सोनिया गांधी को इतिहास बेहतर रूप से याद करेगा या नहीं यह एक यक्ष प्रश्न है. उनका 19 साल का राजनीतिक सफर कांग्रेस के लिए एक स्वर्णिम रूप में तो याद किया जाएगा यह कोई नहीं झुठला सकता. यह सर्वविदित है कि विदेशी मूल की महिला होने के बाद भी उन्होंने कांग्रेस को विषम परिस्थितियों में 10 साल सत्ता का सुख दिलाया और प्रधानमंत्री जैसे पद को ठुकराया. लेकिन सोनिया को इतिहास में स्वर्णिम रूप में दर्ज करवाने की जिम्मेदारी अब राहुल गांधी की कामयाबी पर निर्भर है. हालंकि नेहरू-गांधी परिवार का कोई भी सदस्य राजनीति में विफल नहीं हुआ है, अगर राहुल गांधी, नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के राजनीतिक कौशल के सामने नहीं टिक पाए तो सोनिया गांधी पर इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक दोनों राहुल को कांग्रेस पर थोपने का दोष पर मढ़ेंगे.
सनातन या आधुनिक हिन्दू परंपरा यह कहती है कि कोई भी लड़की जब विवाह के बाद अपने पिता के घर से पति के घर आ जाती है तो वह उस घर की बहू हो जाती है और उसकी डोली जहां पहुंची थी, वहीं से उसकी अर्थी उठती है, लेकिन पिछले तीस दशकों से भारतीय राजनीति में लोग इस बात को मानने को तैयार नहीं है...क्योंकि बात इंदिरा गांधी की बहू और राजीव गांधी की पत्नी सोनियां गांधी की है. जिन्होनें एक भारतीय राजीव गांधी के साथ सात फेरे लिए थे.
शायद किसी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष के रूप में सबसे अधिक समय तक रहने की वजह से ऐसा हो...क्योंकि सोनिया कांग्रेस के 132 साल के इतिहास में अभी तक सबसे अधिक समय 19 साल तक कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष रही हैं. वह राजीव के जीवित रहते कई चुनाव प्रचारों में उनके साथ एक भारतीय बहू जैसी सौम्य छवि के साथ ही दिखीं और राजीव की हत्या के बाद भी साड़ी में भारतीय परंपरा का ही निर्वहन करती नज़र आईं.
सोनिया कोई राजनीतिक रिश्तों के तहत राजीव से विवाह कर भारत नहीं आईं थी और न ही वह राजनीतिक घराने से थी, पति की हत्या होने के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया से पूछे बिना उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा कर दी, परंतु सोनिया ने इसे स्वीकार नहीं किया, जिसके बाद काफ़ी समय तक राजनीति में कदम न रख कर उन्होंने अपने बेटे और बेटी का पालन-पोषण करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया. लेकिन जब भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी पर संकट के बादल गहराए जिसे उनकी सास और पति ने खून से सींचा था तो वह एक मर्दानी की तरह राजनीति में आने को तैयार हुईं.
लोग भले ही तरह-तरह की बातें करें, लेकिन यह वह दौर था जब पी.वी.नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व काल के बाद कांग्रेस 1996 में आम चुनाव भी हार गई थी और कांग्रेस में एक बार फिर नेहरू-गांधी परिवार के किसी सदस्य की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी. कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के दबाव में सोनिया गांधी ने 1997 में कोलकाता के प्लेनरी सेशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ली और उसके 62 दिनों के अंदर 1998 में वे कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष चुनी गई.
राजनीति में कदम रखने के बाद उनका विदेशी मूल का होने का मुद्दा लगातार बीजेपी और उसके सहयोगी दल उठाते रहे. उनकी भाषा को लेकर और हिन्दी न बोल पाने को लेकर भी मुद्दा बनाया गया, यही नहीं उन पर परिवारवाद का भी आरोप लगा. लेकिन समय के साथ उन्होंने हर उस बात का जवाब अपने काम से दिया जिसे राजनीतिक लोग उनकी कमजोरी के रूप में पेश करते हुए इसे मुद्दा बना रहे थे. हालंकि इस दौरान कांग्रेसियों ने उनका साथ नहीं छोड़ा और इन मुद्दों को नकारते रहे. इस दौरान सोनिया अक्टूबर 1999 में बेल्लारी, कर्नाटक से और साथ ही अपने दिवंगत पति के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी, उत्तर प्रदेश से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ीं और लगभग तीन लाख मतों के अंतर से बढ़त बनाते हुए विजयी हुईं. 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान 13वीं लोकसभा में वे विपक्ष की नेता चुनी गईं.
सोनिया गांधी ने कांग्रेस को उस समय कठिनाई से उबारा था जब भारत में हिन्दुत्व और राम मंदिर जैसे ध्रुवीकरण के मुद्दों पर बीजेपी देश में शाइनिंग इंडिया की बात कर रही थी. बीजेपी सरकार देश में विकास की गंगा बहाने के साथ ही अभी तक के कांग्रेस शासन और अटल बिहारी वाजपेयी के सहारे एक बार फिर से सत्ता की सीढियां चढ़ने के मंसूबे बना रही थी. उस दौरान 2004 के चुनाव से पूर्व आम राय ये बनाई गई थी कि अटल बिहारी वाजपेयी ही प्रधानमंत्री बनेंगे पर सोनिया ने देश भर में घूमकर खूब प्रचार किया और सब को चौंका देने वाले नतीजों में यूपीए को अनपेक्षित 200 से ज़्यादा सीटें मिली.
सोनिया गांधी खुद रायबरेली, उत्तर प्रदेश से सांसद चुनी गईं. यह वही दौर था जब वामपंथी दलों ने बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस और सहयोगी दलों की सरकार का समर्थन करने का फैसला किया था. जिससे कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों को स्पष्ट बहुमत मिल गया. 16 मई 2004 को सोनिया गांधी 16 दलीय गंठबंधन की नेता चुनी गईं, जिसका वामपंथी दल सहयोग कर रहे थे और यह गठबंधन देश में सरकार बनाने जा रहा था. उस समय यह कहा जा रहा था कि इस गठबंधन की नेता सोनिया गांधी ही देश की प्रधानमंत्री बनती, लेकिन सोनिया गांधी ने सबको चौंकाते हुए 18 मई को डॉ.मनमोहन सिंह को अपना उम्मीदवार बताया और पार्टी को उनका समर्थन करने का अनुरोध किया.
कांग्रेसियों ने इसका खूब विरोध किया और उनसे इस फैसले को बदलने का अनुरोध किया पर सोनिया ने कहा कि प्रधानमंत्री बनना उनका लक्ष्य कभी नहीं था. जिसके बाद सभी नेताओं ने मनमोहन सिंह का समर्थन किया और वे प्रधानमंत्री बने. इस दौरान कांग्रेस की तरफ से यह कह गया कि सोनिया गांधी ने स्वेच्छा से प्रधानमंत्री नहीं बनने की घोषणा की है. जब यह बात कि जाती है कि कांग्रेस पार्टी नेहरू-गांधी परिवार की वजह से ही है तो यह कहना गलत नहीं होगा कि इसमें सोनिया का योगदान कुछ कम नहीं है वी.पी.नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान जिस तरह कांग्रेस में बिखराव की स्थिति बनी और कांग्रेस के नेताओं ने कांग्रेस को अपने-अपने नाम से चलाने की कोशिश के दौरान मूल पार्टी से हटकर अपनी ही कांग्रेस बना ली यह किसी से छुपा नहीं है फिर चाहे तिवारी कांग्रेस की बात हो या फिर एनसीपी कि सभी नेताओं को एक छत के नीचे लाने में और 2004 से 2014 तक दस साल तक कांग्रेस को सत्ता सुख दिलाने में जो योगदान दिया और एक नई दिशा दी जो भुलाने लायक नहीं है.
डॉ.मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल के दौरान सोनिया जहां पार्टी की निर्विवादित अध्यक्ष रहीं, वहीं सरकार पर भी उनका नियंत्रण किसी से छुपा नहीं था, लोग कहते थे कि डॉ.मनमोहन सिंह तो मात्र कठपुतली हैं लेकिन इस दौरान सोनिया गांधी की ही देन है कि उन्होनें 2005 में सूचना का अधिकार कानून, मनरेगा, कैशलेस बेनिफिट और आधार पर सरकार का साथ दिया और इसको लागू करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. सोनिया ने एनजीओ सेक्टर को भी खूब बढ़ावा दिया. उन्होनें कांग्रेस पार्टी के नेताओं, जिन्होंने बड़ी बड़ी गलतियां की थीं, उन्हें हटाया नहीं, बल्कि उन पर विश्वास किया, जिसका कई बार उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ा. जब इन नेताओं की वजह से उन्हें नीचा दिखना पड़ा. फिर चाहे उन नेताओं में गुजरात से आने वाले अहमद पटेल हों या फिर कांग्रेस की वरिष्ठ नेता अंबिका सोनी, दिग्विजय सिंह, शीला दीक्षित. एक समय तो ऐसा कहा जाता था कि कांग्रेस नेता जो कि सोनिया के प्रमुख सलाहकार रहे हैं, ऑस्कर फर्नांडिस ही कांग्रेस चला रहे हैं. उन दिनों सत्ता के गलियारों में एक शब्द खूब मशहूर था ask-her जो पढ़ने में ऑस्कर जैसा प्रतीत होता है मतलब अगर सोनिया से कुछ पूछना है तो ऑस्कर से पूछो.
कुल मिलाकर प्रदेशों में कांग्रेस सरकार को सत्ता की सीढ़ियों से दूर करने वाले नेताओं को भी सोनिया गांधी ने तवज्जों दी पार्टी में अहमियत कम नहीं की. एक दौर ऐसा भी था जब कांग्रेस के पास चुनाव प्रचार के लिए कोई बडे चेहरे नहीं होते थे, तब सिर्फ सोनिया ही थीं, जिन्होंने फिल्मी हस्तीयों को चुनाव मैदान में कांग्रेस पार्टी की तरफ से स्टार प्रचारक के तौर पर उतारकर पार्टी को कई बार सफलता दिलाई. हालांकि सोनिया ने हमेशा मीडिया से दूरी रखी जब उन्हें एक ऐसे मीडिया सलाहकार की जरूरत थी जो बीजेपी के राजनीतिक हथकंडों को लेकर उन्हें सही सलाह दे पाता और मीडिया में छपने वाली खबरों को लेकर उनका पक्ष स्पष्ट करता लेकिन इस दौरान भी सोनिया ने कांग्रेस में उन नेताओं पर विश्वास किया जो मैनेजर की भूमिका में थे. 19 साल तक एक ऐसी पार्टी का अध्यक्ष रहने के बाद सोनिया के सामने अभी भी अनेक चुनौतियां हैं चाहे वह नए पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर हो या फिर पार्टी को एक जुट रखने को लेकर जिसे पुत्र मोह की संज्ञा दी जाती है.
इटली के ऑरवैसेनो से भारत के दिल्ली तक के सफर में सोनियां ने एक ऐसी महिला का किरदार निभाया है जो एक भारतीय पत्नी भी हैं और भारतीय मां भी फिर भी वह विदेशी महिला हैं. 71 बसंत पार कर चुकीं सोनिया ने अपने 48 साल भारत के लिए दिए हैं जब 1969 में वह भारत में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बहू और राजीव की पत्नी बनकर आईं थी. अपने 71 साल के जीवन में कई उतार-चढावों को पार करने वाली सोनियां को राजनीतिक प्रतिद्वंदी कुछ भी कहे, लेकिन उन्हें भारतीय विदुषी कहना अतिश्योक्ति न होगी.