तिनका-तिनका रेडियो एक विशेष पहल इसलिए है क्योंकि जेलों के अंदर संवाद की कुछ जरूरतें होती हैं. असल में चहारदीवारी के अंदर इस तरह की जरूरतें ज्यादा होती हैं. कोरोना के समय जब खासतौर पर सारी दुनिया इस बात का एहसास पहली बार करने लगी थी कि जेल जैसी जिंदगी घर के अंदर कैसी हो सकती है. तब भी लोगों को ये ख्याल नहीं आया कि जो असल में जेलों के अंदर हैं, उनकी स्थिति क्या होगी? इसलिए वो समय तिनका-तिनका के लिए ज्यादा दबाव और तनाव वाला समय था. उस समय हम जेलों में रेडियो लाने पर काफी तेजी के साथ काम कर रहे थे.


हरियाणा के जेलों में जो रेडियो आया पहली बार आया वो तिनका-तिनका ही लाया. हमने देखा कि तमाम बंदिशों के बीच जब बंदी अपने परिवारों से भी कट गए थे, उनकी मुलाकातें नहीं हो रही थीं और उनके पास जो इकलौता साधन बच गया था जो कि सक्रिय माध्यम था वो था टेलिफोन. उस समय जेल का रेडियो उनकी जिंदगी में बहुत बड़ा सुकून का जिंदगी लेकर आया.


जेलें तिनका-तिनका जिंदगी का अहम हिस्सा


कोरोना जब चला गया तो फिर से लोग भूल गए कि कोरोना की वजह से बंदिशें आयी थीं लेकिन हम जेलों को नहीं भूलें क्योंकि जेलें तिनका-तिनका जिंदगी का एक अहम हिस्सा रही हैं. इतने सालों में जब जेलों को करीब से देखा और जब ये रेडियो आने लगा और उसकी सफलताओं को हमने देखा कि जेल में रेडियो को और सबल व सशक्त माध्यम कैसे बनाया जाए उस पर अब काम हो रहा है. 


हर जेल में हर तरह के बंदी होते हैं. जैसे बाहर की दुनिया में अलग-अलग रंगों की दुनिया है लेकिन जेल में आने वाले लोग अलग-अलग आपराधिक पृष्ठभूमि की दुनिया से आते हैं और उसके अलावा उनका सामाजिक, आर्थिक और भी चीजें काफी अलग होती हैं. इसलिए इनमें से ज्यादातर लोग फांसी वाले अपराधियों को छोड़ दें या जिनकी आकस्मिक मृत्यु होती है, बाकी सब लोगों को समाज में आना होता है. तो वे समाज में बेहतर तरीके से कैसे लौटें, उसमें जेल के इस रेडियो ने एक जादुई ताकत रखते हुए एक बड़ा काम किया है. 


तिनका-तिनका जेल रेडियो की जब शुरुआत हुई और फिर तिनका ने अपने कुछ ब्रॉडकास्ट की शुरुआत की और जेलों के अंदर रिसर्च की एक परंपरा शुरू हुई. यही वो समय था जब उत्तर प्रदेश की जेलों में और खास तौर पर भारत में महिलाओं और बच्चों की जेलों में संवाद की क्या जरूरतें हो सकती हैं वो रिसर्च प्रोजेक्ट भी पूरा हुआ और उसे आउटस्टैंडिग रिमार्क किया गया जिसे हम इसी महीने रिलीज करने का प्लान कर रहे हैं. जेलों को करीब से देखते हुए ये समझ में हर बार आता रहा है कि जेल कुछ ऐसा है कि इस पर बोलने की जरूरत नहीं है बल्कि कुछ करने की जरूरत है.


जेल के हर हिस्से में बदलाव की जरूरत


जेल के हर हिस्से में बदलाव की जरूरत है. जब मैं जिला जेल आगरा में काम कर रही थी और ये भारत की सबसे पुरानी जेल की इमारत है. इस जेल में काम करते हुए रेडियो के साथ-साथ कई और परियोजनाओं पर काम हुआ. उनमें एक हिस्सा जेल के बच्चे थे और इन बच्चों को हमने रेडियो के साथ जोड़ा था. जैसा मैंने पहले भी कहा कि जेल पर कहने की जरूरत कम है और हमें काम करने की ज्यादा आवश्यकता है. 


मैं इतना ही कह सकती हूं की करीब 1800 बच्चे अपने माता या पिता के साथ भारत की जेलों में हैं. वे अपने माता या पिता के साथ जेल के अंदर किसी परिस्थिति में जाते हैं और इनकी जो जरूरतें हैं वो वयस्कों की जरूरत से अलग है. कुछ जेलों ने इन जरूरतों को समझा है और हमने भी कुछ सुझाव सरकार को दिए हैं. उसके तहत कुछ सुझावों को हम अमल होते हुए देख रहे हैं, जैसे कि बच्चों की शब्दावली, इनके लिए किताबें, रंग, लिखने के लिए कॉपियां और अन्य सामग्री. ये सब ठोस और बुनियादी जरूरतें हैं, जिस पर ध्यान देने की जरूरत है. 


'तिनका-तिनका डासना' किताब में जेल के अंदर रहने वाले बच्चों को लेकर विस्तार से लिखा गया है और इसी तरह तिनका-तिनका से मध्य प्रदेश की जेल के बच्चों को जोड़ा गया है. ऐसे ताज्जुब की बात ये भी है कि इस देश में हर साल किताबों के बड़े-बड़े मेले लगते हैं. लेकिन ये भी एक त्रासदी है कि जेल पर लिखी गई पुस्तक को आमतौर पर लोग पढ़ते ही नहीं हैं. ज्यादातर लोग जेल के बारे में धारणा बनाते हैं फिल्मों के आधार पर या फिर सनसनीखेज धारावाहिकों के आधार पर. लेकिन तिनका-तिनका सनसनी पर काम नहीं करता. वो मानवीय संवेदनाओं पर काम करता है और सुधार पर काम करता है...ये जेल के बच्चे हमलोगों के काम का हिस्सा लगातार रहे हैं और हम उन्हें सहयोग समर्थन और साथ देने की जो भी बात हो सकती है वो हम करते हैं. कई जेलों में बच्चों के साथ बाहर जाने का भी कार्यक्रम किया गया है. कुछ जेलों में इन बच्चों को कुछ शाब्दिक क्रियाकलापों से जोड़ा गया है और इन सबके नतीजे बहुत ही सुखद रहे हैं.


भारत में जेलें राज्य का विषय


जेल को लेकर सरकार को तो ध्यान देना ही चाहिए. भारत में जेल स्टेट का सब्जेक्ट है और राज्य जेलों की अपने हिसाब से नियम और कायदे तय करता है और उसके हिसाब से बदलाव आते हैं. सरकार को सुझाव भी दी जाती है. इसी साल अभी भारत की राष्ट्रपति ने भी इस बात पर ध्यान दिया है कि जो गरीब बंदी है, जो अपनी जमानत तक नहीं दे पाते हैं, सरकार उनकी तरफ ध्यान दे.  इस बार जब बजट प्रस्तुत किया गया तब देश की वित्त मंत्री ने भी बंदियों पर अपनी चिंताएं जताते हुए उनकी मदद के लिए सरकारी सहयोग की बात की. लेकिन जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत है, वो है सामाजिक सहयोग और फिलहाल यही सबसे कम है.  


जेल के बारे में हम कुछ सोचना नहीं चाहते हैं और जेल के बारे में कोई काम नहीं करना चाहता है. मुझे हर रोज कम से कम 10-15 फोन कॉल आते हैं, जहां लोग ये कहते हैं कि वे जेल के काम से बहुत प्रभावित हुए हैं. लेकिन पूरे साल में मुश्किल से दो या तीन लोग ऐसे होते हैं जो वाकई में जेल के लिए कुछ करना चाहते हैं. बाकी लोग जेल में जाकर एक तस्वीर खींचवाना चाहते हैं. वे जेल में बंद लोगों को देखकर आना चाहते हैं. वे संवेदनाओं की बातें करना चाहते हैं लेकिन वे करना कुछ नहीं चाहते हैं. जेल के लिए समय निकालना सबसे मुश्किल काम है. इस बात को मैंने अपनी वर्षों की जेल यात्राओं से सीखा है. जेल के काम ने यह भी बताया कि दरअसल, समाज का एक बड़ा हिस्सा झूठ बोलता है. सबसे बड़ा झूठ वो ये बोलता है कि वो समाज के लिए कुछ करना चाहता है लेकिन इससे बड़ा झूठ और कोई मुझे दिखाई नहीं देता है.


आपको कब लगा कि ये सब किया जाना चाहिए?


एक तो तिनका-तिनका का काम समाज के सामने बहुत कुछ नहीं है और हम भी समाज को अपने काम के बारे में बतलाने में रुचि भी नहीं रखते हैं और न ही उसके लिए समय है. ये काम समाज में प्रचार के लिए नहीं हो रहा है. ये काम बंदियों के लिए हो रहा है. जैसा मैंने कहा कि कोई सहयोगी नहीं है. सामाजिक और आर्थिक तौर पर कोई सहयोगी नहीं है. मैं अपने मन से इस काम को कर रही हूं और वर्षों से कर रही हूं और मैं करती रहूंगी जब तक मैं कर सकती हूं. क्योंकि कौन सा ऐसा क्षण आ जाए ये बताना मुश्किल है. जब मैंने जेलों को पहली बार देखा था और ये बात 1993 की है, तब मुझे लगा था कि मुझे इस काम को लगातार करना है. फिर मैं बहुत सालों तक धीरे-धीरे करती रही. लोगों को उसका अंदाजा तक नहीं था. जेल के काम के बारे में पहली बार लोगों को तब पता लगा जब 2013 में 'तिनका-तिनका तिहाड़' किताब आई और इसका विमोचन देश के गृह मंत्री ने विज्ञान भवन में किया. ये वो समय था जब भारत ने पहली बार आपदा कॉन्फ्रेंस को होस्ट किया था और इसको होस्ट करते हुए इसकी शुरुआत तिनका-तिनका तिहाड़ से हुई थी. 


उसी मौके पर उन्होंने इस गाने को रिलीज किया था जिसे मैंने लिखा था और बंदियों ने गाया था. तब भारत के कई लोगों को पता लगा कि मैं जेलों पर काम कर रही हूं. उससे पहले किसी को कुछ भी मेरे काम को लेकर पता नहीं था. अभी भी जो जेलों पर काम हो रहा है, उसका बड़ा हिस्सा लोगों को नहीं मालूम है. वाक्या बहुत सारे हैं. सबसे बड़ा जो एक टर्निंग प्वाइंट जिसे आप एक जर्नलिस्ट के दृष्टिकोण से जानना चाहते हैं वो ये था कि जब मैंने अलग-अलग आपदाओं को देखा और उसके बारे में समझा, चाहे वो आतंक से जुड़ी घटना थी या  भूकंप था. हर बार मुझे ये लगा कि जो सारा मसला है वो हर बार यहां पर आकर रुक जाता है जहां हमें कोई खबर मिलती है. उसके बाद की दुनिया को हम नहीं जानना चाहते क्योंकि हम समय नहीं निकालना चाहते है. जब बचपन में मेरी टेलीविजन के साथ शुरुआत हुई और एशिया के सबसे कम उम्र का मुझे एंकर बनने का मौका मिला, उसी समय से मुझे लगातार ये समझ में आने लगा था कि दुनिया का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ देखने और दिखाने में खर्च करता है. तब मुझे लगा कि कुछ ऐसे काम करने चाहिए जो न तो लोगों को दिखता हो और जिन्हें न ही दिखाने की जरूरत है. 


जेलें बदलने लगे ये ही मेरा मकसद


कुछ काम ऐसे होने चाहिए जो आपकी प्रार्थनाओं पर टिके हों. लेकिन मैं ये भी जानती हूं कि मेरे अपने ही साथी जो कई पत्रकार हैं, उन्हें ये समझ में ही नहीं आएगी. या बहुत सारे लोग जो जेलों के ऊपर डॉक्यूमेंट्री बनाना चाहते हैं या जेलों पर एक प्रचार सामग्री तैयार करना चाहते हैं, उन्हें भी यह समझ में नहीं आएगी. जेल को समझने के लिए उसे महसूस करना जरूरी है और यही महसूस करते हुए मुझे लगा कि तिनका-तिनका ही नाम उसके लिए सबसे उपयुक्त होगा. चूंकि, तिनके कभी दिखाई नहीं देते लेकिन उनकी मौजदूगी समाज में होती है. यही तिनका-तिनका फाउंडेशन का सार है. हम वो करने की कोशिश कर रहे हैं और वहां जाने की कोशिश कर रहे हैं, जहां लोग नहीं जाना चाहते हैं. जिसके लिए लोग समय निकालना नहीं चाहते हैं. यही हमारी जिंदगी का मकसद है कि जेलें आपस में जुड़ जाएं और जेलें बदलने लगे.


पानीपत की जेल हरियाणा की पहली जेल है जहां पर जेल रेडियो शुरू किया गया. मैं वहां अक्सर जाती हूं, मैं वहां एक दिन गई तो रविवार का दिन था और मैंने देखा कि एक बुजुर्ग व्यक्ति बाहर बैठे हैं. टकटकी लगाकर रेडियो रूम की तरफ देख रहे हैं. मैं ऐसा दावा कर सकती हूं कि भारत का सबसे सुंदर रेडियो रूम इसी जेल का है और यहीं पर तिनका-तिनका ने अपनी एक लाइब्रेरी बनाई है. ये जो बुजुर्ग हैं मैंने उनसे पूछा कि बाबा आप यहां क्यों बैठे हैं तो उन्होंने कहा कि मैं रागिनी सुनाने आया हूं. मैंने पूछा कि क्या आप रागनी सुनाते हैं तो उन्होंने कहा कि मैं जब गांव में था तब दो चार लोगों को सुनाता था. आज पहली बार मैं माइक पर सुनाने आया हूं.


अब आप सोचिए कि कोई इंसान जो 80 वर्ष पूरा कर चुका है, उसे 80 साल तक अपनी बात कहने लिए माइक तक नहीं मिला था. जब उसे माइक मिला तो ऑडियंस भी मिली तो जेल की मिली. जब वो रागिनी को सुनाकर लौटे तो मैंने उनसे पूछा कि आज आपको कैसा लगा. वो रोने लगे. पूरी जेल ने उनकी रागिनी को सुना था और ये मेरे लिए एक विशेष पल था क्योंकि मैं ये देख सकती थी, समझ सकती थी कि किसी इंसान के लिए जहां कोई उम्मीद नहीं है, उसके लिए जेल का जो ये रेडियो है कितनी बड़ी खुशी लेकर आया होगा. 


ऐसे और भी कई सारे अनुभव थे, लेकिन उनको मैं कितना कहूं, ये थोड़ा मेरे लिए सोचने की चीज थी. हमने कुछ एक चीजें जैसे पानीपत से ही एक कोशिश शूरू की है, उसने एक गाना लिखा था जिसे उसने अपने यूट्यूब चैनल पर डाला है और जैसे उसने भी अपनी बात कही कि उसके आस-पड़ोस के लोगों के मन में उसको लेकर नजरिया बदला. जेल में जो आता है उसके लिए नजरिया बदलता चला जाता है और स्वाभाविक तौर पर ये समाज उन लोगों के साथ खड़ा नहीं होता है. इससे वे कमजोर होते जाते हैं. लेकिन जेल में आने पर रेडियो, किताबों की दुनिया, तिनका-तिनका के साथ ये लोग जब बैठकर लिखते हैं तो कैसे इनके अंदर एक आत्मविश्वास आता है. तब इन्हें लगाता है कि ये अपनी नई जिंदगी की शुरुआत कर सकते हैं. ऐसी बहुत सारी जिंदगियों को नए सिरे से मैंने बनते हुए देखा है.