्रित किया"


नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) के नेता देव गुरुंग ने कहा, "फैसला सकारात्मक है, फैसला सही है. हम इसका सम्मान करते हैं" दूसरी ओर, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (आरपीपी) के अध्यक्ष कमल थापा ने शीर्ष अदालत के फैसले को "राजनीतिक निर्णय" करार दिया.उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ट्वीट किया कि "निर्णय को लागू करने में जटिलताएं पैदा होंगी" और देश "अस्थिरता की ओर बढ़ जाएगा"


जबकि सत्तारूढ़ सीपीएन-यूएमएल के प्रवक्ताप्रदीप ज्ञवाली ने कहा कि शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त करने के सुप्रीम कोर्ट का आदेश "संविधान के बुनियादी ढांचे के ख़िलाफ़ है"



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