महज़ चार दिन बाद उत्तरप्रदेश चुनाव के पहले चरण में होने वाली वोटिंग बीजेपी समेत हर राजनीतिक दल के लिए किसी 'अग्नि-परीक्षा-परीक्षा से कम नहीं है, क्योंकि ये सूबे की चुनावी हवा के रुख की कुछ झलक दिखला देगी. हालांकि शुरुआती चरण में 58 सीटों पर ही मतदान होना है, लेकिन ये इसलिये महत्वपूर्ण है कि इनका नाता उस 'जाटलैंड' यानी पश्चिमी यूपी से है, जहां किसान आंदोलन से लगी आग की तपिश अभी भी बरकरार है. इसलिये दिल्ली से सटे नोएडा से लेकर मुजफ्फरनगर तक और अलीगढ़ से लेकर मथुरा, आगरा तक यहां की हरेक सीट बीजेपी के लिए जितनी महत्वपूर्ण है, उतनी ही अखिलेश यादव-जयंत चौधरी की जोड़ी के लिए भी ज्यादा अहम है, क्योंकि उन्हें इसी इलाके से सबसे ज्यादा समर्थन मिलने की उम्मीद है. लेकिन पिछले चुनाव में बीजेपी की झोली सीटों से भर देने वाले 'जाटलैंड' के किसान इस बार किसका साथ देंगे, ये तस्वीर अभी तक साफ नहीं हुई है और शायद वे इसे आखिरी वक्त तक साफ करना भी नहीं चाहते. यही वजह है कि दिल्ली की बॉर्डर पर तकरीबन 13 महीने तक चले किसान आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरे भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत बीजेपी सरकार के खिलाफ तो खुलकर बोल रहे हैं, लेकिन वे साथ किसका देंगे,ये पत्ता खोलने को वे अभी भी तैयार नहीं हैं.


दरअसल वेस्ट यूपी वो इलाका है, जहां हार-जीत का फैसला MJ यानी मुस्लिम-जाट ही करते आये हैं, लेकिन साल 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए दंगों ने दोनों समुदायों के बीच नफरत की खाई को इतना गहरा कर दिया कि जाटों का बाकी सब दलों से ऐसा भरोसा टूटा कि उसने बीजेपी को ही अपना सबसे बड़ा खैरख्वाह मानते हुए 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद साल 2017 में हुए यूपी विधानसभा चुनावों में हर जगह भगवा लहराने में कोई कंजूसी नहीं बरती. लेकिन केंद्र सरकार द्वारा तीन कृषि कानून लाने और लंबे आंदोलन के बाद उसे वापस लेने के फैसले के बावजूद किसानों का गुस्सा पूरी तरह से शांत नहीं हुआ है. चूंकि इस इलाके में सारा दारोमदार किसानों पर ही है, इसलिये बीजेपी नेताओं को भी ये अहसास है कि पहले चरण की 58 सीटों में से आधी सीटें हासिल कर पाना भी जलते हुए अंगारों पर चलते हुए अपने पैर बचा लेने से कम नहीं होगा, क्योंकि दो लड़कों की जोड़ी ने भी जाटों-मुस्लिमों को फिर से एकजुट करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है और वे बीजेपी के खिलाफ किसानों की नाराजगी को अपने पक्ष में भुनाने के लिए कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहते.


इसमें कोई शक नहीं कि राकेश टिकैत वेस्ट यूपी के किसानों के बीच एक प्रभावी व मुखर चेहरा हैं. ये अलग बात है कि वे दो बार चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन उन्हें हार का मुंह ही देखना पड़ा. इस बार वे न तो चुनाव लड़ रहे हैं और न ही किसी पार्टी को अपना समर्थन देने का ऐलान किया है और न ही किसानों से अभी तक कोई ऐसी अपील की है. लेकिन 'जाटलैंड' की राजनीति समझने वालों की मानें तो वे पर्दे के पीछे से बड़ा खेल करने में लगे हुए हैं.


कल एबीपी न्यूज़ के एक कार्यक्रम में राकेश टिकैत ने जो कुछ कहा है, उससे ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने इलाके में बेहद चतुराई से बीजेपी की राह में कांटे बिछाने का काम कर दिया है. टिकैत ने कहा, "जनता को लगता है कि हम ऐसे उम्मीदवार को लेकर आए हैं, जो उसकी समस्याओं का समाधान करेगा. लेकिन सरकार चालबाज है, जो जनता को उस मुद्दे पर जाने नहीं देना चाहती. वो जाति, धर्म, सम्प्रदाय के जाल में फंसाने की कोशिश करती है. अबकी बार जनता, सरकार से सवाल कर रही है. जनता ने आवाज उठानी शुरू कर दी है."


टिकैत भले ही सक्रिय राजनीति में न हों लेकिन किसानों की सियासत करते हुए वे इतना मंझ चुके हैं और ये भी जानते हैं कि लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए किन शब्दों का इस्तेमाल करना है. शायद इसीलिए उन्होंने मीडिया के मंच का फायदा उठाते हुए जनता से ये अपील कर डाली कि "सरकार जो प्रवचन देती है, उस पर न जाएं, अपने मुद्दों पर ही फोकस रखें." उनसे एक सीधा सवाल पूछा गया था कि इस बार आप किसे देंगे वोट? उन्होंने इसका खुलासा करने की बजाय चतुराई भरा जवाब देते हुए कहा, "हमने मन बना लिया है, किसे वोट देना है. जो खेत में काम करता है, वो किसान है, जो गांवों में काम करता है वो मजदूर और किसान हैं. फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर, गांव का किसान ही है. ये देश का निर्माण करने वाला है. इस देश में अगर किसानी की बात नहीं की जाए तो खराब बात होगी." लेकिन टिकैत ने एक बात साफ लहज़े में बोल दी कि जो किसानों के मुद्दे सुलझाए, हम उसे वोट देंगे. हमारे 13 महीनों के आंदोलन के बाद अब लोग सवाल करने लगे हैं. लोग सवाल-जवाब करना सीख गए हैं. हमने जनता को बोलना सिखाया. क्या बोलना है ये हम नहीं बताएंगे."


राकेश टिकैत के इस बयान के ज्यादा अर्थ निकालने की कोई जरूरत नहीं रह जाती. सीधे तौर पर न सही लेकिन घुमा-फिराकर उन्होंने ये संदेश दे दिया है कि किसान इस बार अखिलेश-जयंत की जोड़ी वाले गठबंधन को अपना समर्थन देने का मन बना चुके हैं. लेकिन इस कार्यक्रम में टिकैत से एक और महत्वपूर्ण सवाल ये पूछा गया था जिसे लेकर वे अक्सर RSS पर आरोप तो लगाते रहे हैं लेकिन आज तक उसका कोई प्रमाण नहीं पेश कर पाए. उनसे पूछा गया कि आपका आरोप है कि 2013 वाले दंगे RSS ने कराए? इसके जवाब में टिकैत कहते हैं कि "किसने कराए, ये तो साफ है. साल 2013 के दंगे RSS ने कराए. एक खास जाति को टारगेट किया जा रहा है." लेकिन इसके साथ ही उन्होंने ये भी चेता दिया  कि "बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी होगी. अगला आंदोलन बेरोजगारी को लेकर होगा. जब हम बर्तन खरीदने जाते हैं तो ठोंक-बजाकर खरीदते हैं, सरकार भी चुननी है तो ठोंक-बजाकर फैसला कर लें."


दरअसल,वेस्ट यूपी की कुल 144 सीटें हर पार्टी के लिए महत्वपूर्ण हैं और पिछले चुनाव में बीजेपी ने यहां से 108 सीटें जीतकर 'जाटलैंड' को अपना सबसे मजबूत गढ़ बना लिया था.बीजेपी तो उस गढ़ को बचाने के लिए ही पूरी ताकत लगा रही है लेकिन अखिलेश यादव-जयंत चौधरी की जोड़ी किसानों की नाराजगी का फायदा उठाते हुए बीजेपी के इस गढ़ को तोड़ने में जुटी हुई है.लेकिन बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने इस गठबंधन के मंसूबों पर कुछ हद तक पानी फेरने का काम कर दिया है.


मायावती ने यहां सबसे अधिक 44 (यानी 31 प्रतिशत) मुस्लिम उम्मीदवार उतारकर जो कार्ड खेला है,उससे मुस्लिम वोटों का विभाजन होना तय है,जिसका फायदा बीजेपी को ही मिलेगा.हालांकि  सपा-रालोद ने भी 34 मुस्लिमों को टिकट बांटे हैं. कांग्रेस ने भी इस इलाके में 34 मुस्लिम मैदान में उतारे हैं. लेकिन बीजेपी ने किसी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया है. इस तरह 'जाटलैंड' में 28 ऐसी सीट हैं, जहां सपा, बसपा और कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार आमने-सामने हैं.जाहिर है कि इससे इन सीटों पर वोटों के बंटने की संभावना बढ़ गई है और यही बीजेपी के लिए खुश होने की वजह बन गई है.दिलचस्प बात ये भी है कि जिन सीटों पर सपा-रालोद गठबंधन ने मुस्लिमों को टिकट नहीं दिया, वहां बीएसपी ने खासतौर पर मुसलमान उम्मीदवारों को टिकट देकर सारा समीकरण बदल दिया है.कांग्रेस ने भी कमोबेश यही रणनीति अपनाई है. वहीं एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने भी 90 प्रतिशत मुस्लिम उम्मीदवारों पर दांव चला है. ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि बीजेपी के लिए राकेश टिकैत बड़ी मुसीबत बनेंगे या फिर मायावती बनेंगीं उसकी खेवनहार?



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