आप राजनीति में उन्हें बहनजी, दीदी, अम्मा कहेंगे लेकिन जब वोट देने जाएंगे तो यही सोचेंगे, क्या ये शासन कर पाएंगी? राजनीति में महिला कैंडिडेट्स की स्थिति इसी एक सोच से डांवाडोल हो जाती है. राजनीतिक संघर्ष में उनका खूब प्रयोग किया जाता है, मतदाताओं को लुभाने के लिए भी उनसे प्रचार करवाया जाता है, लेकिन जब बात टिकट देने की आती है तो वे पीछे छूट जाती हैं. क्योंकि पॉलिटिकल पार्टियां भी जानती हैं कि मतदाता उन्हें वोट कम ही देंगे.


इस समय देश में पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की धूम है. गोवा और पंजाब तो इस परीक्षा से गुजर भी चुके हैं. बाकी उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और मणिपुर में चुनाव अभी बाकी हैं. इन सभी जगहों पर दल कोई भी हों, उनकी राजनीतिक विचारधारा कोई भी हो लेकिन महिला उम्मीदवारों के लिए हर जगह मुंह ताकने की सी हालत है.

पंजाब में किस्मत आजमा रहे 1145 प्रत्याशियों में महिलाओं की संख्या सिर्फ 81 है. चूंकि हमेशा की तरह बड़े राजनीतिक दलों ने महिला प्रत्याशियों की अनदेखी की है इसलिए इस बार आजाद उम्मीदवारों के तौर पर लगभग 32 महिलाओं ने चुनाव लड़ा है. मोगा में तो सबसे ज्यादा यानी तीन महिलाओं ने आजाद प्रत्याशी के तौर पर अपनी किस्मत आजमाई है पर पंजाब में 66 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां से एक भी महिला उम्मीदवार ने दांव नहीं लगाया. वैसे इससे पहले भी पंजाब में ऐसी ही स्थिति रही है. 2012 के विधानसभा चुनावों में जिन 93 महिला उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा था, उनमें से 68 की जमानत जब्त हो गई थी.

दूसरा राज्य गोवा आपको काफी प्रोग्रेसिव लगता होगा. पर क्या औरतों के मामले में भी प्रोग्रेसिव होना काम आता है? शायद नहीं. गोवा विधानसभा की कुल 40 सीटों पर कुल 250 उम्मीदवारों में औरतों की संख्या सिर्फ 16 है. महिला वोटर भले ही 51 परसेंट हों लेकिन चुनावी मैदान में उनका प्रतिनिधित्व 6.4 परसेंट है. वैसे इन 40 सीटों पर जब इससे पहले चुनाव हुआ था तो सिर्फ एक महिला जीतकर आई थी.
इसीलिए राजनीतिक दल महिलाओं को प्रत्याशी बनाने से पल्ला झाड़ते हैं. दंगल में उस पहलवान पर दांव क्या लगाना, जिसके जीतने की उम्मीद कम हो. इस रेस में तो औरतें हारती ही हैं. हारेंगी भी क्यों नहीं- यूएनडीपी के 148 देशों के जेंडर इनइक्वालिटी इंडेक्स में भारत की रैंकिंग 132 है. श्रीलंका, नेपाल, भूटान भी हमसे आगे हैं. सो, वोटरों का पक्षपात भी इसी पूर्वाग्रह का विस्तार है.

नगालैंड को भी इस ढिठाई के चलते फूंका जा रहा है. मर्द सीना ठोंक कर कह रहे हैं कि औरतों को 33 परसेंट आरक्षण देने से हमारी परंपरा और रिवाजों को चोट पहुंचेगी. कुछ इसी तरह की चोट महिला उम्मीदवारों पर राजस्थान में भी हुई है. वहां पंचायतों में चुनाव में प्रत्याशी बनने के लिए शैक्षणिक योग्यता का जो मानदंड तय किया गया है, उसमें अधिकतर महिलाएं चुनाव लड़ने से ही महरूम हो गई हैं. यानी सीधे तौर से लगाओ या उल्टी तरह से, महिलाओं का चुनाव लड़ना मुश्किल ही बन रहा है.

ऐसा नहीं है कि हमारे यहां बड़े राजनीतिक पदों पर औरतें पहुंचती नहीं हैं. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं, प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति और कितने ही राज्यों में महिला मुख्यमंत्री भी बनीं. लेकिन संसद या विधानमंडलों में महिलाओं को प्रतिनिधित्व बहुत ज्यादा नहीं मिला. हर टियर में उनकी मौजूदगी नजर नहीं आई. जैसा कि 2014 के लोकसभा चुनावों में 543 उम्मीदवार चुनकर आए तो उनमें महिलाओं की संख्या सिर्फ 62 थी. यह 1952 से लेकर अब तक की सबसे अधिक भागीदारी का आंकड़ा है.

इसी वजह से कहा जाता है कि धीरे-धीरे ही सही औरतों को प्रतिनिधित्व मिल रहा है. जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें सभी में महिला विधायकों का प्रतिशत 10 से अधिक नहीं है. उत्तर प्रदेश को ही लीजिए. इस राज्य ने हमारे देश को पहली और अकेली महिला प्रधानमंत्री दी है. पर पिछले चुनावों में वहां कुल 583 महिला उम्मीदवारों में से सिर्फ 35 को जीत नसीब हुई थी. इस बार भी मामला कुछ मजेदार नहीं है. यहां तक कि बसपा जिसकी सुप्रीमो खुद बहन मायावती हैं, ने भी कुछ ही बहनों पर ही भरोसा जताया है. 2012 के चुनाव में 33 महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारने वाली बसपा की लिस्ट में अभी तक सिर्फ 22 महिलाएं हैं. इसी तरह सपा ने अभी तक 31 और कांग्रेस ने छह महिलाओं को टिकट दिया है.भाजपा इस मामले में आगे निकल गई है जिसने अब तक 42 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया है.
मणिपुर भी इससे कुछ अलग नहीं. वहां 1990 में पहली बार कोई महिला विधायक जीतकर विधानसभा में पहुंची थी. पिछले विधानसभा चुनावों में 60 सदस्यों में महिलाएं सिर्फ तीन थीं. इस बार मणिपुर में इरोम शर्मिला भी चुनाव लड़ रही हैं, यह सुखद है. पांचवे राज्य उत्तराखंड में पिछली विधानसभा में कुल 70 विधायकों में महिलाएं सिर्फ छह थीं. चुनाव 63 ने लड़ा था. इस बार भाजपा और कांग्रेस ने जितनी महिलाओं को टिकट दिया है, उनका कुल आंकड़ा 50 भी नहीं पहुंचता.

पॉलिटिकल रेस में औरतें हारती हैं तो क्यों? बेशक मर्दवादी सोच मतदाताओं से लेकर राजनीतिक दल पर भी हावी है. दरअसल राजनीति में दाखिल होने के साथ उनके साथ भेदभाव शुरू हो जाता है. पुरुष उम्मीदवारों की तुलना में उनके चुनाव प्रचार भी देखे जा सकते हैं. आम तौर पर पुरुष उम्मीदवारों के प्रचार में पार्टियां और वे खुद ज्यादा खर्च करते हैं. फिर औरतें उसी व्यवस्थित तरीके से सभी स्तरों पर राजनीतिक करियर बनाने के बारे में नहीं सोचतीं- ठीक मर्दों की तरह. राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर इसी वजह से उनका पहुंचना और फिर चुनाव जीतना मुश्किल होता है. उनके राजनीतिक दलों की भी यह जिम्मेदारी होती है कि वे महिला सदस्यों की भागीदारिता बढ़ाने की कोशिश करें.

शहरों और कस्बों में उनके करियर को फलने-फूलने दें. राजनीतिक करियर बनाने में समय लगता है. इतना समय राजनीतिक दलों को भी उन्हें देना होगा. अगर पार्टी में फैसले लेने की ताकत महिला सदस्यों को दी जाएगी तो बात कुछ औऱ होगी. सिर्फ बेटी, बहू या रिश्तेदार को टिकट देने की बजाय सशक्त महिला नेता को तवज्जो दी जाएगी तो बात ही कुछ और होगी. वरना ऐसे भी आंकड़े हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा में पुरुष विधायकों ने महिला विधायकों से तीन गुना सवाल पूछे हैं. औरतें विधानसभा में सवाल भी न पूछें तो उनकी क्षमता का अंदाजा लगाया जा सकता है. सपा की बहू डिंपल यादव ने लोकसभा में पिछले लगभग ढाई साल में सिर्फ दो डिबेट में हिस्सा लिया है और सवाल तो एक भी नहीं पूछे हैं.

इसके लिए राजनीतिक दलों को ही अपनी महिला नेताओं को तैयार करना होगा. जीतना उसके बाद संभव होगा. यूएन विमेन का कहना है कि महिला राजनेता भारत में महिला उत्पीड़न को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं. संगठन के सर्वे में अगर जी 20 देशों में कनाडा को महिलाओं के लिए सबसे अच्छी जगह माना गया तो इसका एक कारण यह भी है कि वहां की संसद में महिलाओं की 25 परसेंट से अधिक मौजूदगी है. वैसे रवांडा दुनिया का अकेला ऐसा देश हैं जहां की संसद के निचले सदन में 63.8 परसेंट औरतें हैं. इसके बाद बोलिविया का नंबर आता है जहां औरतों की मौजूदगी 53.1 परसेंट है. जब सालों तक गृह युद्ध से जूझ चुके रवांडा जैसे देश में यह स्थिति हो सकती है, तो हमारी क्यों नहीं?

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