बग़ैर मायावती विपक्षी गठबंधन की धार उतनी तेज़ नहीं, साथ आने पर बीजेपी को हो सकता है काफ़ी नुकसान
आगामी लोकसभा चुनाव में अब 7 से 8 महीने का ही वक्त बचा है. बीजेपी की अगुवाई में एनडीए के सामने कड़ी चुनौती पेश करने के लिए कांग्रेस समेत 26 विपक्षी दलों का गठबंधन 'इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस' (I.N.D.I.A.) 'इंडिया' बना है. ये गठबंधन अपनी चुनावी रणनीति को आगे बढ़ाने के लिए अपनी तीसरी बैठक की तैयारियों में जुटा है.
31 अगस्त और 1 सितंबर को मुंबई में होने वाली इस बैठक में संभावना है कि सीट बंटवारे के फॉर्मूले पर विपक्षी दलों के बीच बातचीत हो सकती है. दिल्ली की 7 लोकसभा सीटों को लेकर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के नेताओं के बीच बयानबाजी चल रही है. ऐसे में मुंबई की बैठक में विपक्षी दलों के बीच इस बात पर भी मंथन होने की पूरी संभावना है कि कैसे 2024 के चुनाव तक विपक्षी एकता को सुनिश्चित किया जाए. इसके साथ ही इसकी भी पूरी संभावना है कि विपक्षी गठबंधन में उन दलों को भी शामिल करने पर विचार-विमर्श हो सकता है, जो अभी तक इससे दूरी बनाए हुए हैं, ताकि विपक्षी गठबंधन को और भी मजबूती मिल सके.
विपक्ष का गठबंधन कितना है मजबूत?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार लगातार तीसरी बार सत्ता हासिल न कर पाए, विपक्षी गठबंधन और एकजुटता का यही मकसद है. हालांकि विपक्ष के इस गठबंधन से मायावती, के. चंद्रशेखर राव, जगनमोहन रेड्डी और नवीन पटनायक जैसे नेता और उनकी पार्टियों ने किनारा करने का फैसला किया है. विपक्ष का ये मिलन कितना कारगर साबित होगा, ये तो लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद ही सही तरीके से पता चल सकेगा. लेकिन मायावती, के. चंद्रशेखर राव, जगनमोहन रेड्डी और नवीन पटनायक के इस विपक्षी एकता से दूरी बनाने से I.N.D.I.A. की धार उतनी मजबूत नहीं रहेगी, इसमें कोई राय नहीं है. अगर ये सारे नेता भी विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बन जाते तो फिर बीजेपी के लिए 2024 में मुश्किलें काफी बढ़ सकती थी.
विपक्षी गठबंधन के लिए मायावती का महत्व
इनमें सारे नेताओं में से भी एक नाम ऐसा है, जिसके विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बनने से सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ेगा. वो नाम है उत्तर प्रदेश की 4 बार मुख्यमंत्री रह चुकी और बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा मायावती. ऐसा इसलिए कह सकते हैं कि विपक्षी गठबंधन में जितने भी दल शामिल हैं, उनमें से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को छोड़कर कोई भी ऐसा दल नहीं है जिसका व्यापक जनाधार एक से ज्यादा राज्यों में हो. विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस और आप को छोड़ दें तो समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, जेडीयू, आरजेडी, एनसीपी, शिवसेना (उद्धव गुट) वो दल हैं जो किसी ख़ास राज्य में राजनीतिक पकड़ रखते हैं. ये ऐसे दल हैं जिनका जनाधार कमोबेश एक राज्य तक ही सीमित हैं. सीपीएम भी विपक्षी गठबंधन का हिस्सा है और वर्तमान में सीपीएम का भी जनाधार सिर्फ़ केरल में ही उस तरह से नज़र आता है, जिससे प्रभुत्व वाली स्थिति को दर्शाया जा सके.
विपक्षी दलों में मात्र एक कांग्रेस ही है, जिसका पैन इंडिया जनाधार माना जा सकता है. आम आदमी पार्टी भी मौजूदा वक्त में दिल्ली और पंजाब में ही दबदबा रखती है. उसमें भी दिल्ली में विधान सभा चुनाव में तो दो बार से उसका दबदबा रहा है, लेकिन लोक सभा चुनाव में तो उसका दिल्ली में खाता खुलना भी अभी बाकी है. न तो 2014 और न ही 2019 में आम आदमी पार्टी दिल्ली में कोई लोकसभा सीट जीत पाई है.
मायावती का कई राज्यों में है जनाधार
विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' को छोड़ दें और पूरे विपक्ष की बात करें तो मायावती की बीएसपी ही एक ऐसी पार्टी है जो कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा राज्यों में...थोड़ा या ज्यादा..जनाधार रखती है. भले ही उस सूबे में लोकसभा सीटें हो या न हो, जनाधार के मामले में बीएसपी का दायरा उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में फैला हुआ है. मायावती का ये मजबूत पक्ष है, जिसके बगैर विपक्षी गठबंधन की धार कमजोर होती है. इसे कई राज्यों में मायावती की पकड़ से संबंधित चुनावी वोट बैंक के आंकड़ों से समझा जा सकता है.
उत्तर प्रदेश में अभी भी बड़ा जनाधार
ये बात सही है कि मायावती की राजनीतिक ताकत का आधार स्तंभ उत्तर प्रदेश ही रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं है. उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ऐसा भी दौर था जब मायावती की तूती बोलती थी. वो चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. उनकी ही अगुवाई में बीएसपी ने 2007 के विधानसभा चुनाव में अपने दम पर बहुमत हासिल करने का भी करिश्मा कर दिखाया था. इस चुनाव में बीएसपी को राज्य की कुल 403 में से 206 सीटों पर जीत मिली थी. हालांकि 2012 के विधानसभा चुनाव से बीएसपी की राजनीतिक ज़मीन उत्तर प्रदेश में दरकने लगी और 2022 के विधानसभा चुनाव में जाकर बीएसपी की हालत इतनी खराब हो गई कि उसे महज़ एक सीट से संतोष करना पड़ा.
उसी तरह से लोक सभा चुनावों की बात करें तो 2009 में बीएसपी 20 सीट तक जीत गई थी. हालांकि उसके अगले ही चुनाव यानी 2014 में बीएसपी का खाता तक नहीं खुला. वहीं 2019 के लोक सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर चुनाव लड़ने पर बीएसपी एक बार फिर से 10 सीटों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही.
मायावती का वोट बैंक बरकरार
ये तथ्य हैं कि वर्तमान में उत्तर प्रदेश में मायावती की अकेले दम पर स्थिति उतनी मजबूत नहीं है और पिछले डेढ़ दशक में सीटों पर जीत हासिल करने के लिहाज से बीएसपी विधानसभा और लोकसभा दोनों तरह के चुनावों में 2007 और 2009 की तुलना में लगातार कमजोर होते गई है. इसके बावजूद भी मायावती अभी भी उत्तर प्रदेश में एक बड़ी राजनीतिक ताकत मानी जाती हैं. उसके पीछे का सबसे बड़ा कारण है, उनका वोट बैंक. वर्तमान में भी मायावती पूरे देश में अनुसूचित जाति (दलित) की सबसे बड़ी नेता माना जाती है.
कोर वोट बैंक की वजह से अहमियत
चुनाव में खराब प्रदर्शन के बावजूद बीएसपी का उत्तर प्रदेश में कोर वोट बैंक हमेशा बना रहा है. ये चुनावी आंकड़ों से स्पष्ट है. जब 2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी कोई भी सीट नहीं जीत पाई थी, उस वक्त भी मायावती की पार्टी का वोट शेयर करीब 20% रहा था. इसी तरह से पिछले लोक सभा चुनाव यानी 2019 में बीएसपी का वोट शेयर कमोबेश उतना ही (19.43%) रहा था. 2009 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी अब तक सबसे ज्यादा 20 सीट जीतने में कामयाब रही थी. उस वक्त मायावती की पार्टी का वोट शेयर 27.42% रहा था. 2004 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी 24.67% वोट शेयर के साथ 19 सीटों पर जीतने में सफल रही थी.
उसी तरह से 1999 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी 22.1% वोट शेयर के साथ 14 सीटें जीतने में सफल हो गई थी. 1998 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी 4 सीट ही जीत पाई थी, लेकिन वोट शेयर 20.9% रहा था. वहीं 1996 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी 6 सीट जीत पाई थी, लेकिन उसका वोट शेयर 20.6% रहा था.
यूपी में 20% के आसपास वोट शेयर
पिछले 7 लोकसभा चुनाव के आंकड़ों पर गौर करें, तो ये स्पष्ट है कि बीएसपी चाहे कितनी भी सीटें जीते या शून्य पर रहे, उसका वोट शेयर उत्तर प्रदेश में 20 फीसदी के आसपास रहता ही है. यही मायावती की ऐसी ताकत है, जिससे अभी भी उत्तर प्रदेश में उनकी राजनीतिक हैसियत को बरकरार रखे हुए हैं.
लोक सभा सीटों की संख्या के लिहाज़ से उत्तर प्रदेश अपने आप में देश का सबसे बड़ा राज्य में है. यहां कुल 80 लोक सभा सीट है. केंद्र में किस पार्टी या गठबंधन की सत्ता रहेगी, ये बहुत हद तक उत्तर प्रदेश में पार्टी प्रदर्शन पर भी निर्भर करता है. इतना ही नहीं, पिछले दो बार से एनडीए गठबंधन केंद्र में सरकार बनाने में कामयाब रहा है.
बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत उत्तर प्रदेश
बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत उत्तर प्रदेश ही है. 2014 में बीजेपी यहां 71 सीट ख़ुद जीत गई थी और उसकी सहयोगी अपना दल (एस) को दो सीटों पर जीत मिल गई थी. यानी 80 में 73 सीटें एनडीए के खाते में गई थी. उसी तरह से 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी ने यूपी में 62 सीटों पर जीत दर्ज की थी और उसकी सहयोगी अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल (एस) को फिर से दो सीटों पर जीत मिली थी. यानी 2019 में यूपी से एनडीए के खाते में 64 सीटें गई थी.
बीजेपी के प्रभुत्व को तोड़ने के लिए मायावती जरूरी
अगर बीजेपी को 2024 में विपक्ष चुनौती देना चाहता है तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी के प्रभुत्व को तोड़ना होगा. उत्तर प्रदेश में बीजेपी की स्थिति काफी मजबूत है. ये हाल में नगर निकाय चुनावों के नतीजों से भी स्पष्ट हुआ है. उसके साथ ही जब जनवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या में श्रीराम मंदिर का उद्घाटन करेंगे, तो ये भी 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की ताकत में और बढ़ोत्तरी का कारण बनेगा, ये भी तय है.
ऐसे में उत्तर प्रदेश में बीजेपी के सामने चुनौती करना ऐसा कठिन टास्क है, जो बिना मायावती के पूरा करना विपक्ष के लिए काफी मुश्किल है. मायावती का जिस तरह का जनाधार है, अगर वो विपक्ष के साथ हो जाए, तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 2024 में बड़ा नुकसान हो सकता है. वहीं अगर मायावती न तो एनडीए का हिस्सा बनती हैं और न ही विपक्षी गठबंधन का तो, ये रणनीति एक तरह से बीजेपी के लिए ही फायदेमंद साबित होगा और इससे विपक्षी गठबंधन के मंसूबों को करारा झटका लग सकता है. यूपी में मायावती के पास जितना बड़ा वोट बैंक हैं, वो अगर विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनता है और वहां त्रिकोणीय लड़ाई होती है, तो बीजेपी के खिलाफ जो वोट बैंक हैं, उसमें बड़ा बिखराव होगा. इसका सीधा फायदा बीजेपी को ही मिलेगा.
कई राज्यों में बीएसपी का कैडर आधार
उत्तर प्रदेश में बीजेपी को नुकसान की संभावनाओं के लिहाज से विपक्षी गठबंधन के लिए मायावती की अहमियत तो है ही, इसके अलावा मायावती यूपी के अलावा कई राज्यों में भी विपक्षी गठबंधन को काफी फायदा पहुंचा सकती हैं. अगर हम सिर्फ़ 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में कुछ बड़े और छोटे राज्यों में मायावती की पार्टी के वोट शेयर पर नज़र डालें तो उससे विपक्षी गठबंधन के लिए मायावती की प्रासंगिकता को समझा जा सकता है.
इन राज्यों में मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, गुजरात, छत्तीसगढ़ , कर्नाटक, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश प्रमुख हैं. मध्य प्रदेश में बीएसपी को 2019 में 2.4% और 2014 में 3.8 % वोट हासिल हुए थे, वहीं 2009 में 5.9% वोट मिले थे. छत्तीसगढ़ में 2019 में 2.3% और 2014 में 2.4% वोट मिले थे. उत्तराखंड में बीएसपी 2019 में 4.5% और 2014 में 4.8% तक वोट हासिल करने में कामयाब रही है.
पंजाब में बीएसपी को 2019 में 3.5% और 2014 में करीब दो फीसदी वोट मिले थे. हरियाणा के लिए ये आंकड़ा 2019 में 3.6% और 2014 में 4.6% रहा था. हिमाचल प्रदेश में 2019 में ये आंकड़ा करीब एक फीसदी और 2014 में 0.7% रहा था.
राजस्थान में 2019 में 1.1% और 2014 में 2.4% वोट हासिल हुए थे, वहीं 2009 में 3.4% वोट मिले थे. उसी तरह से गुजरात में बीएसपी को 2019 और 2014 दोनों में ही करीब 1 फीसदी वोट मिले थे. बिहार में 2019 में बीएसपी को 1.7% और 2014 में 2.2% वोट मिले थे. कर्नाटक में बीएसपी को 2019 में 1.2% और 2014 में करीब एक फीसदी वोट हासिल हुए थे. इनके अलावा महाराष्ट्र में भी बीएसपी का एक अच्छा ख़ासा कैडर रहा है, हालांकि प्रकाश अंबेडकर की पार्टी वंचित बहुजन अघाड़ी के आने से ये महाराष्ट्र में बीएसपी का जनाधार अब वैसा नहीं रहा है.
मायवती से दूसरे राज्यों में भी विपक्ष को फायदा
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि मायावती उत्तर प्रदेश के साथ ही कई और राज्यों में विपक्षी गठबंधन के लिए फायदेमंद साबित हो सकती हैं. विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस को छोड़कर बाकी जितने भी दल हैं, वो अपने जनाधार से बाहर के राज्यों में एक-दूसरे को कोई ख़ास लाभ पहुंचाने की स्थिति में नहीं हैं. इसमें बतौर विपक्ष जितनी बड़ी भूमिका मायावती की पार्टी निभा सकती है, वैसा दमखम कांग्रेस के अलावा किसी और पार्टी में नहीं हैं.
विपक्षी गठबंधन की सार्थकता बढ़ जाएगी
अभी फिलहाल विपक्षी गठबंधन के जरिए देशभर में वन टू वन फॉर्मूला के तहत 2024 में बीजेपी को घेरने की कवायद चल रही है. विपक्ष के लिए उसकी सार्थकता उत्तर प्रदेश के समीकरणों को साधे बिना अधूरी है. उत्तर प्रदेश में वन टू वन फॉर्मूला लागू हो और बीजेपी को सबसे बड़ा नुकसान पहुंचे, इसके लिए मायावती बहुत जरूरी हो जाती हैं. यूपी में विपक्ष को मायावती का साथ नहीं मिलता है तो फिर विपक्षी गठबंधन की सार्थकता कुछ या ज्यादा सीटें बढ़ाने तक तो हो सकती है, लेकिन इसका जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, वो पूरा करना आसान नहीं होगा.
मायावती को साथ लाने की पहल कौन करेगा?
बीजेपी के लिए सत्ता के लिहाज़ से खतरा बनने का जो मंसूबा पालकर विपक्षी गठबंधन आगे बढ़ रहा है, वो बिना मायावती के पूरा हो पाएगा, इसमें काफ़ी संदेह है. मायावती वो राजनीतिक ताकत हैं, जो वर्तमान में खुद तो अकेले ज्यादा कुछ नहीं कर सकती हैं, लेकिन अगर विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बन जाती हैं, तो फिर इससे बीजेपी का चुनावी समीकरण उत्तर प्रदेश समेत की राज्यों में बदल सकता है. जब विपक्षी गठबंधन की अगली बैठक मुंबई में होगी, तो इस गठबंधन के तमाम शीर्ष नेताओं को इस पहलू पर गौर करने की आवश्यकता है. यहां तक कि मायावती को अपने पाले में लाने के लिए समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में कुछ ज्यादा कुर्बानी देनी पड़े तो इस पर भी इन दलों को विचार करना चाहिए, क्योंकि इसके बगैर मायावती को विपक्षी गठबंधन से जोड़ना लगभग नामुमकिन है.
कांग्रेस और सपा को देनी होगी क़ुर्बानी
अगर 2024 में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ते हैं और मायावती की पार्टी यूपी की सभी 80 लोकसभा सीटों पर उम्मीदवार उतार देती है, तो इससे बीजेपी विरोधी वोटों में बड़ा बिखराव आएगा, जो हर तरह से बीजेपी के हित में ही होगा. वहीं इसके विपरीत मायावती, अखिलेश और कांग्रेस के साथ आने की संभावना पर बीजेपी को काफी सीटों का नुकसान हो सकता है.
मायावती पहले ही ऐलान कर चुकी हैं कि उनकी पार्टी न तो एनडीए का हिस्सा बनेगी और न ही विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का. हालांकि अभी चुनाव में काफी वक्त है और राजनीति में परसेप्शन के साथ ही पाला और विचार बदलने में वक्त नहीं लगता है. इस नजरिए से विपक्षी गठबंधन के तले कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की भूमिका काफी बढ़ जाती है. इन दोनों दलों को मायावती को साथ लाने के लिए जिजीविषा दिखानी होगी. तभी भविष्य में मायावती के विपक्षी गठबंधन का हिस्सा बनने की थोड़ी बहुत भी संभावना बन सकती है. इतना ही नहीं, ऐसा होने पर बीजेपी को भी उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में अपने चुनावी रणनीति में बड़ा बदलाव लाने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है.
मायावती के बिना विपक्षी गठबंधन की ताकत उतनी मजबूत नहीं रह जाती है. अगर मायावती इसका हिस्सा बनने को तैयार होती हैं, तो ये बीजेपी के लिए 2024 में काफ़ी नुकसानदायक साबित हो सकता है. मायावती यूपी के साथ ही कई राज्यों में विपक्षी एकजुटता को मजबूती दे सकती हैं.
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