हैरी पॉटर सीरिज की ब्रिटिश एक्ट्रेस एमा वॉटसन ने 2014 में यूएन विमेन गुडविल एंबेसेडर के तौर पर कहा था कि लोग स्कूल में उन्हें बॉसी कहकर चिढ़ाते थे तो कुछ अजीब नहीं लगा था. ऐसा उन लड़कियों को अक्सर कहा जाता है जो इनीशिएटिव लेती हैं या लीडरशिप की क्वालिटी वाली होती हैं. हमें कुछ इस तरह की लड़कियां पसंद नहीं आतीं. लड़कियां दबी-सहमी, चुपचाप अपना काम करने वाली हों, तो ही अच्छी लगती हैं. हाल ही में फिक्की ने भी यह बात कबूली है. उसके महिला संगठन एफएलओ के सर्वे में कहा गया है कि भारतीय कंपनियां औरतों को लीडरशिप पोजीशंस के लायक नहीं समझतीं. सर्वे में शामिल सिर्फ 6% कंपनियों के इंडिपेंडेंट डायरेक्टरों में औरतों और आदमियों को बराबर का प्रतिनिधित्व मिला हुआ है. 31% कंपनियों में सीनियर मैनेजमेंट पदों पर 5% से भी कम औरतें हैं.
अब इस बारे में ज्यादा कवित्व बिखेरने की जरूरत नहीं कि जिन जगहों पर औरतें मौजूद होती हैं, वे जगहें स्वर्ग बन जातीं हैं. औरतें भी तमाम घोटालों, भ्रष्टाचार में फंसी हुई पाई गई हैं. कितने ही मामलों में पुलिसिया जांच चल रही है. इसीलिए जरूरी यह है कि उन्हें आसमान से उतरा अवतार न माना जाए, इंसान ही समझा जाए. इंसान सही और गलत हो सकता है. हां, हरेक को बराबरी का मौका जरूर मिलना चाहिए. बराबरी का ही तकाजा है कि औरतों को हर जगह, बराबर की जगह मिले. इस जगह की तलाश करने में हमारा दम निकला जा रहा है. हमारी भर्तियां नहीं हो रहीं, फिर सीनियर पोजिशंस की तो बात ही क्या की जाए. कॉरपोरेट वर्ल्ड में औरतें जूनियर लेवल पर 28% हैं, मिड लेवल पर 14.91% और सीनियर लेवल पर 9.32%. मशहूर एनजीओ ‘दसरा’ के आंकड़े कहते हैं कि चूंकि वर्कफोर्स से औरतें एक खास उम्र में बाहर हो जाती हैं, इसलिए ऐसा होता है. जूनियर और मिडिल लेवल पर 48% औरतें काम छोड़ दिया करती हैं. सिर्फ 5% औरतें सीनियर लीडरशिप पोजीशंस पर पहुंचती हैं. उन्हें भी बहुत सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. उस जगह तक पहुंचने में भी और उस जगह पर बैठे रहने में भी.
मशहूर लेखिका और मैनेजमेंट कंसल्टेंट अपर्णा जैन की एक किताब है ‘ओन इट- लीडरशिप लेसंस फ्रॉम विमेन हू डू’. इसमें सीनियर पदों पर काम करने वाली औरतों की आपबीती है. उन्हें किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. पढ़िए और जानिए कि नॉन सेक्सुअल हैरेसमेंट कितना खतरनाक हो सकता है. भेदभाव के कितने प्रकार हो सकते हैं. माइक्रोअसॉल्ट- जिसमें नाम लेकर जानबूझकर चोट पहुंचाई जाती है, आपको अवॉयड किया जाता है. माइक्रोइंसल्ट- जिसमें मौखिक या गैर मौखिक रूप से रूखापन और असंवेदनशीलता दिखाई जाती है. माइक्रोइनवैलिडेशन- जिसमें किसी व्यक्ति की सोच, अनुभव या भावनाओं को बार-बार नकारा जाता है. औरतों को रोजाना ऐसे व्यवहार का सामना करना पड़ता है, यह किताब उनका बहुत अच्छी तरह से खुलासा करती है.
इस किताब को पढ़कर औरतों की हॉरर स्टोरीज़ के बारे में पता चलेगा. वे किस तरह शिखर पर अपनी छोटी सी जगह बनाती हैं. फिक्की की रिपोर्ट यह भी कहती है कि तमाम क्षेत्रों में सिर्फ सर्विस सेक्टर में औरतें बड़ी संख्या में काम कर रही हैं. वहां उन्हें प्रमोशन वगैरह भी मिलते हैं. मैन्यूफैक्चरिंग का क्षेत्र औरतों का क्षेत्र माना जाता है, लेकिन यहां उन्हें इनफॉर्मल रोजगार ज्यादा मिलता है. औपचारिक क्षेत्र के मैन्यूफैक्चरिंग उद्योग में आदमियों को ज्यादा पैसे भी मिलते हैं और पूछ भी ज्यादा होती है. औरतें, जहां की तहां रह जाती हैं.
यह तब है, जब अगस्त, 2013 में कंपनीज एक्ट में संशोधन करके कहा गया था कि सभी लिस्टेड कंपनियों और बड़ी पब्लिक लिमिटेड फर्म्स को अपने बोर्ड में कम से कम एक महिला डायरेक्टर को रखना ही होगा. फिर पिछले साल सेबी के डायरेक्शंस आए. सेबी ने सभी कंपनियों को लताड़ लगाई. कहा कि कानून को पालन किया जाए. उस समय प्राइम डेटाबेस के आंकड़ों में कहा गया था कि एनएसई में लिस्टेड 1,670 कंपनियों में 637 ने अपने बोर्ड में कोई इंडिपेंडेंट डायरेक्टर नियुक्त नहीं किया था. 31 मार्च, 2017 तक निफ्टी की 500 कंपनियों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 13% था. सिर्फ 26 बोर्ड्स में तीन या उससे अधिक महिला डायरेक्टर थीं. 15 कंपनियों में कोई महिला प्रतिनिधि नहीं थे. यह नार्वे (39%) फ्रांस (34%), यूके (23%), यूएस (21%) में सबसे कम है.
लीडरशिप पोजीशंस में औरतों की मौजूदगी बहुत जरूरी है. मल्टीनेशनल ह्यूमन रिसोर्स कंसल्टिंग फर्म रैंडस्टेड ने 2014 में एक स्टडी की थी. उसमें कहा गया था कि जिन कंपनियों के प्रोफेशनल सीईओ में औरत और मर्द, बराबर संख्या में थे, वहां रिटर्न ऑन इक्विटी (आरओई) यानी लाभपरकता में 4.4% की बढ़ोतरी हुई थी. लेकिन जिन कंपनियों के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में सिर्फ मर्द थे, उनका आरओई सिर्फ 1.8% था. मतलब तरक्की औरतों के बिना संभव नहीं है. उसके लिए आपको औरतों की भी मदद लेनी होगी.
यूं हम मानने वाले नहीं हैं. किसी स्टडी, किसी निष्कर्ष से हमारे कानों पर जूं नहीं रेंगती. 1976 का समान पारिश्रमिक एक्ट कहता है कि औरतों-आदमियों को एक बराबर मजदूरी दी जाएगी. भर्ती में भी कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा. अगर ये प्रोविजन नहीं माने गए तो सजा के तौर पर एक साल की जेल या 20 हजार रुपए के जुर्माना का भरना पड़ सकता है. अब संसद में लंबित पड़ी वेतन संहिता 2017 में यह प्रोविजन ही नदारद है. अगर यह संहिता मंजूर होती है तो पिछला कानून खत्म हो जाएगा, नई संहिता के हिसाब से काम होगा. नई संहिता में यह तो कहा गया है कि मर्द-औरतों को बराबर की तनख्वाह मिलेगी. लेकिन भर्ती भी बराबरी से की जाएगी, इस पर चुप्पी साधी गई है. जब भर्ती ही नहीं होगी, तो बराबर की तनख्वाह क्या? प्रमोशन, सीनियर पोजीशंस क्या?
सो, नियम बनाने वाले आप, नियमों का पालन करने वाले आप. हम आपकी सुनने वाले, आपके हिसाब से चलने वाले. मर्दों के बनाए रूल्स को तोड़ने का हक औरतों को नहीं. नहीं तो, उन्हें झगड़ालू-बॉसी-नेतागिरी करने वाली कहा जाएगा. ये सब मर्दों की विशेषताएं हैं. वही बॉस, नेता बने अच्छे लगते हैं. मशहूर एक्ट्रेस नंदिता दास ने एक इंटरव्यू में कहा था- एक जैसा व्यवहार करने पर जहां महिला फिल्म निर्देशकों को बॉसी और एग्रेसिव कहा जाता है, वहीं पुरुष निर्देशकों को एसर्टिव, आत्मविश्वास से भरा, अपनी बात साफ तरीके से कहना वाला. तो, यह इस बर्ताव को छोड़िए और औरतों के लिए रास्ता छोड़िए. वे आपसे उन्नीस बिल्कुल नहीं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)