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महिला आरक्षण बिल: जीवन की 'टुच्चई' राजनीति में टांगें फैलाए डटी है!
सियासी दांवपेंच के रियाज में मकसद भले बेसुर हो जाए- सीटों की गिनती की सरगम सुरीली रहनी चाहिए. इस बीस साल पुराने राग के सुर भी बंधे हैं. महिला आरक्षण बिल फिर से हमारे बीच है.
बोतल से जिन्न बाहर निकलने को तैयार है. सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी हैं कि बीजेपी अपनी राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल करके महिला आरक्षण बिल को लोकसभा में पास करवा दे. यह बिल कई साल से लोकसभा की चौखट पर दस्तक दे रहा है. कभी मंच से और कभी नेपथ्य से बिल को पास करवाने की कवायद होती रहती है. इससे पहले मार्च में डीएमके अपनी नेता कनिमोझी के नेतृत्व में बिल पास करवाने के नाम पर एक रैली निकाल चुकी है. बाकी की पार्टियां भी कमर कसे तैयार हैं. संसद में एक तिहाई सीटों पर महिलाओं को आरक्षण मिले, तो काम सधे. सियासी दांवपेंच के रियाज में मकसद भले बेसुर हो जाए- सीटों की गिनती की सरगम सुरीली रहनी चाहिए. इस बीस साल पुराने राग के सुर भी बंधे हैं. महिला आरक्षण बिल फिर से हमारे बीच है.
इस बिल की कहानी बहुत छोटी सी है. 1974 में स्टेटस ऑफ विमेन इन इंडिया नाम की एक कमिटी ने महिलाओं को लोकल बॉडीज़ में आरक्षण देने की सिफारिश की. 1993 में 73 वें और 74 वें संविधान संशोधनों से पंचायतों और म्यूनिसिपल बॉडीज़ में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित हुईं. इसके तीन साल बाद देवगौड़ा सरकार ने इस बिल को लोकसभा में रखा, पर आज तक इस पर सभी पार्टियां एकमत नहीं हुई हैं. 2010 में राज्यसभा ने तो इस बिल को पास कर दिया. लेकिन लोकसभा में बिल पास होता, इससे पहले ही लोकसभा भंग हो गई. चूंकि यह संविधान संशोधन है इसलिए राज्यसभा और लोकसभा के दो तिहाई सदस्यों की मंजूरी के बाद राज्य विधानसभाओं से भी इसकी मंजूरी जरूरी है. यानी रास्ता अभी लंबा ही है.
डेटा के हिसाब से देखें तो 16 वीं लोकसभा में महिलाओं की संख्या बहुत कम है. इसके बावजूद कि सरकार के दो ताकतवर मंत्रालय महिलाओं के ही पास हैं. रक्षा में निर्मला सीतारमन और विदेश में सुषमा स्वराज. लोकसभा में पुरुष सांसद अगर 481 हैं तो महिला सांसदों की संख्या 62 है. इसी तरह राज्यसभा के कुल 241 सदस्यों में सिर्फ 28 महिलाएं हैं. देश की जनसंख्या के हिसाब से महिला और पुरुष लगभग बराबर हैं. 65 करोड़ 50 लाख पुरुषों पर 61 करोड़ 40 लाख महिलाएं हैं. हर 100 पुरुषों पर 94 महिलाएं होने के बावजूद लोकसभा में हर 100 पुरुष सांसदों पर महिला सांसदों की संख्या 11 ही ठहरती है.
जीवन की 'टुच्चई' राजनीति में टांगें फैलाए डटी है. जिस कांग्रेस ने महिला आरक्षण बिल पर सरकार को कॉर्नर करने का दांव खेला है, उसने पिछले लोकसभा चुनावों में सिर्फ 12 परसेंट महिला उम्मीदवार खड़े किए थे. बीजेपी की हालत भी वैसी ही थी. उसके महिला उम्मीदवारों का परसेंट सिर्फ 8 था. जो महिला आरक्षण पर सबसे ज्यादा तनातनी कर रही है, उस समाजवादी पार्टी ने 13.2 परसेंट महिला उम्मीदवार मैदान में उतारे थे. सबसे ज्यादा महिला उम्मीदवार तृणमूल कांग्रेस के थे. 131 में से 25 उम्मीदवार, मतलब 19 परसेंट. तो, 16 वीं लोकसभा में 11 परसेंट महिला सांसद का रिकॉर्ड अब तक का सबसे बड़ा रिकॉर्ड है. लेकिन दुनिया भर के नक्शे में हम कहीं नहीं पहुंचते. सियासत में महिला प्रतिनिधित्व की एक रैंकिंग यूएन ने की है. इसमें हमारा स्थान 149 वां है. सबसे ऊपर है ईस्ट अफ्रीकी देश रवांडा जहां निचले सदन में महिलाओं का परसेंटेज 61.3 है और ऊपरी सदन में 38.5.
लीजिए- हम इत्ते गए-गुजरे निकले. जहां बेटी नहीं, बेटा राजनीतिक गद्दी पर जबरन बैठाया जाए वहां अपने पोलेपन को पहचाना जा सकता है. दरअसल सबसे आसान काम आदर्शवाद बघारना है. घटिया उपयोगितावादी बनते देर कितनी लगती है. इसी से इस बात की आशंका होती है कि कानून से सांख्यिकीय आंकड़े बटोरने के बाद सिर्फ पुरुष राजनेता की पौ बारह न हो. चारा घोटाले के बाद एक प्रॉक्सी मुख्यमंत्री को बिहार में देखा जा चुका है. दरअसल मंत्रिमंडल में कद्दावर महिला मंत्रियों के साथ सरकार ने जो छवि बनाई है, उसे देखते हुए कांग्रेस भी पैंतरा खेलने को तैयार है. महिला नेताओं को इसमें प्यादा बनाया जा रहा है. उनके लिए आरक्षण की याद दिलाई जा रही है. यह अलग बात है कि अक्सर प्यादों की चाल से खेल पलट जाया करते हैं.
यह खेल देश भर में पलटा जा रहा है. प्रॉक्सियां अपना औचित्य साबित करने लगी हैं. लोकल बॉडीज की महिला सदस्यों ने आरक्षण का लाभ उठाना शुरू कर दिया है. अनुभव के साथ-साथ आंकड़े भी बताते हैं कि पंचायतों में 60 परसेंट महिला लीडर्स ने स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू कर दिया है. कई जगहों पर दलगत राजनीति से ऊपर उठ रही हैं. एक पॉलिटिकल सर्वे में कहा गया है कि पंचायतों की 36 परसेंट औरतें अपनी पॉलिटिकल पार्टियों की तय नीतियों से आगे बढ़कर काम करती हैं जिससे पुरुष नेताओं से उनके हितों का टकराव भी होता है. पर इसके सुखदायी परिवर्तन नजर आ रहे हैं. तमिलनाडु की महिला पंचायत सदस्य पुरुषों के मुकाबले सड़कें बनाने के लिए 48 परसेंट अधिक पैसा खर्च कर रही हैं. हरियाणा में गरीबों के लिए घर बनवाने और पानी का पंप लगवाने के अभियानों और कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ कैंपेन चलाने में महिला पंचायत सदस्य बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं. यह भी पाया गया है कि पुरुष नेता जहां बुनियादी सुविधाओं की मरम्मत पर ज्यादा पैसा खर्च करते हैं, वहीं महिलाएं इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने पर. यह बात और है कि ग्रामीण इलाकों में महिला नेताओं को अब भी विरोध का सामना करना पड़ता है. इसके बावजूद कि बिहार, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और गुजरात के स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 परसेंट सीटों को आरक्षित कर दिया गया है.
यूं राजनीति में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के लिए सिर्फ आरक्षण से काम चलने वाला नहीं. इससे आगे भी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है. औरतों को अपने ऊपर शासन करते देख मर्दों की हालत खराब हो जाया करती है. हम उनके किए तक को याद नहीं करते. भारतीय संविधान निर्माताओं में क्या हम उन 15 महिलाओं में से एक का भी नाम जानते हैं जिन्होंने इस देश की राजनीति का रुख मोड़कर रख दिया. पूर्णिमा बैनर्जी, दुर्गाबाई देशमुख, हंसा मेहता, अम्मू स्वामीनाथन, एनी मैसकेरेन, बेगम अजिज रसूल, दक्षायनी वेलायुदान, कमला चौधरी, मालती चौधरी, राजकुमारी अमृत कौर, रेणुका रे, सरोजिनी नायडु, सुचेता कृपलानी, विजयलक्ष्मी पंडित, लीला रॉय- इनमें से कितनों के नाम हम जानते हैं. तो, औरतों के लिए सीटें रिजर्व करने के साथ राजनीति में उनके लिए चौखट भी खोलनी होगी. कानून की ही नहीं, सोच की भी.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
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