टिकट बंटवारे में महिलाएं किनारे लगा दी जाती हैं. संसद में पहुंचना दिवास्वप्न बन जाता है. पॉलिटिकल करियर सिर्फ बेगारी में गुजर जाता है. कभी मंच पर चेहरा चमका दिया, कभी भीड़ जुटा दी. इसके बाद चूड़ियां पहनकर चूल्हा चौका करो. यही काम तुम्हारा है. महिला नेताओं को राजनीति में ढेरों पापड़ बेलने पड़ते हैं. कभी तीखे, कभी चरपरे. राजनीति ताकत का काम है, और यह औरतों पर नहीं सुहाता. इसी से औरतों से ताकत वाले काम करवाना मर्दों को जमता नहीं. इस सिलसिले में एक सर्वेक्षण प्रशांत देशों, दक्षिण कोरिया और फिलीपींस में किया गया था, लेकिन लागू दूसरे देशों पर भी होता है.


सर्वेक्षण में यह पता चला था कि महिला नेताओं को पुरुष नेताओं के मुकाबले ज्यादा नुकसान उठाना पड़ता है. जॉर्जिया विश्वविद्यालय के पॉलिटिकल एनालिस्ट्स की एक टीम ने कहा था कि टॉप की पोजीशन पर पहुंचने के बावजूद अक्सर महिलाओं को सेक्सिएस्ट सोच का शिकार होना पड़ता है.


उन्हें बुरी तरह जज किया जाता है. किसी भी असफलता के लिए पुरुष नेताओं के मुकाबले, ज्यादा जिम्मेदार ठहराया जाता है. उनसे ज्यादा हायर स्टैंडर्ड की उम्मीद की जाती है. भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर उनके साथ अधिक बुरा बर्ताव किया जाता है.


अपने यहां भी कुछ ऐसा ही है. ममता बनर्जी को अपने तीखे तेवर की ज्यादा आलोचना सहनी पड़ती है. सोनिया गांधी के विदेशी तारों की बधिया जब-तब उधेड़ी जाती है. वसुंधरा राजे को झगड़ालू स्वभाव की बताया जाता है. स्मृति ईरानी की क्वालिफिकेशन पर लगातार सवाल खड़े किए जाते हैं. सुप्रिया सुले पर उनके पिता की छत्रछाया से कइयों को ऐतराज होता है. औरतों में भी तो पितृ सत्ता ने गहरी सेंध लगाई है. उनका दिमाग भी इस फेर से बाहर निकल नहीं पाता.


कुल मिलाकर, राजनीति में आने से लेकर ऊपर के पद पर पहुंचने तक, औरतों को लगातार मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. इसकी शुरुआत निचले पायदान से हो जाती है. 1993 में संविधान संशोधन के साथ पंचायतों में औरतों के लिए 33 परसेंट सीटें रिजर्व की गई थीं. तब इस बात की बार-बार आलोचना की गई थी कि रिजर्वेशन से डमी नेता तैयार किए जाएंगे. रिजर्व सीटों पर आदमी अपनी बीवी, बहन, मां को खड़ा करेंगे. काम वही करेंगे, नाम औरत का होगा.


कई जगहों पर तो यह भी कहा गया कि निरक्षर औरतें, राजनीति का ककहरा कहां पढ़ पाएंगी. राजस्थान में पंचायतों में चुनाव लड़ने के लिए मिनिमम क्वालिफिकेशन के क्राइटीरिया ने औरतों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया और इसे महिला विरोधी कदम कहा गया.


अब नई सरकार ने इस शर्त को हटा दिया है. अंबेडकर 1928 में कह चुके हैं कि यह सोचना कि निरक्षर आदमी बुद्धिहीन होता है, हमारी भूल है. अच्छे राजनेता की परिभाषा बहुत व्यक्तिनिष्ठ होती है और उसकी विशेषताओं को सभी अपनी-अपनी तरह से स्पष्ट करते है. आप जितने लोगों से पूछेंगे, उतनी तरह के जवाब मिलेंगे.


अक्सर महिला नेताओं को पुरुष नेता अपनी तरह से चलाने की कोशिश भी करते हैं. मतलब हमारा ऑर्डर मानो. अपने फैसले अपनी तरह से मत लो. यह भी कि जातिगत दमन का भी शिकार होना पड़ता है. यह सब इसके बावजूद है कि संविधान और अंतरराष्ट्रीय कानूनी बाध्यताएं औरतों को आदमियों की बराबरी में रखते हैं.


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संविधान का अनुच्छेद 46 कहता है कि राज्य को समाज के कमजोर तबकों को सामाजिक न्याय और शोषण से बचाना होगा. अनुच्छेद 14 सबको समानता का अधिकार देता है. महिलाओं से होने वाले भेदभाव को रोकने से जुड़े अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन पर भारत में दस्तखत किए हैं. उसका अनुच्छेद 7 कहता है कि राजनीतिक और सामाजिक जीवन में महिलाओं से होने वाले भेदभाव को समाप्त करने के लिए विभिन्न देशों को उपाय करने होंगे. यह सुनिश्चित करना होगा कि महिलाओं को भी पुरुषों की तरह सरकारी निकायों के चुनावों में खड़े होने का मौका मिले. चूंकि सरकारी नीतियां बनाने और उन्हें कार्यान्वयन में औरतो को भी भागीदार बनने का हक है.


औरतों को राजनीति में आने की जरूरत क्यों है? किसी ने जवाब दिया, ताकि वे औरतों की समस्याओं को हल कर सकें. शायद इतना भर काफी नहीं है. यहां औरतों के मुद्दों से भी ज्यादा जरूरी कुछ है. यहां बात आदमी औरत से ज्यादा, गैर बराबरी की है. गैर बराबरी खत्म होनी चाहिए क्योंकि जातिवाद भी गैर बराबरी की सोच से शुरू होता है. मानवाधिकार हनन भी.


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दुनिया भर में दमन और हिंसा इसीलिए है, क्योंकि कोई ताकतवर और समर्थ है, कोई कमजोर और असमर्थ. गैर बराबरी इनकी भी जड़ में है. सत्ता असंतुलन का ही नतीजा है कि औरतों को आप अपनी बराबरी में लाना नहीं चाहते. उन्हें चूड़ियां-पेटीकोट पहनाकर बैठ जाने को कहते हैं. इसके बावजूद कि डेटा कहता है, पिछली लोकसभा में महिला उम्मीदवारों के जीतने की दर 9 परसेंट से ज्यादा थी, और पुरुष उम्मीदवारों की साढ़े छह परसेंट से कम.


आज की राजनीति में मातृत्व किसी भी विषय को पवित्रता का जामा पहना देता है- गऊ माता से लेकर भारत माता और गंगा मां तक. औरतों के सशक्तीकरण और अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने वाले कम नहीं. तीन तलाक हो या बेटियों को पढ़ाना-लिखाना, इन पर जोर-जोर से चिल्लाने वाले भी बहुतेरे हैं. लेकिन, असल सवाल फिर भी कायम है- क्या भारतीय राजनीति में सिर्फ औरतों की बात की जाएगी, या उनके साथ सत्ता बांटने की भी शुरुआत की जाएगी? हां, इसके लिए करना सिर्फ इतना होगा कि उनके रास्ते में रोड़े न अटकाए जाएं. उन्हें अपने बराबर में बैठने दिया जाए.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)


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