संसद मे हंगामा करने वाला विपक्ष आखिर इतना लाचार क्यों है?
"मेरे खेत की मिट्टी से पलता है तेरे शहर का पेट,
मेरा नादान गांव अब भी उलझा है किश्तों में."
किसी शायर ने किसानों के आंदोलन को लेकर ये दो पंक्तियां लिखी थीं.लेकिन आज देश के लोकतंत्र के इतिहास में शायद पहली बार ये इबारत लिखी जाएगी,जब साल भर ताल चले किसी जन-आंदोलन के कारण सरकार को संसद में अपने ही बनाये कानून को वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.आज़ादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर देश की सबसे बड़ी पंचायत में ये एक ऐसी अनूठी व शर्मिंदगी भरी घटना साकार होगी,जिसकी मिसाल आने वाले सालों में राजनीति शास्त्र के छात्रों को पढ़ाई जायेगी कि कुछेक बार ऐसा भी होता है,जब जनता की ताकत के आगे सरकार की अकड़ भी बेहद कमजोर व लाचार पड़ जाती है.
आज से संसद का शीतकालीन सत्र शुरु हो रहा है औऱ पहले दिन ही किसानों की नाराजगी दूर करने के लिए मोदी सरकार अपने ऐलान के मुताबिक तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का बिल दोनों सदनों में पेश करने वाली है.लेकिन बात सिर्फ इससे ही ख़त्म होती नहीं दिख रही क्योंकि किसानों के आंदोलन को समर्थन देने वाला समूचा विपक्ष भी फसलों की सरकारी खरीद के न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी MSP के लिए कानून बनाने की जिद पर अड़ा हुआ है.सो,जाहिर है कि इस मसले के साथ ही और भी ऐसे कई मुद्दे हैं,जिन पर विपक्ष इस ठंड में भी सरकार के पसीने छुड़ाने से इतनी आसानी से पीछे नहीं हटने वाला है.वैसे भी लोकतंत्र में विपक्ष का सबसे बड़ा दायित्व यही होता है कि वो जनता से जुड़े मुद्दों को देश की सबसे बड़ी पंचाट के आगे मुखरता से उठाए और सरकार से उसके सही-गलत का पूरा हिसाब भी मांगे.
साढे सात साल पहले तक यही पार्टी संसद में मुख्य विपक्षी दल थी जिसके हाथों में आज सत्ता की कमान है लेकिन राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि तब यह एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका में थी और आज उसने एक अड़ियल व विपक्ष को हर मोर्चे पर दरकिनार कर देने वाली सत्ताधारी पार्टी का लबादा ओढ़ रखा है,जो लोकतंत्र की सेहत के लिए किसी भी लिहाज से ठीक नहीं कहा जा सकता.
साल 2004 से लेकर 2014 के उन दस सालों में जितने भी पत्रकारों ने संसद की कार्यवाही को कवर किया होगा,तो उन्हें दो चेहरे आज भी याद आते होंगे.पहला,लोकसभा में सुषमा स्वराज का और दूसरा, राज्यसभा में अरुण जेटली का.उस दौर में विपक्ष के नेता रहे ये दोनों ही नेता दुर्भाग्यवश आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन संसद में विपक्ष का रोल क्या होना चाहिए और वहां जनहित के मुद्दों को उठाकर देश की जनता का दिल कैसे जीता जाता है,इसमें उन दोनों को ही जबरदस्त महारत हासिल थी.सदन की शायद ही कोई ऎसी बैठक खाली गई हो,जब इन दोनों दिवंगत नेताओं ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए सरकार को घेरने में कोई कसर बाकी रखी हो.
विपक्ष आज अगर इतना बेबस व लाचार नज़र आता है,तो इसके लिए जिम्मेदार भी वह खुद ही है क्योंकि सदन में वो बमुश्किल ही एकजुट नज़र आया है. है.हालांकि विपक्ष की दलील यही होती है कि सरकार उसकी आवाज़ को दबा देती है और उन मुद्दों पर सदन में चर्चा कराने से भागती है,जिसका नाता देश के आम आदमी से है.ऐसी दलील देने वाले विपक्षी दलों के उन तमाम नेताओं को सुषमा स्वराज व अरुण जेटली के उन पुराने भाषणों के वीडियो बेहद गौर से सुनने-देखने चाहिए जो उन्होंने सदन में प्रतिपक्ष के नेता होने के बतौर दिए थे.इसलिये नहीं कि वे दोनों कुशल वक्ता थे,बल्कि ये जानने के लिए कब,कैसे और किन मुद्दों के जरिये सरकार को ऐसे घेरा जाता है कि वह निरुत्तर हो जाये और जनता की निगाह में पूरी बाज़ी विपक्ष जीत ले जाये.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव से तकरीबन साल भर पहले महंगाई,एफडीआई जैसे मुद्दों पर राज्यसभा में हुई बहस के दौरान अरुण जेटली के दिए भाषण को उनके संसदीय जीवन के सबसे महत्वपूर्ण व सर्वोत्तम भाषण के रूप में याद किया जाता है.इसलिये कि उन्होंने आम इंसान की तकलीफ से जुड़ी बातें रखते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर सीधा वार ही नहीं किया था,बल्कि उनका जवाब सुनने के बाद सत्ता से उनकी विदाई का ऐलान भी कर दिया था.जेटली के भाषण पर तंज कसते हुए मनमोहन सिंह ने कहा था कि -"पैसे पेड़ पर नहीं उगते कि सरकार अपना खजाना खाली करके कंगाल हो जाये." तब जेटली ने उनके व्यंग्य का जवाब भी उन्हीं के अंदाज़ में देते हुए कहा था-" प्रधानमंत्री जी,तो फिर ये भी मान लीजिये की वोट भी पेड़ों पर नहीं लगते कि वे आपकी झोली में गिर ही जाएंगे.साल भर की बात है,देश की जनता आपको हक़ीक़त से रुबरु करा ही देगी." मनमोहन सिंह के पास जेटली के इस तर्क का खामोशी के सिवा कोई और जवाब नहीं था.
लिहाज़ा,पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से पहले संसद के इस सत्र में हंगामा करके उसे महज मीडिया की सुर्खियां बनाने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है.विपक्ष को गहराई से इस पर सोचना होगा कि दोनों सदनों की कार्यवाही सुचारु रूप से चलाते हुए वो सरकार को ज्वलंत मुद्दों पर किस तरह से घेरकर जनता का विश्वास जीतने में कामयाब हो सकता है.
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