अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार बनेगी या उससे पहले ही वहां सिविल वार छिड़ जायेगा, इस पर अमेरिका समेत दुनिया का कोई भी मुल्क गारंटी के साथ ये नहीं कह सकता कि आने वाले दिनों में ये मुल्क किस रास्ते पर आगे बढ़ने वाला है. वहां की दो शख्सियत ऐसी हैं, जिन्होंने अपने ट्वीट के जरिए दुनिया के सामने तालिबान को लताड़ने की हिम्मत दिखाई है. इस आधार पर ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि तालिबान को सत्ता में काबिज होने के लिए अपने पुराने उसूलों में कुछ बदलाव लाकर वहां की जनता का भरोसा जीतना होगा, नहीं तो ग्रह युध्ह का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा.


तालिबान की कथनी और करनी पर यकीन करना बेहद मुश्किल


हालांकि तालिबानी नेताओं के अब तक आए बयानों से संकेत मिल रहा है कि शायद अब ये वैसा तालिबान न रहा हो, जिसने 1996 से 2001 तक इस मुल्क पर राज करते हुए हैवानियत को भो शर्मसार कर दिया था. लेकिन पुराने अनुभव को देखते हुए इनकी कथनी और करनी पर यकीन करना बेहद मुश्किल है. इसीलिये अफगानिस्तान अब सिर्फ भारत के लिए ही नहीं, बल्कि तमाम ताकतवर मुल्कों के लिए चिंता का सबब बना हुआ है कि कहीं वो हमें उस दोराहे पर न ले जाये कि विश्व युद्ध ही आखिरी रास्ता बचे.


पहले बात करते हैं उस अमानुल्लाह सालेह की, जिन्होंने खुद को अफगानिस्तान का कार्यकारी राष्ट्रपति घोषित कर रखा है. जबकि तालिबान ने उन्हें अब तक इस ओहदे के लिए आधिकारिक तौर पर काबुल नहीं किया है. उन्होंने अपने एक ट्वीट के जरिये तालिबान और पाकिस्तान दोनों को चेतावनी देते हुए दुनिया के सामने अपनी उदारवादी इमेज रखने की कोशिश की है. हालांकि उनकी ये कोशिश कितनी कामयाब होती है,ये तो वक़्त ही बताएगा. सालेह ने अपने ट्वीट में पाकिस्तान को तो नीचा दिखाया ही है, साथ ही तालिबानियों को भी लताड़ने का जोखिम उठाया है.


बंदूक की नोक के आगे घुटने टेक देंगे सालेह?


सालेह ने अपने ट्वीट मैं लिखा है, "हमारा मुल्क हिंसा का नहीं बल्कि कानून के राज का सम्मान करता है. अफगानिस्तान इतना बड़ा है कि न तो पाकिस्तान उस पर कंट्रोल कर सकता है और न ही तालिबान इस पर राज करने की कुव्वत रखता हैं." वह आगे लिखते हैं, "अपने उस इतिहास को मत भूलिये जो अपमान के स्याह पन्नों से भरे हुए हैं और जब आपको आतंकी समूहों के आगे घुटने टेकने पर मजबूर होना पड़ा था." बेशक अधिकांश देशों के राष्ट्राध्यक्ष उनकी इस दिलेरी की तारीफ करेंगें. लेकिन सवाल ये है कि मुल्क का राज संभालने की बैचेनी में फड़फड़ा रहे तालिबानी क्या उनकी बात सुनेंगे या फिर बंदूक की नोक के आगे खुद सालेह ही घुटने टेक देंगे?


तालिबान के ख़िलाफ़ अपनी आवाज उठाने की दूसरी हिम्मत एक ऐसे इंसान ने दिखाई है, जिसने 20 साल पहले अपने पिता को इन्हीं तालिबानियों के हाथों मौत के घाट उतरते हुए अपनी आंखों से देखा था. ये अहमद मसूद हैं, जिन्होंने अमेरिका के प्रतिष्टित अखबार 'वाशिंगटन पोस्ट' में एक लेख लिखा है. मौजूदा माहौल में तालिबान के झिलाफ़ अंतराष्ट्रीय मीडिया में लिखना कोई बड़ी बात नहीं है. लेकिन बड़ी और दिलेरी की बात ये कि अफगानिस्तान की पंजशीर घाटी में रहते हुए कोई ये लिखते हुए पश्चिमी देशों से गुहार लगाए कि तालिबान से लड़ने के लिए आप लोग मुझे हथियार मुहैया कराएं. सचमुच,ये बहुत बड़ा जज़्बा है,ये जानते हुए भी कि तालिबान को इस बारे में पता लगते ही वे मसूद को बख्शेंगे नहीं.


इस बार तालिबान के लिए राह आसान नहीं!


मसूद ने अपने लेख में इस पर भी जोर दिया है कि तालिबान सिर्फ अफगानियों के लिए ही समस्या नहीं है. उनका इशारा साफ है कि इसका दायरा उम्मीद से ज्यादा बड़ा है और कई मुल्क इसकी जड़ में आने वाले हैं. हालांकि अफगानिस्तान में रहते हुए तालिबान के खिलाफ सार्वजनिक रुप से मुखालफत की आवाज़ उथाने वाले भी ये समझते हैं कि इसका अंजाम क्या हो सकता है. फिर भी अगर ऐसी आवाज़ें उठ रहीं हैं तो ये कट्टरपंथी ताकतों को बेलगाम होने से कुछ हद तक तो रोकेंगीं ही. कल यानी 19 अगस्त को अफगानिस्तान की आज़ादी-दिवस के मौके पर राजधानी काबुल में अपना राष्ट्रीय दग्वाज़ लेकर लोग, जिस तरह से तालिबान के झिलाफ़ सड़कों पर उतरे थे, उससे लगता है कि बहुत सारी आवाज़ों को खामोश कर देना इस बार तालिबान के लिए उतना आसान नहीं होने वाला है.


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