हिंदी पट्टी के एक बड़े और देश की राजनीतिक दिशा और दशा तय करने के लिहाज से महत्वपूर्ण राज्य मध्य प्रदेश में इसके गठन के बाद से पंद्रहवीं बार विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं. राज्य की 230 सीटों पर 28 नवंबर को मतदान होना है, जिसके नतीजे 11 दिसंबर को घोषित होंगे. गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ राज्य अलग होने के बाद मध्य प्रदेश में हुए तीनों विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने ही जीत हासिल की है. साल 2003, 2008 और 2013 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने कांग्रेस को बुरी तरह से पराजित किया और पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई. साल 2018 में भी बीजेपी का दावा एक बार फिर से सरकार बना लेने का है, और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने 200 से ज्यादा सीटें जीत कर दिखाने का लक्ष्य रख दिया है.
राज्य के मौजूदा परिदृश्य में इस लक्ष्य को स्वाभाविक और आसान लक्ष्य नहीं कहा जा सकता क्योंकि आजकल शिवराज का जादू उनकी जन आशीर्वाद यात्रा का रथ पहुंचने तक ही सीमित रहता है और रथ की धूल बैठने के साथ ही उनका जादू भी थम जाता है. कारण यह है कि अब लोग बदलाव चाहने लगे हैं. जबलपुर में एक सहायक शिक्षक ने मुझसे इशारे में कहा कि पसंदीदा कपड़े भी इतने साल तक नहीं पहने जाते. मैंने उनकी सीधी, मैहर, रीवा, सतना, चित्रकूट, रामपुर-बघेलान, अमरपाटन आदि की सभाएं देखी हैं. पुलिस-प्रशासन बड़ी मशक्कत से उनकी सभाएं संभालता है और समर्थकों को सभास्थल तक ढोकर लाने-ले जाने वाले वाहन मालिक नाराज होकर लौटते हैं.
शिवराज सरकार और उनके कई मंत्रियों के खिलाफ जो लहर चल रही है उसे पार्टी नेता विभिन्न स्तरों पर सर्वे करवा कर महसूस कर चुके हैं. बीजेपी को जरूरी काडर उपलब्ध कराने वाले रष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी दर्जनों मौजूदा विधायकों का टिकट काटने की सलाह दी है. सच तो यह है कि कृषि क्षेत्र में उल्लेखनीय सफलता के बावजूद 'मामा' शिवराज सिंह चौहान की छवि इस बार घोषणावीर मुख्यमंत्री के रूप में जन-जन में स्थापित हो चुकी है और कृषोपज के भावांतर जैसी योजनाओं के बावजूद सूबे के किसान त्राहि-त्राहि कर रहे हैं. मंदसौर में किसानों पर हुई गोलीबारी के जख्म अभी भी हरे हैं.
प्रदेश की जनता सरकारी सत्ता-तंत्र के लाख ढंकने-छिपाने के बावजूद मध्य प्रदेश में हुए व्यापम काण्ड और केंद्र के राफेल विमान खरीद घोटाले पर चौक-चौराहों पर खुली बहस कर रही है. इसे हम चंबल के इलाके में भी देख सकते हैं और नर्मदा के इलाके में भी. सवर्ण तबका एससी/एसटी एक्ट पर केंद्र सरकार के पलटी मारने पर बीजेपी से खफा है. आक्रोश इतना गहरा है कि सूबे में उनका सपॉक्स संगठन अब बाकायदा राजनीतिक दल की शक्ल ले चुका है और सभी 230 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने की ताल ठोक रहा है. आदिवासियों ने गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से अलग जयश नामक अपना राजनीतिक दल खड़ा कर लिया है. एससी/एसटी को पदोन्नति में आरक्षण देने के मामले में दिया गया शिवराज का 'माई के लाल' वाला बयान पहले ही बीजेपी के गले की हड्डी बना हुआ है. बातों-बातों में कटनी के एक पंडित जी मुझसे कहने लगे कि अब वह बताएंगे कि असली माई का लाल कौन है.
प्रश्न यह भी उठता है कि जिस बिजली, सड़क, पानी, महंगाई, रोजगार और आवास के मुद्दों पर जनता ने 15 साल पहले कांग्रेस की दिग्विजय सरकार को उखाड़ फेंका था, उनको बीजेपी ने किस हद तक हल किया है? प्रदेश की जनता को राहत देने के लिए राज्य सरकार डीजल-पेट्रोल पर अपना टैक्स क्यों नहीं घटा रही है? नदियों की रेत निकाल कर उनका सीना छलनी करने और अवैध खनन करने वालों को इतना बेलगाम क्यों छोड़ दिया गया है कि वे जांच अधिकारियों को कुचल डालते हैं? यहां तक कि डंफर घोटाले की आंच खुद मुख्यमंत्री के घर तक पहुंच गई है. सरकार विरोधी माहौल बनने के लिए जैसे इतना ही काफी नहीं था कि बीजेपी की रैलियों में काले कपड़े पहनने वाली महिलाओं की सख्त जांच की गई और काले गुब्बारे लेकर आने वालों के विरुद्ध पुलिस केस तक दर्ज करवा दिए गए.
लेकिन मध्य प्रदेश में हमेशा आमने-सामने की टक्कर में उतरने वाली कांग्रेस की मुश्किल यह है कि बीजेपी की भारी एंटीइंकम्बैंसी के बावजूद उसके पक्ष में खिलाफ कोई बड़ी लहर नहीं चल पा रही है. चुनावी समीकरण सरल करने की बजाए उसने बीएसपी और सपा को झिड़क कर अपने लिए कठिनाई पहले ही बढ़ा ली है. केंद्र में यूपीए की भागीदार एनसीपी भी अकेले दम पर राज्य की 200 सीटों पर लड़ने का ऐलान कर चुकी है. हार-जीत के कम अंतर वाले परिणामों पर इसका असर जरूर पड़ सकता है. शायद इसीलिए कांग्रेस में इस बार सत्ता पाने की छटपटाहट और चिंता पहले से अधिक नजर आ रही है. एनकेनप्रकारेण जीत हासिल करने के चक्कर में पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी का सारा जोर इस बात पर है कि कैसे बड़ा हिंदू दिखा जाए. बीजेपी की पिच पर खेलते हुए वह कन्या पूजन, हवन और मंदिर-मंदिर पूजा करते घूम रहे हैं. महिलाओं पर अत्याचार और मासूमों से बलात्कार के मामले में प्रदेश का लगातार शीर्ष पर बने रहना, किसानों की तकलीफें, अधिकारियों को भ्रष्टाचार की मिली खुली छूट आदि की तरफ से उनकी पार्टी ने पीठ दे रखी है. कांग्रेस पूर्व की भांति संगठित होती तो व्यापम जैसा अभूतपूर्व घोटाला ही बीजेपी को मध्य प्रदेश में ले डूबता. लेकिन चुनावी सर्वे पक्ष में आने के बावजूद कांग्रेसी कार्यकर्ता आज भी जनता के मुद्दे लेकर गांव-गांव नहीं जा पा रहे हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)