लीजिए, औरतों ने घरों से बाहर, दूर जाकर काम करना छोड़ दिया है. घर के आस-पास काम तलाशती हैं, भले ही वह काम उनकी काबिलियत से कम का क्यो न हो. कम पैसे क्यों न मिलें. सिक्योरिटी नाम की भी तो कोई चीज होती है. आईटीडीपी की 2017 की एक स्टडी में यह कहा गया है. आईटीडीपी ट्रांसपोर्टेशन और डेवलपमेंट पॉलिसी का इंस्टीट्यूट है. इंस्टीट्यूट ने यह स्टडी यूं तो शहरों में ट्रांसपोर्ट की हालत पर की थी लेकिन स्टडी का लब्बो-लुआब कुछ यह निकला. बाकी, सभी समझदार हैं. औरतें, लड़कियों के साथ मर्द पहरेदार हम सभी तैनात करते हैं. रोज-रोज पहरेदारी संभव नहीं. इसलिए दूर जाना ही नहीं. आस-पास जाओ. ताकि दिक्कत कम से कम हो.


पीछे मशहूर इकोनॉमिस्ट गिरिजा बोरकर की एक रिसर्च में बताया गया था कि किस तरह यौन शोषण अर्थव्यवस्था को प्रभावित करता है. उनकी स्टडी की शुरुआत में एक सिंपल सवाल पूछा गया था- दिल्ली की लड़कियां लड़कों के मुकाबले निम्न स्तरीय कॉलेज में दाखिला क्यों लेती हैं, इसके बावजूद कि वे कॉलेजों के एंट्रेंस एग्जाम में लड़कों से ज्यादा स्कोर करती हैं. रिसर्च में कहा गया था- लफंगों से बचने के लिए. मजे की बात यह है कि आईटीडीपी और बोरकर, दोनों की स्टडी में कहा गया है कि औरतें पब्लिक ट्रांसपोर्ट, खासकर बसों का कम से कम इस्तेमाल करती हैं. भले ही उन्हें परिवहन के दूसरे साधनों पर दुगुना, तिगुना खर्च करना पड़े, वे इसके लिए तैयार रहती हैं.


सुरक्षा हमारे लिए सबसे अहम है. हमारा देश पारंपरिक रूप से अहिंसक समाज है, यह धारणा हम भारतीयों में इतनी भरी पड़ी है कि कोई इससे इंकार करे तो हम मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं. फिर औरतों को घर-बार ठोंक-पीटकर सबक सिखाते हैं. नतीजा यह है कि औरतें बहुत सारी जगहों से गायब हो रही हैं. अब लेबर फोर्स में भी कम हो रही हैं. दो दशको के दौरान श्रम बाजार में उनकी हिस्सेदारी 34.8% से घटकर 27% हो गई है. इसकी एक बहुत बड़ी वजह असुरक्षित माहौल है. जब नौकरी, पढ़ाई या दूसरी बुनियादी सेवाएं घर से दूर होती हैं तो औरतों का उन तक पहुंचना मुश्किल होता जाता है. हर कोई महंगा ट्रांसपोर्ट अफोर्ड नहीं कर सकता- ऐसे में दूर जाएं तो कैसा? आस-पास कामचलाऊ नौकरियां ढूंढी जाती हैं. इससे हमें यकीन होता है कि हम सुरक्षित हैं. दिन ढलते घर पहुंच जाते हैं. रास्ते में शोहदों की नजरों से बचे रहते हैं.


यूं आईटीडीपी की रिपोर्ट खुद कहती हैं कि औरतें और लड़कियां हिंसा और हिंसा के डर के कारण दूर जाने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट इस्तेमाल नहीं करतीं. विमेन्स रिसोर्स सेंटर जागोरी के आंकड़े कहते हैं कि 51% औरतों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट के अंदर और 42% को पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इंतजार करने के समय सेक्सुअल हैरेसमेंट का सामना करना पड़ता है. बस स्टॉप, सड़क, गलियां, बाजार, कोई सुरक्षित नहीं. कहीं से भी औरत को धरा जा सकता है.उसकी ऐसी की तैसी की जा सकती है. हर रोज ऐसा हो रहा है, होता जा रहा है.


तो, हिंसा या उसके डर से औरतें घरों से न निकलें, या आस-पास लो पेड जॉब्स करें तो यह उनके अधिकारों का, हनन ही है. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय खुद यह बात कहता है. फिर इसका इकोनॉमी पर क्या असर होगा, यह भी सोचा जा सकता है. संयुक्त राष्ट्र के लिए कनाडा के तीन सोशल साइंटिस्ट्स ने एक पेपर तैयार किया है जिसका शीर्षक है- द इकोनॉमिक कॉस्ट ऑफ वॉयलेंस अगेंस्ट विमेन. इसमें कहा गया है कि औरतों पर होने वाली हिंसा की कीमत पूरे समाज को चुकानी पड़ती है. अर्थव्यवस्था पर भी असर होता है. उत्पादकता कम होती है तो लाभ और आय भी कम होती है. वेज रेट के हिसाब से इकोनॉमी पर भी दबाव पड़ता है.


भारत में आईटी और बीपीओ, बैंकिंग और फाइनांशियल, फैशन, इंटीरियर डिजाइनिंग, सेल्स और मार्केटिंग, मेडिसिन, नर्सिंग, रीटेल और टूरिज्म, इन सभी जगहों पर औरतें बड़ी संख्या में हैं. औरतों के डर में रहने से इन सभी पर असर पड़ता है. बिजनेस और इकोनॉमी प्रभावित होती है. पिछले साल बेंगलूर में नॉर्थ ईस्ट के लोगों पर होने वाले हमलों के बाद रेस्त्रां सेक्टर पर बहुत असर पड़ा था. लड़कियों के साथ भी यही होता है. घर से बाहर पढ़ने नहीं जा पातीं. नौकरियों के लिए दूर नहीं जा पातीं. घर वाले पिंजड़ों में बंद कर देते हैं. क्योंकि डरते हैं. लड़कियों को डराते हैं. लड़कियां कई बार डर जाती हैं. थॉम्प्सन रॉयटर्स की लीगल न्यूज सर्विस ट्रस्ट लॉ भारत को महिलाओं के लिए चौथा सबसे खतरनाक देश मानता है तो इसका कुछ कारण है. आठ साल, आठ महीने की बच्चियां भी यहां सुरक्षित नहीं. आसिफा भी नहीं, गुड़िया भी नहीं, निर्भया भी नहीं.


लड़कियां डरे नहीं, इसके लिए जरूरी है कि शहरों, कस्बों को कुछ इस तरह बनाया जाए कि माहौल सुरक्षित हो. सड़कें, गलियां आबाद रहें- चहल-पहल बनी रहे. सियोल में पब्लिक स्पेसेज में पैदलयात्रा के लिए पूरी गुंजाइश बनाई गई है. अर्जेंटीना के रोसारियो में वॉल आर्ट के जरिए पब्लिक स्पेसेज में मर्दों को सेंसिटिव बनाया जा रहा है-सार्वजनिक स्थानों को उपयोग लायक बनाया जा रहा है. पापुआ न्यू गिनी के पोर्ट मोर्स्बी में मार्केट्स को विमेन फ्रेंडली बनाया गया है. वियना शहर के साथ तो कई प्रयोग किए गए हैं. इस शहर की योजना बनाने के समय औरतों का खास ध्यान रखा गया. सिटी प्लानर्स ने एक अध्ययन किया जिसमें यह पाया गया कि शहरों में पुरुषों के मूवमेंट के पैटर्न का अनुमान लगाया जा सकता है. लेकिन औरतों के मूवमेंट का पैटर्न उनकी दिनभर की जिम्मेदारियों के हिसाब से तय होता है. वहां पता चला कि औरतें पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल आदमियों से ज्यादा करती हैं और आदमियों के मुकाबले पैदल भी ज्यादा चलती हैं. इसे देखते हुए सिटी प्लानर्स ने पैदलयात्रियों के हिसाब से शहर की योजना बनाई. महिलाओं के लिए रात को पैदल चलाना आसान हो, इसलिए सड़कों पर अतिरिक्त लाइटें लगवाईं.


इसीलिए औरतों के हिसाब से सोचना शुरू कीजिए. अगर वे चुप रहती हैं तो इस चुप में भी एक दहाड़ बंद है. यह चुप अनर्गल बोलते रहने से कहीं अधिक मुखर है. क्योंकि औरतों की सेफ्टी के बिना आपकी अर्थव्यवस्था धराशायी हो जाएगी- तब न तो नारे होंगे, न नारे लगाने वाले.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)